Book Title: Sarva Dharm Sambhav aur Syadwad
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 3
________________ श्राचार्य तुलसी : सर्व-धर्म समभाव और स्यावाद : ३२३ धर्म या दर्शन की तालिका बहुत लम्बी है. उनके विचारों का भेद भी बहुत तीव्र है. उनका समन्वय करना कोई सरल काम नहीं है. पर स्याद्वाद का मूल समन्वय की गहराई में नहीं है. उसका मूल साधना की गहराई में है. वह वहां तक पहुंचती है जहां सत्य ही आधार है. प्रोफेसर कीथ का मंतव्य है-"दर्शन के प्रति जैनियों की देन, जहाँ तक वह मौलिक थी, इस प्रयत्न के रूप में है कि जो स्थिर वस्तु है और जो अस्थिर है उन दोनों के विरोध का समाधान कैसे किया जाए ? उनका समाधान इस रूप में है कि एक स्थिर सत्ता के रहते हुए भी वह बराबर परिवर्तनशील है. यही सिद्धान्त न्याय में प्रसिद्ध स्याद्वाद का रूप धारण कर लेता है. इस वाद को मूलतः इस रूप में कह सकते हैं कि एक अर्थ में किसी बात को कहा जा सकता है, जबकि दूसरे अर्थ में उसी का निषेध भी किया जा सकता है. परन्तु जैनदर्शन का कोई गम्भीर विकास नहीं हो सका. क्योंकि यह आवश्यक समझा गया कि जैनदर्शन जिस रूप में परम्परा से प्राप्त था, उसको वैसा ही मान लेना चाहिए और इस अवस्था में उसे बौद्धिक आधार पर खड़ा नहीं किया जा सकता.' प्रो० कीथ का निष्कर्ष पूर्णतः यथार्थ नहीं है तो पूर्णत: अयथार्थ भी नहीं है. जैन विद्वान् परम्परा-सेवी रहे हैं. परन्तु जैनदर्शन का गम्भीर विकास नहीं हुआ, यह सही नहीं है. इसमें कोई सन्देह नहीं कि जैन-परम्परा में तर्क- शास्त्र का उतना विकास नहीं हुआ जितना नैयायिक और बौद्ध धारा में हुआ. इसका कारण यही मान्यता थी कि सत्य की उपलब्धि तर्क के द्वारा नहीं, किन्तु साधना के द्वारा होती है. स्याद्वाद एक तर्क-व्यूह के रूप में गृहीत नहीं हुआ, किन्तु सत्य के एक द्वार के रूप में गृहीत हुआ. केवल स्याद्वाद को जानने वाला सब धर्मों पर समभाव नहीं रख सकता, किन्तु जो अहिंसा की साधना कर चुका, वही सब धर्मों पर समभाव रख सकता है. स्याद्वाद अहिंसा का ही एक प्रकार है. जो अहिंसक न हो और स्याद्वादी हो, यह उतना ही असम्भव है कि कोई व्यक्ति हिंसक हो और शुष्क तर्कवादी न हो. कौटिल्य ने तर्कविद्या को सब धर्मों का आधार कहा है.२ इसके विपरीत भर्तृहरि का मत है—“कुशल अनुमाता के द्वारा अनुमित अर्थ भी दूसरे प्रवर ताकिक द्वारा उलट दिया जाता है. इसी आशय के सन्दर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा था-"कोरे ज्ञान से निर्वाण नहीं होता, यदि श्रद्धा न हो. कोरी श्रद्धा से भी वह प्राप्त नहीं होता, यदि संयम न हो." जैन विद्वानों ने संयम और श्रद्धा से समन्वित ज्ञान का विकास किया, इसलिए उनका तर्कशास्त्र स्याद्वाद की परिधि से बाहर विकसित नहीं हो सकता था. तर्क से विचिकित्सा का अन्त नहीं होता. वही तर्क जब स्याद्वादस्पर्शी होता है, तो विचिकित्सा समाप्त हो जाती है. तर्कशास्त्र के सारे अंगों का जैन आचार्यों ने स्पर्श किया और हर दृष्टिकोण को उन्होंने मान्यता दी. उनके सामने असत्य कुछ भी नहीं था. असत्य था केवल एकान्तवाद और मिथ्या आग्रह. आग्रह न हो तो चार्वाक का दृष्टिकोण भी असत्य नहीं है, वह इन्द्रियगम्य सत्य है. वेदान्त का दृष्टिकोण भी असत्य कैसे है? वह अतीन्द्रिय सत्य है. इन्द्रियगम्य और अतीन्द्रिय दोनों का समन्वय पूर्ण सत्य है. १. संस्कृत साहित्य का इतिहास पृष्ठ ५८६ २. कौटलीय अर्थशास्त्र १२ आश्रयः सर्वधर्माणां, शश्वदान्वीक्षिकी मता । ३. वाक्यपदीय १।३४ यत्नेनानुमितोप्यर्थः कुशलैरनुमातृभिः । अभियुक्ततरैरन्यै रन्यथैवोपपाद्यते ।।। ४. प्रवचनसार चारित्राधिकार । ३७ ण हि आगमेण सिझदि सद्दहणं जदि ण अस्थि अत्थेसु । सद्दहमाणो अत्थे, असंजदो वा ण णिवादि ।। variadelibrary.org

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