Book Title: Sangit ka Manav Jivan par Manovaigyanik Prabhav Author(s): Madan Varma Publisher: Z_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf View full book textPage 1
________________ "संगीत का मानव जीवन पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव" -मदन वर्मा, संगीत सौंदर्यानुभूति की नादात्मक अभिव्यक्ति हैं। यह मनुष्य समाज की कलात्मक उपलब्धि है और मानव भावना की उत्कृष्ट कृति हैं। आत्मिक उल्लास और आनन्दानुभूतियों को व्यक्त करने का संगीत से बढ़कर अन्य कोई इतना सशक्त माध्य नहीं हैं। संगीत में दो शब्दों का योग है। "सग और गीत। सम का अर्थ है सहित, अर्थात् वादन और नृत्य के साथ गायन। एक दूसरा अर्थ भी हैं 'सम' से तात्पर्य है 'सम्यक् । सम्यक् का अर्थ अच्छा अर्थात् अच्छा गाना। और अच्छा गाना वादन तथा नृत्य के सहयोग से ही बनता है। अत: संगीत में गायन वादन तथा नृत्य तीनों कलाओं का समन्वय रूप है। इन अंगों को अलग-अलग प्रस्तुत करना संगीत की सजीवता को नष्ट करना है। तीनों अंगो का समन्वित प्रदर्शन ही संगीत है। प्राचीन शास्त्रकारों ने 'नाद ब्रह्म' कहकर संगीत को ईश्वर का रुप बताया हैं गायन वादन और नृत्य के संमिलित स्वरुप संगीत से परम आनन्द की प्राप्ति होती है। व्यक्ति समस्त बाह्य परिस्थितियों से कटकर आत्मकेन्द्रित हो जाता है। यह आत्म केन्द्रिय होना समाधि की अवस्था है। इस अवस्था में व्यक्ति की समस्त सोचने विचारने की शक्तियां नाद रूप में लग जाती है और व्यक्ति ईश्वर से एकाकार हो जाता है। इसलिए संगीत को ईश्वर का स्वरूप माना संगीत का सम्बन्ध ध्वनि, स्वर, तथा भाव से सम्बन्ध है। जीवन में इनकी व्यापकता है। अत: संगीत का क्षेत्र भी बहुत व्यापक है। संगीत सृष्टि के कण-कण में विद्यमान है। हवा की सर सराहट, नदी का कल बहता जल, मेघ की गंभीर गर्जना और पानी की बूंदो की छम-छम प्रत्येक संगीत से पूरित है। यही नहीं जब प्रकृति बिल्कुल शांत होती है, कहीं कोई आहट, कोई स्पन्दन, कोई सरसराहट नहीं हो तब वातावरण में सन्नाटा ही प्रतिध्वनि होता हैं वह संगीत की ही प्रतीती है। संगीत असीमित, अछोर तथा अशेष हैं। विद्वानों ने संगीत को ईश्वर प्राप्ति का सबसे बड़ा साधन माना है और अपनी खोज द्वारा यह प्रमाणित कर दिया है कि संसार के अन्य समी रास्तों में उलझाव हैं, भटकन हैं। व्यक्ति उन पर चलकर कहीं न कहीं प्रपंच में पड़ सकता है, अपने लक्ष्य से भटक सकता है क्योंकी अन्य साधन जैसे तप, दान, यज्ञ, कर्म और योग इन सब में चित्त का विचलन संभव हैं। तपस्या का आरंभही कष्ट से होता हैं। दान और यज्ञ के लिए प्रथम स्वयं का साधन सम्पन्न होना आवश्यक हैं। कर्म में फल की भावना पहले जाग्रत हो जाती है। योग का बहुत अस्पष्ट और जटिल है। फलत: व्यक्ति बहुत जल्दी अपने निर्णय से डिग जाता है। किन्तु संगीत ही एक मात्र माध्यम है जो समस्त विचारों से मुक्त रखते हुए मोक्ष के मार्ग तक पहुँचता है। संगीत योग कि विशेषता यह है कि इसके प्रारंभ और अंत में सुख ही मिलता है। इसलिए मोक्ष का मार्ग कष्ट रहित और सहन हो जाता है। योग और ज्ञान के आचार्य श्री याज्ञवल्क्य कहते हैं कि "वीणा वादन तत्वज्ञ: श्रुति जाति विशारदः।" तालज्ञश्चाप्रयासेन, मोक्ष मार्ग प्रयच्छति॥" "शिक्षा का, मनुष्य का सम्यक विकास में बहुत बड़ा योगदान हैं (संगीत शास्त्र के अनुसार) मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को व्यक्त करने को शिक्षा ही कहा गया है। मनुष्य के विकास में विभिन्न विषयों की मान्यता है। किन्तु हृदय पक्ष का विकास ललित कलाओं से संभव हैं। देह की थकावट का तो उपचार है किंतु मन की थकावट का उपचार नहीं। ३०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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