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गौतम पारख
हमारे बच्चों पर पड़ता है। सामाजिक व राष्ट्रीय संरचना की एक इकाई है परिवार, अत: परिवार समाज व राष्ट्र के चरित्र निर्माण में हमारी भी भूमिका होनी चाहिये। हम संस्कारवान समाज व राष्ट्र के निर्माण में तभी श्रेष्ठ सहभागी हो सकते हैं जब Charity begins at home के अर्थ को अपने स्वयं के जीवन में चरितार्थ करें। अपने समाज व राष्ट्र को सुस्कारों की ज्योति से प्रकाशवान करें। सर्वप्रथम हम अच्छी बातों व सुसंकल्पों को ग्रहण करना सीखें। इसके लिए भी यह आवश्यक है कि गुणी जनों व सदाचारी पुरुषों को अपना आदर्श माने। उनके प्रति सम्मान भाव रखें। इस क्रम में मेरी भावना की ये पंक्तियां हमें यही बोध करा रही है
गुणी जनों को देख हृदय में, मेरे प्रेम उमड़ आवे। बने जहाँ तक उनकी सेवा, करके यह मन सुख पावे।।
होऊं नहीं कृतघ्न कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आवे। उन्नत संस्कार जीवन की अमूल्य निधि होती है। जीवन
गुण ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे।। यात्रा में गर्भावस्था में बाल्यावस्था फिर यौवन और उसके
गुणवान लोगों को देखकर मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा एवं पश्चात् वृद्धावस्था तक हर क्षण संस्कार हमारा मार्ग प्रशस्त
प्रेम का भाव उमड़े, उनकी यथाशक्ति सेवा करके सुख एवं करता है। विगत वर्षों में संस्कारों का जो अवमूल्यन हुआ है,
आनन्द का अनुभव करूँ। अपने उपकारी के प्रति भी मेरे मन में वह चिन्तनीय है। अस्तु उसके परिशोधन में अब और विलम्ब
कृतज्ञता का भाव रहे। कभी भी विद्रोह की भावना न बने। संयम किया गया तो भविष्य का प्रश्न स्वत: आ खड़ा होगा। जहां
और मर्यादा जीवन का सूत्र बने। सदैव दूसरों के सद्गुणों को उन्नत संस्कार व्यक्ति को विपरीत परिस्थितियों में भी उसके ग्रहण करू तथा परदोष दर्शन से बचूं, यही मेरी अभिलाषा है। आत्म-बल को सुदृढ़ता प्रदान कर कर्तव्य विमुख होने से बचाते
प्रथम पाठशाला : माँ बच्चों की प्रथम पाठशाला है। माँ हैं वही संस्कारों के प्रति दृढ़ता संबल प्रदान करते हैं। हम हताशा के ममत्व की शीतल छाया में उसका पोषण होता है। गर्भावस्था व निराशा के मकड़जाल को तोड़ते हए नैतिकता की ओर से शिशु का संस्कार व शिक्षा प्रारंभ होती है। महाभारत काल अग्रसर होने की आत्मिक शक्ति को प्राप्त करते हैं। यह के वीर अभिमन्यु इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। वैज्ञानिकों ने भी विडम्बना ही है कि आज जन सामान्य संस्कारों की बातों को बड़े गर्भावस्था में शिशु पर पड़ने वाले प्रभाव व संस्कारों की बातें सामान्य ढंग से लेते हैं और व्यक्तिगत जीवन में ही नहीं स्वीकार की हैं। अतः गर्भवती महिलाओं को धार्मिक एवं पारिवारिक, सामाजिक, व राष्ट्रीय जीवन क्षेत्र में भी सदसंस्कार वैज्ञानिक दृष्टि से विशेष हिदायतें दी जाती हैं। बचपन संस्कार की महत्ता को गंभीरता से नहीं ले पाते, यही चिंता का विषय है। भूमि है। बच्चों के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास चिंतन की दिशा :
में माँ के संपूर्ण व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ता है। चतुर मातायें एवं अच्छी बातें पढ़ने, बोलने तथा लिखने में तो अच्छी लगती
