Book Title: Sati Pratha aur jain Dharm Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 4
________________ का मत्यूपरपमा उस युग में सम्पूर्ण समाज में सती होने की परम्परा नहीं थी अपितु राजकुलों में भी केवल कुछ ही राजकुलों में ऐसी परम्परा थी। श्री अगरचन्दजी नाहटा ने भी पट्टावलियों के आधार पर यह उल्लेख किया है कि श्री जिनदत्त । सूरि (ई० सन् ११ शती) ने जब वे झंझुणु (राज.) में थे श्रीमाल जाति की एक बालविधवा को उपदेश देकर सती होने से रोका और उसे जैनसाध्वी की दीक्षा प्रदान की। इसी प्रकार १७वीं शती के सन्त आनन्दघन ने भी सती प्रथा की आलोचना करते हुए ऋषभदेव स्तवन में लिखा है कि परलोक में पति मिलेगा इस आकांक्षा से स्त्री अग्नि में जल जाती है, किन्तु यह मिलाप सम्भव नहीं होता है। अतः पति यू पर पत्नी द्वारा देहोत्सर्ग कर देना जैनधर्म में कभी भी अनुमोदित नहीं था। किन्तु दोनों रूपों से भिन्न अपने शील की रक्षा के लिये देहोत्सर्ग कर देना सतीत्व का एक ऐसा है। भी रूप है जिसे जैनाचार्यों ने मान्यता दी है। उनके अनुसार चाहे पति जीवित हो या उसका स्वर्गवास हो चुका हो यदि स्त्री इस स्थिति में आ गई है कि शीलरक्षा हेतु मृत्युवरण के अतिरिक्त उसके 28 सामने अन्य कोई विकल्प ही नहीं रह गया है, तो ऐसी स्थिति में अपने शील की रक्षा के निमित्त अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देना ही श्रेयस्कर है । जैनाचार्य मात्र ऐसी स्थिति में ही स्त्री के मत्यूवरण को नैतिक एवं धार्मिक मानते हैं। जैनाचार्यों की दृष्टि में पतिव्रता होना स्त्री के लिये अति आवश्यक है, किन्तु पतिव्रता होने का यह अर्थ नहीं है कि वह पति की मृत्यु होने पर स्वयं भी मुत्यु का वरण करे, उनकी दृष्टि में पतिव्रता होने का अर्थ है शीलवान या चारित्रवान होना और पति की मृत्यु होने पर पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य का पालन करना । पति की मृत्यु पर स्त्री का प्रथम कर्तव्य होता था कि वह संयम-100 पूर्ण जीवन जीते हुए अपनी सन्तान का पालन-पोषण करे-जैसा कि राजगृही की भद्रा सार्थवाही ने किया था अथवा सन्तान के योग्य हो जाने पर चारित्र (दीक्षा) ग्रहण कर साध्वी का जीवन व्यतीत ) करे । प्राचीन जैनाचार्यों ने सदैव ही पति की चिता पर जलने के स्थान पर श्रमणी बनने पर बल दिया। प्राचीन जैन कथा साहित्य में हमें अनेकों ऐसे कथानक मिलते हैं जहाँ स्त्रियाँ श्रमण जीवन अंगीकार कर लेती हैं । जहाँ महाभारत एवं अन्य हिन्दू पुराणों में कृष्ण की पत्नियों के सती होने के उल्लेख हैं। वहाँ जैन साहित्य में उनके साध्वी होने के उल्लेख हैं। हिन्दू परम्परा में सत्यभामा को छोड़कर कृष्ण की शेष पत्नियाँ सती हो जाती हैं, सत्यभामा वन में तपस्या के लिए चली जाती है, जबकि जैन परम्परा में कृष्ण को सभी पटरानियाँ श्रमणी बन जाती हैं । हिन्दू कथाओं में सीता पृथ्वी में समा जाती है, जैन कथा में लव-कुश के युवा हो जाने पर वह श्रमणी बन जाती है। ये कथाएँ चाहे ऐतिहासिक दृष्टि से काल्पनिक हों किन्तु इनसे जैनाचार्यों के दृष्टिकोण का पता तो चल ही जाता है कि वे सती प्रथा के | समर्थक नहीं थे। - - १ बीकानेर जैन लेख संग्रह-भूमिका पृ० ६५ की पाद टिप्पणी २ केई कंतकारण काष्ट भक्षण करै रे, मिलसु कत नै धाय । ए मेलो नवि कइयइ सम्भवै रे, मेलो ठाम न ठाय । -आनन्दघन चौबीसी-श्री ऋषभदेव स्तवन ३ आवश्यकचूणि भाग १ पृ० ३७२ ।। ४ (अ) महाभारत, मौसलपर्व ७।७३-७४, विष्णुपुराण ५।३८।२ ब) धर्मशास्त्र का इतिहास, काणे, भाग १, पृ०३४८ ५ अन्तकृतदशा के पंचम वर्ग में कृष्ण की ८ रानियों के तीर्थकर अरिष्टनेमि के समीप दीक्षित होने का उल्लेख है। ६ पउम बरियं १०३।१६५-१६६ षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियां ४७१ 60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ools Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jailibrary.orgPage Navigation
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