Book Title: Sanskrut ke Do Aetihasik Champu
Author(s): Baldev Upadhyay
Publisher: Z_Agarchand_Nahta_Abhinandan_Granth_Part_2_012043.pdf

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Page 3
________________ कलिवर्ष अर्थात् १७५२ ईस्वी है। चरितनायकके उत्कर्षकालका वर्णनपरक यह काव्य उनकी मृत्युसे नौ साल पहिले निर्मित हआ था। आरम्भके स्तवकोंमें आनन्दरंगके जन्म, यौवन तथा विवाहका वर्णन बड़े विस्तारके साथ कविने किया है। इस चम्पूके षष्ठ-सप्तम स्तवकोंमें दक्षिण भारतमें १८वीं शतीमें होनेवाले का टिक युद्धोंका वर्णन तथा आनन्दरंगका उनमें महनीय योगदानका विवरण बड़े विस्तारसे किया गया है। इस वर्णनमें अनेक नवीन ऐतिहासिक तथ्योंका उद्घाटन है जिनकी जानकारी परिचित इतिहाससे नहीं होती। अंग्रेजों तथा फ्रान्सीसियों में होनेवाले तत्कालीन इतिहासके परिज्ञानके लिए यह चम्पू अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है। ऐतिहासिक वृत्तके वर्णनके निमित्त समुचित गद्य-पद्यका प्रयोग यहाँ बड़े विवेकके साथ किया गया है । न लम्बे-लम्बे समासोंकी भरमार है और न श्लेषादि द्वारा अप्रचलित शब्दोंका प्रयोग। भाषापर कविका अधिकार है । शैली प्रसादमयी है। नये-नये विषयोंका भी समावेश मनोरंजक ढंगसे किया गया है। आनन्दरंगने पाण्डिचेरीमें अपने लिए विशाल वैभवपूर्ण महल बनवाया था जिसके ऊपर एक बड़ी घड़ी लगा रखी थी। उस युगके लिए नितान्त अभिनव इस वस्तुका वर्णन कविके शब्दोंमें देखिये। कितना विशद तथा आकर्षक है निर्यत्नं यत्र घण्टा ध्वनति च भवने बोधयन्ती मुहुर्तान् दैवज्ञान् हर्षयन्ती समयमविरतं ज्ञातुकामानशेषान् । प्राप्तुं श्रीरङ्गभूपात् फलमनुदिनमागच्छतां भूसुराणां तत् सिद्धि सूचयन्ती प्रकटयतितरामद्र तां रागभङ्गीम् ॥ _ (अनंगरंग चम्पू ४।२२) फ्रान्सीसी शासकके लिए कविने 'हणराज' शब्दका प्रयोग किया है । इस युगमें विधर्मी विदेशी व्यापारियों के लिए 'हण' शब्दका प्रयोग होने लगा था। वेंकटाध्वरीने भी अपने विश्वगुणादर्श चम्पमें इसी शब्दका प्रयोग अंग्रेजोंके लिए किया है । शरद्के वर्णनमें यह उपमा बड़ी सामयिक हैआसीन्निर्मलमम्बरं मन इव श्रीरंगनेतुर्महत् तत्सम्पत्तिरिवाभिवृद्धिमगमत् क्षेत्रेषु शस्यावलिः । हंसास्तत्र तदाश्रिता इव जना हृष्टा बभूवुस्तरां । भ्रष्टश्रीरदसीयशत्रुततिवत् जाता मयूरावलिः ॥ -५।५८ इस पद्यमें ऋतुका वर्णन आनन्दरंगके प्रसंगीय वस्तुओंके साथ बड़ी सुन्दरतासे सम्पन्न है । युद्धवर्णनमें बड़ा जोर-शोर है और नवीन तथ्योंका आकलन भी है। निजामपुत्रके युद्धका यह दृश्य देखिये जिसमें अपनी जान बचाने में व्यग्र योद्धाओंके द्वारा परित्यक्त मूल्यवान् आभूषणोंको चाण्डाल (जनंगम) लोग बटोर रहे थे और हूण लोग (अंग्रेज लोग) रत्नकी पोटलियोंको लूट रहे थे प्राणत्राणपरायणारिसुभटत्यक्तोरुमूल्यस्फुरद् भूषान्वेषिजनंगमौघनिबिडक्रोड निरस्तात्मनि । १. द्रष्टव्य भूमिका भाग पृ० ४८-७८ जिसमें सम्पादकने समग्र घटनाचक्रका विशद वर्णन प्रस्तुत किया है। १४४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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