संस्कारवान परिवार बच्चों को शैशवस्था से ही संस्कार की हैं परन्तु उन्हें आचरण में लाना अत्यंत कठिन होता है। व्यसन
शिक्षा देते हैं। बच्चों को संस्कारवान बनाने के लिए माताओं का मुक्त हुए बिना और रचनात्मक चिंतन के अभाव में उत्तम
उदरदायित्व दूसरों से अपेक्षाकृत अधिक है। बच्चों को
संस्कारित करने में परिजनों में आचार-विचार-व्यवहार आदि का संस्कारों की कल्पना करना भी आत्म-प्रवंचना है। जीवन मूल्यवान है, हम अपने जीवन का मूल्य समझें और उसे
भी प्रभाव पड़ता है। परिवार में बड़ों के प्रति आदर भाव, दीन संस्कारवान बनायें। आत्म-बल के धनी बनें। हम स्वयं आत्म
दुखियों के प्रति करुणा भाव, आतिथ्य सत्कार भाव तथा सबके अवलोकन करें। अपने विकारों को जानें, पहचानें। विकार मुक्त
प्रति स्नेह भाव बनाने का प्रयास हो। साथ ही परिवार में सबसे हो दृढ़ प्रतिज्ञ बनें तभी हमारी छवि जनमानस में संस्कारवान
मैत्रीपूर्ण संबंध हो। सभी परस्पर मिलजुल कर रहें। सेवक के रूप में उभरेगी। हमारे प्रत्येक आचरण का प्रभाव
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शिक्षा केन्द्र बच्चों की दूसरी पाठशाला है बचपन के संस्कार ही आगे चलकर पुष्पित एवं पल्लवति होते हैं। एक मनोवैज्ञानिक का कहना है कि बच्चा ५ वर्ष की आयु में जो भविष्य में उसे बनना है वह बन जाता है। बाल मन में कोमल भावनाओं का सुहावना संसार होता है। यह जीवन की अनमोल अवस्था है। संस्कारों का बीजारोपण इसी अवस्था में किया जाना चाहिये।
कहा जाता है कि Well begin is half done अर्थात् अच्छी शुरुवात अच्छी सफलता का प्रतीक है। संस्कारों के क्रम में हमें ध्यान रखना होगा कि बालक परिवार का एक सम्मानित और प्यारा सदस्य है उसके मानसिक संवेगों और शारीरिक विकास में हमारा उसे पूरा सकारात्मक सहयोग मिलना अति आवश्यक है । बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक उसके विकास का पथ हमें प्रशस्त करना है। उसकी भावनाओं, विचारों तथा प्रयत्नों में सद्संस्कारों का समावेश करने से उसका व्यक्तित्व इसी अवस्था से निखरने लगेगा। संस्कारित परिवार में ही संस्कारवान बच्चों का सर्वांगीण विकास होता है। घर को मन्दिर कहा गया है। हम भी वैसी ही स्थिति अपने परिवार में बनायें जिससे घर मन्दिर और स्वर्गं लगे जब देश की व्यवस्था एवं संचालन के सूत्र तथा सामाजिक व्यवस्था संस्कारवान लोगों के हाथों में होगी तो हम गर्व के साथ नया परिवर्तन देख सकेंगे। व्यसन मुक्ति की ओर व्यसनों से मुक्त जीवन का अनंद ही अनूठा है जीवन सरल एवं सहज हो जाता है। सरल जीवन में ही प्राणी मात्र के साथ मैत्री भाव का अंकुर अंत:करण में प्रस्फुटित होता है, सेवा भावना बलवती होती है। यही संस्कारित व्यक्ति का परिचायक है। मेरी भावना की निम्न पंक्तियों में छिपा है यही भाव
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मैत्री भाव जगत में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे, दीन-दुखी जीवों पर मेरे, उर से करुणा स्रोत बहे । दुर्जन, क्रूर, कुमार्ग-रतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आवे । साम्य भाव रक्खूं मैं उनपर ऐसी परिणति हो जावे ।।
अर्थात् निश्छल हृदय से ही करुणा का स्रोत निःसृत होता है जिससे समस्त जगत के प्रति मैत्री एवं समता भाव का उद्भव होता है। जिससे पर पीड़ा की अनुभूति होती है और हम पर परोपकार के लिए प्रवृत्त होते हैं अन्य जीवों को भी अपनी आत्मा के तुल्य समझना चाहिये। मन में अपकारी के प्रति भी दुर्भावना न हो यही साम्य भाव है।
