Book Title: Sati Pratha aur jain Dharm Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 7
________________ वर्ती हिन्दू परम्परा के प्रभाव के कारण विशेष रूप से राजस्थान की क्षत्रिय परम्परा के ओसवाल जैन दृष्टि से जैनधर्मानुयायियों द्वारा की जाती थी उसी प्रकार सती स्मारक भी पूजे जाते थे। राजस्थान में बीकानेर से लगभग 40 किलोमीटर दूर मोरखना सुराणी माता का मन्दिर है। इस मन्दिर की प्रतिष्ठा धर्मघोषगच्छीय पद्माणंदसूरि के पट्टधर नंदिवर्धनसूरि द्वारा हुई थी। ओसवाल जाति के सुराणा और दुग्गड़ गोत्रों में इसकी विशेष मान्यता है। सुराणी माता सुराणा परिवार की कन्या थी जो दूगड़ चार्यों ने लोकपरम्परा ही माना था, आध्यात्मिक धर्मसाधना नहीं। बीकानेर के दो स्मारक माता सतियों के हैं, इन्होंने पुत्रप्रेम में देहोत्सर्ग किया था, जो एक विशिष्ट बात है। अतः निष्कर्ष रूप में हम यही कह सकते हैं कि जैनधर्म में धार्मिक दृष्टि से सती प्रथा को कोई है प्रश्रय नहीं मिला क्योंकि वे सभी कारण जो सती प्रथा के प्रचलन में सहायक थे जैन-जीवन दृष्टि और संघ व्यवस्था के आधार पर और जैनधर्म में भिक्षुणी संघ की व्यवस्था से निरस्त हो जाते थे। %3 (शेष पृष्ठ 464 का) हैं। धर्म-तीर्थ-प्रेमी है / पाँच पद उनके सर्वोदयी होने के कारण है / जैसे लोग एक सत्य को अनेक प्रकार ना से कहते हैं, जैसे एक व्यक्ति अन्य जनों से अनेक प्रकार सम्बन्धों की स्थापना किये है वैसे साधु, उपाध्याय, आचार्य, अर्हन्त, सिद्ध सभी उत्तरोत्तर उत्कर्ष लिए हैं। इनके अनुयायी जो श्रद्धा-ज्ञान-क्रियावान श्रावक हैं, वे भी सर्वोदयी विचारधारा लिये हैं / जैसे णमोकार मन्त्र व्यक्ति विशेष के लिये नहीं है। वैसे ही आचार्य मानतुग का भक्तामर काव्य भी किसी विशेष एक व्यक्ति के लिये नहीं है / अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त, कर्मवाद, स्याद्वाद, अनीश्वरवाद, विश्वबन्धुत्ववाद भी किसी एक के लिये नहीं बल्कि अनेक के लिये है। जैनधर्म के सिद्धान्तों में सर्वत्र सर्वोदय की गूंज थी, है और रहेगी। आज इतना ही मुझे प्रस्तुत निबन्ध में लिखना है। HARY 474 षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा को परिलब्धियाँ 6-0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 606860 Jain Education International For Pilale & Personal use only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 5 6 7