Book Title: Sarva Jin Chautis Atisaya Vinti
Author(s): Vinaysagar
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 2
________________ सप्टेम्बर २०१० कर्मक्षय से उत्पन्न ११ अतिशय १. क्षेत्रस्थिति योजन - एक योजन प्रमाण में कोटाकोटि देव, मनुष्य और तिर्यंच रह सकते हैं। २. वाणी - अर्द्धमागधी भाषा में तीर्थंकर देशना देते हैं, वह भाषा देव, मनुष्य और तिर्यंचों में परिणमित हो जाती है और योजन प्रमाण श्रवण करने में आती है। ३. भामण्डल - सूर्य मण्डल से अधिक प्रभा करते हुए भामण्डल मस्तक के पीछे होता है। ४. रुजा - १२५ योजन तक बीमारियाँ नहीं होती है। ५. वैर - १२५ योजन तक सब जन्तुगण पारस्परिक वैर का त्याग करते ईति - १२५ योजन तक धान्यादि को उपद्रव करने वाले जीवों की उत्पत्ति नहीं होती । ७. मारी - १२५ योजन तक अकालमरण एवं औत्पातिक मरण नहीं होता ८. अतिवृष्टि - १२५ योजन तक अतिवृष्टि नहीं होती है । ९. अवृष्टि - १२५ योजन तक अवृष्टि नहीं होती है । १०. दुर्भिक्ष - १२५ योजन तक दुर्भिक्ष नहीं होता है । ११. भय - १२५ योजन परचक्र का भय नहीं होता है । देवकृत १९ अतिशय १. धर्मचक्र - आकाश में धर्मचक्र चलता है। २. चमर - भगवान के दोनों तरफ चामर वींझते रहते हैं । ३. सिंहासन - पादपीठिकासहित स्फटिक रत्न का सिंहासन होता है । ४. छत्रत्रय - तीर्थंकर के सिर पर तीन छत्र सुशोभित होते हैं। ५. रत्नमय ध्वज - रत्नमय ध्वजा आगे चलती है । ६. स्वर्ण कमल - विहार करते हुए स्वर्ण कमलों पर पैर रखते हैं । ७. वप्रत्रय - समवसरण की रचना होती है जिसमें रजत, स्वर्ण और रत्न

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