संस्कार के प्रथम चरण में ही यदि हमने उपरोक्त तथ्यों को जीवन में आत्मसात् कर लिया तो व्यसन का अध्याय ही
समाप्त हो जाता है । आजकल हम वैचारिक एवं चारित्रिक संक्रमण के काल से गुजर रहे हैं। आचार-विचार एवं कर्म के प्रदूषण से व्यक्ति विविध दुर्व्यसनों में उलझकर रह गया है। उसकी निर्माणकारी जीवन ऊर्जा भटक गई है।
उसकी फैशनपरस्ती कथित पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण, प्रचार माध्यमों द्वारा नशा व मांसाहार को प्रोत्साहन, होटल संस्कृति, गलत दोस्ती आदि ने पूरे संस्कार व नैतिक मूल्यों को ढक रखा है। चारों ओर व्यसन पीड़ित जन मानस दीख रहा है। ऐसी स्थिति में नैतिक / चारित्रिक मूल्यों को सुरक्षित बनाये रखना एक बड़ी चुनौती है। उसके लिए जीवन की प्रारंभिक आवश्यकता है दुर्व्यसनों को त्याग करने की निम्न व्यसनों को जीवन से दूर करें
१. जुआ सट्टा खेलने का त्याग । २. मांस भक्षण का त्याग ३. मदिरापान, धूमपान का त्याग। ३. पर स्त्रीगमन का त्याग । ५. शिकार खेलने का त्याग। ६. चोरी करने का त्याग । ७. वैश्यागमन का त्याग ।
जीवन में नैतिकता एवं सात्विकता के लिए व्यसन मुक्त होना पहली शर्त है । व्यसन मुक्ति ही संस्कार युक्त जीवन का पर्याय है। संस्कार जागरण एवं नये समाज के निर्माण के लिए व्यसन मुक्ति अनिवार्य है।
औरों के हित जो रोता है, औरों के हित जो हँसता
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ह उसका हर आँसू रामायण, प्रत्येक कर्म ही गीता है। सेवा का पथ संस्कार का एक पहलु व्यसन मुक्ति है तो दूसरा पहलू सेवा है सेवा को ईश्वर तक पहुंचने का सबसे सरल मार्ग माना गया है। दीन-दुखी, पीड़ितों, अनाथों, विकलांगों एवं अभावग्रस्त लोगों की सेवा का शुभ संकल्प ही संस्कार की सच्ची कसौटी है। विशेषकर अपंग, अनाथ की सेवा तो ईश्वर सेवा के समान है। हमारे आस-पास कितने ही दुःख अभाव व बीमारी से ग्रस्त हैं जिन्हें सेवा, सहारा व सहयोग की आवश्यकता होती है। विकलांगता से तात्पर्य है कि इंद्रियों की प्राप्ति तो है लेकिन इंद्रियों से जुड़े बल, प्राण या तो निष्क्रिय हो गये हैं या शिथिल हो गये हैं। मानव शरीर पाकर भी जो विकलांगता के शिकार है. अपंगता के अभिशाप से ग्रस्त हैं ऐसे लोगों को मानसिक संबल, शारीरिक सहयोग और आर्थिक सहायता मुहैया कराना ही मानवता की पूजा है। मानव सेवा वस्तुतः सेवा का श्रेष्ठतम पहलू है यहाँ पर स्वामी विवेकानंद का वक्तव्य उद्धृत कर रहा हूँ
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________________ “यदि अपने अंतस की बात सुनें तो सर्वप्रथम हमे अपने है। लगभग 80 वर्ष पूर्व संस्थापित श्री श्वेताम्बर हृदय रूपी कमरे के दरवाजे एवं खिड़िकियाँ खुली रखनी होगी। स्थानकवासी जैन सभा कोलकाता शिक्षा, सेवा और साधना हमारे घर व बस्ती के पास कितने अभावग्रस्त व दु:खी लोग समन्वित इस बीज ने आज विशाल वट का रूप ले लिया रहते हैं, उनकी यथासाध्य सेवा करनी होगी। जो पीड़ित हैं, उनके है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक के सभी लिए औषधि व पथ्य प्रबंध तथा शरीर के द्वारा उनकी सेवा आयामों को स्पर्श करते हुए श्री जैन सभा कोलकाता ने सुश्रूषा करनी होगी। जो अज्ञानी है, अंधकार में है