Book Title: Samyaggyan Ek Samikshatmaka Vishleshan Author(s): Rameshmuni Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf View full book textPage 4
________________ २८६ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ स्पर्शनेन्द्रिय से-अवग्रह ईहा अवाय धारणा रसनेन्द्रिय से-अवग्रह ईहा अवाय धारणा घ्राणेन्द्रिय से-अवग्रह ईहा अवाय धारणा चक्षुइन्द्रिय से-अवग्रह ईहा अवाय धारणा श्रोत्रेन्द्रिय से-अवग्रह ईहा अवाय धारणा मन से-अवग्रह ईहा अवाय धारणा मतिज्ञान के अन्तर्गत अर्थावग्रह के २४ भेद हुए । इनमें स्पर्शनेन्द्रिय व्यंजनावग्रह, रसना व्यंजनावग्रह, घ्राण व्यंजनावग्रह और श्रोत्रेन्द्रिय व्यजनावग्रह, इस प्रकार व्यंजनावग्रह के चार भेद और मिलाने से मतिज्ञान के २८ मेद हुए । उक्त मेद बारह प्रकार से पृथक-पृथक निम्न-न्यूनाधिक विषयों को ग्रहण करते हैं। वहु, अल्प वहुविध, अल्पविध क्षिप्र, अक्षिप्र अनिश्रीत, निश्रीत अनुक्त, उक्त ध्रुव, अध्रुव । उपयुक्त बारह और अट्ठाईस मेदों को परस्पर गुणा करने से ३३६ भेद मतिज्ञान के हुए और बुद्धिजन्य चार भेद-औत्पातिकी-बुद्धि, वैनयिकोबुद्धि, कार्मिकी बुद्धि, परिणामिकी बुद्धि । इस प्रकार मतिज्ञान के कुल तीन सौ चालीस भेद हुए। जातिस्मरणज्ञान मतिज्ञान के अन्तर्गत ही माना गया है। इसलिए जातिस्मरण ज्ञान का पृथक अस्तित्व नहीं है। महोपकारी श्रुतज्ञान श्रतज्ञान की महत्ता सर्वविदित है। श्रुतज्ञान की आराधना करके अतीत काल में अनन्त जीवात्माएँ भवसागर से पार हुई है। वर्तमान काल में असंख्य प्राणी श्रुतज्ञान से लाभान्वित हो रहे हैं और भविष्य काल में इस ज्ञान के निर्देशानुसार अनन्त आत्माएं सिद्ध स्वरूप में स्थिर बनेंगी। क्योंकि-मेधावी वर्ग सूनकर ही कल्याण मार्ग को और अकल्याण मार्ग को जानता है। अर्थात हेय और उपादेय तत्त्वों को श्रवण कर ही निज जीवनोपयोगी ग्राह्य तत्त्व का निर्णय करता है।४ जिसमें शास्त्रादि की और अन्य शब्दों की भी प्रवृत्ति हो, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। जहाँ मतिज्ञान है, वहाँ श्रुतज्ञान और जहाँ श्रुतज्ञान है वहाँ मतिज्ञान का सद्भाव रहा हुआ है। न कभी मतिज्ञान अकेला रहा और न कभी श्रुतज्ञान अकेला रहा। दोनों ज्ञान सदैव साथ रहते हैं। १ से किं तं वंजणुग्गहे ? वजणुग्गहे चउविहं पण्णत्ते तं जहा- सोइंदिय वजणुग्गहे घाणिदिय वजणुग्गहे जिभिदियं वं फांसिदिय वंजणुग्गहे....... -नंदीसूत्र बह बहविधक्षिप्रानि श्रितासंदिग्धध्रुवाणामसेतराणाम् । - तत्त्वार्थसूत्र १११६ उप्पत्तिया वेणइया कम्मया परिणामिया । बुद्धि चउविहा बुत्ता पंचमा नोवलन्भइ॥ -नन्वीसूत्र सोच्चा जाणइ कल्लाणं सोच्चा जाणइ पावगं । उभयपि जाणइ सोच्चा, जं सेयं तं समायरे ॥ -वश०४।११ ५ श्रुतानुसारि च श्रुतज्ञानम् । -जैनतर्कभाषा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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