Book Title: Seva Sanskar aur Hamara Dayitva Author(s): Gautam Parakh Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf View full book textPage 2
________________ शिक्षा केन्द्र बच्चों की दूसरी पाठशाला है बचपन के संस्कार ही आगे चलकर पुष्पित एवं पल्लवति होते हैं। एक मनोवैज्ञानिक का कहना है कि बच्चा ५ वर्ष की आयु में जो भविष्य में उसे बनना है वह बन जाता है। बाल मन में कोमल भावनाओं का सुहावना संसार होता है। यह जीवन की अनमोल अवस्था है। संस्कारों का बीजारोपण इसी अवस्था में किया जाना चाहिये। कहा जाता है कि Well begin is half done अर्थात् अच्छी शुरुवात अच्छी सफलता का प्रतीक है। संस्कारों के क्रम में हमें ध्यान रखना होगा कि बालक परिवार का एक सम्मानित और प्यारा सदस्य है उसके मानसिक संवेगों और शारीरिक विकास में हमारा उसे पूरा सकारात्मक सहयोग मिलना अति आवश्यक है । बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक उसके विकास का पथ हमें प्रशस्त करना है। उसकी भावनाओं, विचारों तथा प्रयत्नों में सद्संस्कारों का समावेश करने से उसका व्यक्तित्व इसी अवस्था से निखरने लगेगा। संस्कारित परिवार में ही संस्कारवान बच्चों का सर्वांगीण विकास होता है। घर को मन्दिर कहा गया है। हम भी वैसी ही स्थिति अपने परिवार में बनायें जिससे घर मन्दिर और स्वर्गं लगे जब देश की व्यवस्था एवं संचालन के सूत्र तथा सामाजिक व्यवस्था संस्कारवान लोगों के हाथों में होगी तो हम गर्व के साथ नया परिवर्तन देख सकेंगे। व्यसन मुक्ति की ओर व्यसनों से मुक्त जीवन का अनंद ही अनूठा है जीवन सरल एवं सहज हो जाता है। सरल जीवन में ही प्राणी मात्र के साथ मैत्री भाव का अंकुर अंत:करण में प्रस्फुटित होता है, सेवा भावना बलवती होती है। यही संस्कारित व्यक्ति का परिचायक है। मेरी भावना की निम्न पंक्तियों में छिपा है यही भाव : मैत्री भाव जगत में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे, दीन-दुखी जीवों पर मेरे, उर से करुणा स्रोत बहे । दुर्जन, क्रूर, कुमार्ग-रतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आवे । साम्य भाव रक्खूं मैं उनपर ऐसी परिणति हो जावे ।। अर्थात् निश्छल हृदय से ही करुणा का स्रोत निःसृत होता है जिससे समस्त जगत के प्रति मैत्री एवं समता भाव का उद्भव होता है। जिससे पर पीड़ा की अनुभूति होती है और हम पर परोपकार के लिए प्रवृत्त होते हैं अन्य जीवों को भी अपनी आत्मा के तुल्य समझना चाहिये। मन में अपकारी के प्रति भी दुर्भावना न हो यही साम्य भाव है। संस्कार के प्रथम चरण में ही यदि हमने उपरोक्त तथ्यों को जीवन में आत्मसात् कर लिया तो व्यसन का अध्याय ही Jain Education International समाप्त हो जाता है । आजकल हम वैचारिक एवं चारित्रिक संक्रमण के काल से गुजर रहे हैं। आचार-विचार एवं कर्म के प्रदूषण से व्यक्ति विविध दुर्व्यसनों में उलझकर रह गया है। उसकी निर्माणकारी जीवन ऊर्जा भटक गई है। उसकी फैशनपरस्ती कथित पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण, प्रचार माध्यमों द्वारा नशा व मांसाहार को प्रोत्साहन, होटल संस्कृति, गलत दोस्ती आदि ने पूरे संस्कार व नैतिक मूल्यों को ढक रखा है। चारों ओर व्यसन पीड़ित जन मानस दीख रहा है। ऐसी स्थिति में नैतिक / चारित्रिक मूल्यों को सुरक्षित बनाये रखना एक बड़ी चुनौती है। उसके लिए जीवन की प्रारंभिक आवश्यकता है दुर्व्यसनों को त्याग करने की निम्न व्यसनों को जीवन से दूर करें १. जुआ सट्टा खेलने का त्याग । २. मांस भक्षण का त्याग ३. मदिरापान, धूमपान का त्याग। ३. पर स्त्रीगमन का त्याग । ५. शिकार खेलने का त्याग। ६. चोरी करने का त्याग । ७. वैश्यागमन का त्याग । जीवन में नैतिकता एवं सात्विकता के लिए व्यसन मुक्त होना पहली शर्त है । व्यसन मुक्ति ही संस्कार युक्त जीवन का पर्याय है। संस्कार जागरण एवं नये समाज के निर्माण के लिए व्यसन मुक्ति अनिवार्य है। औरों के हित जो रोता है, औरों के हित जो हँसता د 1 ह उसका हर आँसू रामायण, प्रत्येक कर्म ही गीता है। सेवा का पथ संस्कार का एक पहलु व्यसन मुक्ति है तो दूसरा पहलू सेवा है सेवा को ईश्वर तक पहुंचने का सबसे सरल मार्ग माना गया है। दीन-दुखी, पीड़ितों, अनाथों, विकलांगों एवं अभावग्रस्त लोगों की सेवा का शुभ संकल्प ही संस्कार की सच्ची कसौटी है। विशेषकर अपंग, अनाथ की सेवा तो ईश्वर सेवा के समान है। हमारे आस-पास कितने ही दुःख अभाव व बीमारी से ग्रस्त हैं जिन्हें सेवा, सहारा व सहयोग की आवश्यकता होती है। विकलांगता से तात्पर्य है कि इंद्रियों की प्राप्ति तो है लेकिन इंद्रियों से जुड़े बल, प्राण या तो निष्क्रिय हो गये हैं या शिथिल हो गये हैं। मानव शरीर पाकर भी जो विकलांगता के शिकार है. अपंगता के अभिशाप से ग्रस्त हैं ऐसे लोगों को मानसिक संबल, शारीरिक सहयोग और आर्थिक सहायता मुहैया कराना ही मानवता की पूजा है। मानव सेवा वस्तुतः सेवा का श्रेष्ठतम पहलू है यहाँ पर स्वामी विवेकानंद का वक्तव्य उद्धृत कर रहा हूँ © अष्टदशी / 239 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3