Book Title: Shabda arth Sambandh Jain Darshaniko ki Drushti me Author(s): Hemlata Boliya Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 1
________________ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. -. -.-.-.-.-. -. -. -.-. -. -.-.-. -.-. -. -.-. -.-.-.-.-.-. शब्द-अर्थ सम्बन्ध : जैन दार्शनिकों की दृष्टि में - डॉ० हेमलता बोलिया (सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर) अन्य समस्याओं की ही भाँति शब्द-अर्थ के पारस्परिक सम्बन्ध भी दार्शनिक जगत् में एक विवाद का विषय बनी हुई है। शब्द-अर्थ में परस्पर कोई सम्बन्ध है अथवा नहीं, यदि कोई सम्बन्ध है तो वह कौन-सा आदि प्रश्नों को लेकर दार्शनिकों ने अपना-अपना चिन्तन प्रस्तुत किया है। ___कतिपय दार्शनिक शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को स्वीकार नहीं करते हैं; किन्तु इसकी उपेक्षा नहीं जा सकती, क्योंकि यदि इनमें कोई सम्बन्ध नहीं है तो हमें जो यत्किचित् की प्रतीति या अवबोध (ज्ञान) शब्द के माध्यम से होता है, वह नहीं होना चाहिए । जैन दार्शनिक हरिभद्रसूरि का कथन है कि यदि यह माना जाय कि इन दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं है, तो किसी सिद्ध पुरुष की निन्दा अथवा स्तुति कुछ भी करें तो इसमें कोई दोष नहीं होना चाहिए, तथा किसी को पुकारने पर उसे न तो सुनना चाहिए और न ही तदनुकूल आचरण करना चाहिए; किन्तु लोक में ऐसा प्रत्यक्षतः देखने को नहीं मिलता। इसे स्वीकार न करने पर हमारा प्रतिदिन का कार्य भी नहीं चल सकेगा। अतः शब्द और अर्थ में परस्पर सम्बन्ध है, इसे स्वीकार किये बिना हमारी गति नहीं है। यह बात पृथक् है कि इनमें परस्पर कौन-सा सम्बन्ध है? इनके पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर भी दार्शनिकों में मतैक्य नहीं है। दार्शनिकों ने इन दोनों के बीच नाना सम्बन्धों की कल्पना की है, जैसे—कार्यकारणभाव सम्बन्ध, वाच्य-वाचकभाव सम्बन्ध, तादात्म्य-सम्बन्ध, जन्यजनकभाव सम्बन्ध, कुण्ड तथा बदरी के समान संयोग सम्बन्ध, तन्तु एवं पट के समान समवाय सम्बन्ध, निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध, आश्रय-आश्रयिभाव सम्बन्ध, सामायिक सम्बन्ध आदि । परन्तु इन सब सम्बन्धों का अन्तभाव दो सम्बन्धों किया जा सकता है १. शब्द और अर्थ में अनित्य सम्बन्ध है अथवा २. नित्य सम्बन्ध है। अनित्य सम्बन्ध नैयायिकों ने शब्द और अर्थ में नित्य अथवा अपौरुषेय सम्बन्ध मानने वाले दार्शनिकों के मत को पूर्वपक्ष में रखकर सयुक्ति खण्डन किया है तदनन्तर स्वमत को समाधान या सिद्धान्त मत रूप में प्रस्थापित किया है। इनके --शास्त्रवार्तासमुच्चय का० ६७२. १. बुद्धावर्णो पि चादोषः संस्तवेप्यगुणस्तथा । आह्वानाप्रतिपत्यादि शब्दार्थयोगतो ध्र वम् ॥ २. न्यायमंजरी, आह्निक ४ पृ० २२०-२२. ३. न्यायमंजरी, आह्निक ४, पृ० २२०-२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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