Book Title: Sarva Dharm Sambhav aur Syadwad Author(s): Tulsi Acharya Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 4
________________ ३.२४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय 0-0--0----0-0--0--0--0-0 समन्वय या समभाव की दिशा में हरिभद्र सूरि का दृष्टिकोण बहुत प्रशस्त है. उन्होंने लिखा है-"जिस प्रकार अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्म का सम्बन्ध जैन दृष्टि से घटित होता है, अमूर्त आकाश के साथ घट का सम्बन्ध होता है, अमूर्त ज्ञान पर मूर्त मदिरा का आघात होता है, वैसे ही सांख्य का प्रकृतिवाद घटित हो सकता है. कपिल मुनि दिव्यज्ञानी थे. वे भला असत्य कसे कहते ?" महात्मा बुद्ध ने क्षणिक-वाद का उपदेश आसक्ति मिटाने के लिए, विज्ञान-वाद का उपदेश बाह्य-पदार्थों से विमुक्त रखने के लिए दिया. वे भला विना प्रयोजन के ऐसी बात कैसे कहते. अद्वैत की देशना समभाव की सिद्धि के लिए की गई. इस प्रकार विरोधी प्रतिभासित होने वाली दृष्टियों में अविरोध ढूंढना और उनके प्रवर्तकों के प्रति आदरभाव प्रकट करना एक समदर्शी स्याद्वादी महातार्किक का ही काम है. आज जैन मनीषियों के लिए यह सद्यःप्राप्त कार्य है कि वे समभाव की साधना से समन्वित स्याद्वाद का प्रयोग कर जीवन के हर क्षेत्र में उठने वाले विवादों और संघर्षों का शमन करें. EHEAL १. शास्त्रवार्तासमुच्चय २३६-२३७ मूर्तस्याप्यात्मनो योगो, घटेन नभसो यथा । उपघातादिभावश्च, ज्ञानस्येव सुरादिना ।। एवं प्रकृतिवादोपि, विज्ञ यः सत्य एव हि । कपिलोक्तत्वतश्चैव, दिव्यो हि स महामुनिः ।। २. शास्त्रवार्तासमुच्चय ४६४-६६ । ३. शास्त्रबार्तासमुच्चय ५५०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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