Book Title: Samyaggyan Ek Samikshatmaka Vishleshan Author(s): Rameshmuni Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf View full book textPage 7
________________ सम्यकज्ञान : एक समीक्षात्मक विश्लेषण 286 केवलज्ञान की उपलब्धि सर्वोत्तम एवं सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है। आत्म-साधना की परिपक्व अवस्था की चरमोत्कृष्ट फलश्रुति कहा जा सकता है। दुष्प्राप्य इस निधि की उपलब्धि सहज में प्रत्येक साधक को नहीं हुआ करती है। क्योंकि सशक्त साधना और साधनों की उसमें परमावश्यकता है। उनके अभाव में साध्य सिद्ध नहीं होता है। भले वे साधक कहीं पर रहते हों, किसी वेश देश में हों, अगर उन्होंने घातिकर्मों पर विजय प्राप्त कर ली तो निश्चयमेव उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है। केवलज्ञान के पात्र सीमित अवश्य हैं पर केवलज्ञान का ज्ञेय विषय समस्त लोकालोक अनन्त द्रव्यों को और उनकी कालिक सब पर्यायों को युगपत जानना है। यह ज्ञान मनुष्य, सन्नी, कर्मभूमिज, संख्यात वर्ष की आयु वाले, पर्याप्त, समदृष्टि, संयत, अप्रमादी, अवेदी, अकषायी, चार घातिकर्म नाशक, १३वें गुणस्थानवर्ती, वीतराग मुनियों को प्राप्त होता है / केवलज्ञान में सर्व द्रव्य, सर्व क्षेत्र, सर्व काल और सर्व भाव, हस्तामलकवत् प्रकाशित होते हैं। "केवलमेगं सुखं वा, सकलमसाहारणं अणंतं च" यह ज्ञान शुद्ध, असाधारण, अनन्त एवं अप्रतिपाती है। यह एक बार उत्पन्न होकर फिर कभी नष्ट नहीं होता है। केवलज्ञान की उत्पत्ति के पश्चात् जघन्य अन्तमुहर्त में और उत्कृष्ट 8 वर्ष कम करोड़ पूर्व में मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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