Book Title: Sarva Jin Chautis Atisaya Vinti Author(s): Vinaysagar Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 3
________________ ६० के तीन प्रकार के गढ़ होते हैं । ८. चतुर्मुखाङ्गता समवसरण में तीर्थंकर के चार मुख होते हैं । चैत्यद्रुम - अशोक वृक्ष के नीचे भगवान विराजमान होते हैं । ९. १०. कण्टक १३. वात है । ११. द्रुमान १२. दुन्दुभिनाद - देव दुन्दुभि बजाते रहते हैं । 1 - भगवान विहार करते हैं तो कण्टक भी अधोमुखी होते हैं। विहार करने के समय वृक्ष अत्यन्त झुक जाते हैं । - अनुकूल सुख प्रदान करे ऐसी वायु का संचालन होता रहता पक्षी भी तीन प्रदक्षिणा करते हैं । १४. शकुन १५. गन्धाम्बुवर्त - सुगन्धित पानी की वर्षा होती है । १६. बहुवर्ण पुष्पवृष्टि - पंचवर्ण वाले फूलों की वृष्टि होती रहती है । बाल, दाढ़ी, मूँछ और नखों की वृद्धि नहीं १७. कच, श्मश्रु, नख-प्रवृद्ध होती है । १८. अमर्त्यनिकायकोटि देवता रहते हैं । १९. ऋतु अनुसन्धान ५२ - - तीर्थंकर की सेवा में कम से कम एक करोड़ सर्वदा सुखानुकूल षड्ऋतुएँ रहती हैं । प्रस्तुत कृति में रचनाकार ने जन्मजात केवलज्ञान और देवकृत अतिशयों का विभेद नहीं किया है । साथ ही क्रम भी कुछ इधर-उधर हैं। फिर भी अपभ्रंश भाषा की यह कृति सुन्दर और सुप्रशस्त है । वीनती इस प्रकार है : नाभिनरिंद मल्हार, मरुदेवि माडिउ उरि रयणु । अविगतरूपु अपार, सामी सेत्रुज सई धणिय ॥ १ ॥ सोवणवन्न सरीर, तिहुअण तारण वेडुलिय । मारि वीडारण वीर, सुणि सामी मुज्झ वीनतीय ॥२॥ जिण अतिसय चउतीस, जे सिद्धंतिहिं वण्णविय । ते समरउं निसि दीस, जिम उलग लागइ भलीय ॥३॥Page Navigation
1 2 3 4 5