उन्हें अपनी अर्थाभाव पीड़ित बंगाल के ग्रामीण विद्यार्थियों को नि:शुल्क वाणी एवं कर्म के द्वारा समझाना होगा। यदि हम इस प्रकार अपने पाठ्यपुस्तक, ड्रेस एवं अन्य सुविधाएँ प्रदान कर उन्हें दु:खी भाई-बहनों की सेवा करें तो मन को अवश्य ही शांति उच्चशिक्षित बनाते हुए प्रेरित एवं प्रोत्साहित किया जाता है। मिलेगी।" धन के अभाव में पढ़ाई से वंचित रहने वाले प्रतिभासंपन्न अभावग्रस्त, गरीब व विकलांग छात्र-छात्राओं के शिक्षा ग्रामीण विद्यार्थियों को खोजकर उनके पढ़ाई की समस्त व पुनर्वास की व्यवस्था कर उन्हें दूसरों के समकक्ष बनाकर व्यवस्था करना उनके शिक्षित होने में सहयोग करना किसी समाज में पहचान देना नि:संदेह प्रशंसनीय व अनुकरणीय है महायज्ञ से कम नहीं है। लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण है उन्हें संस्कारित करना। जीवन में चिकित्सा के क्षेत्र में भी शिवपुर हावड़ा में संचालित श्री सादगी, सरलता, दया, करुणा, अहिंसा व सत्य की झलक दिखे जैन हास्पिटल एवं रिचर्स सेंटर असहाय अभावग्रस्त मरीजों के वैसा उन्हें गढ़ना। व्यसनों से होने वाली हानियों का ज्ञान कराकर लिए वरदान साबित हो रहा है। न्यूनतम शुल्क में असाध्य रोगों सात्विक जीवन जीने की कला भी उन्हें सीखा दें तो निश्चित रूप के निदान, परीक्षण, परामर्श एवं चिकित्सा का महद् कार्य जनसे महात्मा गाँधी के स्वप्नों के भारत के निर्माण में उनकी जन के लिए प्रणम्य बन गया है। नेत्र शिविर, विकलांग शिविर, महत्वपूर्ण भूमिका होगी। कुछ बालक-बालिकाओं के नेत्र-ज्योति पोलियो एवं विभिन्न चिकित्सा शिविरों एवं ध्यान, योग एवं नहीं होती, कुछ मूक बधिर व विकलांग होते हैं किन्तु उनका प्राणायाम शिविरों के माध्यम से जन-जीवन को बेहतर स्वास्थ्य सरल हृदय व सहज भाव निश्चित रूप से सबको अभिभूत कर सुविधा उपलब्ध कराने में सभा सबसे आगे है। सभा के अमृत देता है। महोत्सव के उपलक्ष्य में प्रकाशित अभिनंदन ग्रंथ हेतु मेरी अशेष भारत के विभिन्न महानगरों एवं नगरों के साथ-साथ शुभकामनाएँ एवं बधाइयाँ स्वीकार करें। "सभा'' इसी तरह हमारे नगर की संस्था अभिलाषा (निःशक्तजनों का पुनर्वास व सेवा, सहयोग, सत्कार के पथ पर प्रशस्त होते हुए देश धर्म शिक्षण केन्द्र, मनोकामना (मंदबुद्धि बच्चों का शिक्षण केन्द्र) जाति के गौरव को बढ़ाये, यही शुभाभिलाषा है। आस्था (मूक बधिर बच्चे का शिक्षण व पुनर्वास केन्द्र) तथा इसी राजनांदगांव तरह सेवा के अन्य मन्दिरों में जाकर हमें एक ओर सेवा का व्रत लेना चाहिये दूसरी ओर प्राप्त इंद्रियों को सदैव परोपकार में लगाने का संकल्प लेना चाहिये। इन सेवा संस्थानों में जाकर इन विकलांग बच्चों को देखकर एक बात की शिक्षा अवश्य लेनी चाहिये कि हमें प्रबल पुण्योदय से मानव तन प्राप्त हुआ है और पांचों इंद्रियां परिपूर्ण मिली हैं किन्तु उसका दुरूपयोग किया या इन इंद्रियों का उपयोग केवल रस लोलुपता, निंदा विकथा, विषय वासना, अन्याय अत्याचार के लिए किया तो आगामी जीवन में हम इंद्रियों से हीन हो जाएंगे या शिथिल इंद्रियाँ पाएंगे। अत: कहीं हम इंद्रियों के पराधीन न हो जाएं, ऐसा चिंतन सतत करना चाहिये। ___ इसी परिपेक्ष्य में उल्लेखनीय है कि कोलकाता जैसे महानगर में अत्यंत कम शुल्क में संस्कार युक्त शिक्षा की व्यवस्था करना किसी चुनौती एवं सेवा-साधना से कम नहीं 0 अष्टदशी / 2400