Book Title: Sarthak hai Siddharshi ka Rachna Upkram Author(s): Garimashreeji Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 4
________________ TEST TERS % 3ER समाज घोर अशान्ति का घर बनकर रह जाता है। को अपने पुरुषार्थ का प्रयोग करना चाहिए । अपने आग्रह का मंडन और अन्यों के आग्रह का इस सन्देश से प्रेरित होकर मनुष्य अपनी खण्डन करने को प्रवृत्ति ही इस सामाजिक संकट लालसा पर अंकुश लगाता है, भी सुखों के का कारण होती है। ऐसी विकट समस्या का प्रति विकर्षित होकर मनुष्य आत्म-संतोषी हो जाता समाधान अनेकान्त दर्शन के माध्यम से जैन संकृति है। भौतिक समृद्धि की दौड़ में उसकी रुचि नहीं प्रस्तुत करती है । अनेकान्त हमें सिखाता है कि रह जाती और संतोष-सागर को शान्ति लहरियों ॥ अपने आग्रह को सत्य मानने के साथ-साथ अन्य- में वह सुखपूर्वक विहार करने लगता है। जनों ने आग्रह में 'भी' सत्य की उपस्थिति स्वीकार इसी प्रकार जैन संस्कृति मनुष्य को संयम और करनी चाहिये। तभी हम पूर्ण सत्य के निकट आत्मानशासन के पनीत मार्ग पर भी आरूढ़ करता रहेंगे। किसी एक दृष्टिकोण से हमारी धारणा है । अचौर्य और सत्य के सिद्धान्तों की प्रेरणा देने यदि सत्य है तो किन्हीं अन्य दृष्टिकोणों से, अन्य अपेक्षाओं से अन्य जनों की धारणा भी सत्य ही होगी वाली यह संस्कृति अपरिग्रह का मार्ग खोलती है । ICE मनुष्य को अपनी न्यूनतम आवश्यकता पूर्ति के और इन सभी के समन्वय से ही पूर्ण सत्य का कोई योग्य ही साधन-सुविधाएं प्राप्त करनी चाहिए। स्वरूप प्रकट हो सकता है। अन्यथा एकान्त रूप से इससे अधिक संग्रह करना इस संस्कृति के अधीन पृथक-पृथक दृष्टिकोण तो सत्य के एक-एक अंश ही र अनोति है । जो इस अनीति का अनुसरण करता है होंगे। यह समन्वयशीलता की प्रवत्ति जैन संस्कृति वह अन्य अनेक जनों को सुख-सुविधा प्राप्त करने की ऐसी देन है जिसमें पारस्परिक विरोध संघर्ष के अधिकार से वंचित कर देने का भारी पाप की स्थिति को समाप्त कर देने की अचूक शक्ति करता है। मनुष्य की यह दृष्प्रवृत्ति समाज के लिए है। अनेकान्त दृष्टि समाज को शान्ति, एकता और बडी घातक सिद्ध होती है। सूख-सुविधा के साधन सहिष्णता की स्थापना करने में सर्वथा सफल रह की लोगों के पास प्रचरता के साथ संकलित | सकती है। आज वैचारिक वैमनस्य के यग में इस हो जाते हैं और शेष सभी दीन-हीन और दुःखी (५ सिद्धान्त की भूमिका अत्यन्त उपयोगी एवं सार्थक रहते हैं। यह आर्थिक वैषम्य घोर सामाजिक सिद्ध हो सकती है । वर्ग-वर्ग, प्रदेश-प्रदेश और देश अन्याय है जो समाज में शान्ति और सौमनस्य का देश के दृष्टिकोणों का समन्वय सारे देश में और विनाश कर असन्तोष, घृणा, कलह, रोष, चिन्ता विश्व भर में शान्ति की स्थापना कर सकता है। और प्रतिशोध जैसे विकारों को अभिवधित करता IN समस्याओं के समाधान में यह औषधि अचूक सिद्ध है। मनष्य की इससे बढकर दानवता और क्या ।। होगी। होगी कि दूसरों को न्यूनतम सुखों से भी वंचित जैन संस्कृति अनासक्ति का मूल्यवान सन्देश रखकर वह अनन्त सुख-सागर में विहार करता भी देती है । यह मनुष्य को सिखाती है कि जाग- रहे । यह प्रवृत्ति स्वयं ऐसे अनीतिकारी व्यक्ति के तिक वैभव नश्वर, अवास्तविक और सुख की मात्र लिए भी कम धातक नहीं रहती। उसके मन में । प्रतीति कराने वाला हो होता है। ये तथाकथित अधिक से अधिक प्राप्त करते रहने की असमाना सुख अन्ततः दुःख के द्वार खोलकर स्वयं अदृश्य हो तृष्णा का साम्राज्य हो जाता है। जो कुछ उसे जाते हैं । अतः मनुष्य को सुख के इन छलावों से प्राप्त हो जाता है - चाहे वह बहुत-कुछ ही क्यों न । बचकर अनासक्त हो जाना चाहिये और वास्तविक हो-उसे उससे सन्तोष नहीं होता। लोभ उसके सख, अनन्त-सुख-मोक्ष को लक्ष्य मानना चाहिए। मन को शान्त नहीं रहने देता । घोर अशान्ति की इसी अनन्त-सुख को प्राप्त करने के लिए ही मनुष्य ज्वाला में उसका मानस दग्ध होता रहता है । AP ५६४ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट ( साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain E wron International Nerovate & Personal Use Only www.jaineitborgPage Navigation
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