Book Title: Samyag Darshan Gyancharitratrani Mokshmarg Author(s): Rammurti Tripathi Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf View full book textPage 4
________________ विषयक श्रद्धा नैसर्गिक भी है और नैमित्तिक भी। एक अन्य दृष्टिसे सम्यक दर्शनके तीन भेद भी हैं। १. क्षायिक २. औपशामिक ३. क्षायोपशामिक । सम्यज्ञान ज्ञान पाँच प्रकारके है, मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय तथा केवल । मत्यावरण कर्मके क्षयोपशम होनेपर इन्द्रिय और मनकी सहायतासे अर्थोंका मनन मति है। श्रुतावरण कर्मके क्षयोपशम होनेपर जो सुना जाय, वह श्रत है। ये दोनों ही ज्ञान परोक्ष माने जाते हैं। परोक्ष इसलिये कि इन ज्ञानोंमें ज्ञानस्वभाव आत्माको स्वेतर इन्द्रिय तथा मनकी अपेक्षा होती है। अतः ये दोनों पराधीन होनेसे परोक्ष हैं। अवधि, मनःपर्यय तथा केवल-ये तीनों प्रत्यक्ष हैं। प्रत्यक्षके भी दो भेद है-देश प्रत्यक्ष तथा सर्व प्रत्यक्ष । देश प्रत्यक्षके भी दो भेद है-अवधि और मनःपर्यय । सर्वप्रत्यक्ष एक ही है-केवल ज्ञान । व्यवहितका प्रत्यक्ष अवधि ज्ञान, दूसरोंके मनोगतका ज्ञान मनःपर्यय तथा सर्वावरणक्षय होनेपर केवल ज्ञान होता है। अनन्त धर्मात्मक वस्तुका पूर्ण स्वरूप प्रमाणसे अर्थात् सम्यक ज्ञानसे आता है और उसके एक-एक धर्मका ज्ञान कराने वाले ज्ञानांशको नय कहते हैं। वह नय द्रव्याथिक और पर्यायाथिकके भेदसे दो और फिर अनेक प्रकारका है। वस्तुतः प्रत्येक वस्तुमें अनन्त धर्म होते हैं। उन सब धर्मोंसे संयुक्त अखण्ड वस्तुको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको प्रमाण कहते हैं और उसके एक धर्मको जानने वाले ज्ञानको नय कहते हैं। इसी ज्ञानकी प्राप्ति करनेके लिये योगी जन तप करते हैं। ज्ञानपूर्वक आचरण करनेवालेको किसी भी कालमें कर्मबन्ध नहीं होता। निष्कर्ष यह है कि प्रमाण तथा नयों द्वारा जीवादितत्त्वोंका संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय रहित यथार्थबोध सम्यकज्ञान कहलाता है। सम्यक्चारित्र दर्शन तथा ज्ञानकी भाँति चारित्र भी भाव, करण तथा कर्म व्युत्पत्तिक शब्द है। सामान्यतः इसे कर्मव्युत्पत्तिक समझा जाता है चर्यत इति चारित्रम् । जो चर्यमाण हो, वही चरित्र है। आचरण ही चरित्र है। संस्मरणका मूलकारण है राग-द्वेष । इसकी निवृत्ति के लिये कृतसंकल्प विवेकी पुरुषका शारीरिक और वाचिक वाह्य क्रियायोंसे और अभ्यन्तर मानस क्रियासे विरक्त होकर स्वरूप स्थिति प्राप्त । सम्यक्चारित्र है। सिद्धावस्था तक पहुँचनेके लिए साधकको अपनी नैतिक उन्नति के अनुसार क्रमशः आगे बढ़ना पड़ता है । मोक्ष मार्गके इन सोपानोंको गुणस्थान कहते हैं। किसी न किसी रूपमें इन स्थानों या सोपानोंका उल्लेख सभी साधन धाराओंमें है। इन चौदह गुणस्थान या सोपानोंमें मिथ्यात्वसे सिद्धि तकका मार्ग है। ये चौदह सोपान हैं-मिथ्यात्व→ ग्रन्थिभेद-मिश्र→अविरत→सम्यक्दृष्टि (संशयनाश होनेपर सम्यक् श्रद्वाका उदय) →देशविरति, प्रमत्त → अप्रमत्त → अपूर्वकरण → अनिवृत्तिकरण → सूक्ष्मसाम्पराय → उपशान्तमोह→ क्षीणमोह (मोक्षावरणकर्मोके नाशसे उत्पन्न दशायें)-संप्रोग केवल (इस सोपानमें साधक अनन्तज्ञान तथा अनन्त सुखसे देदीप्यमान हो उठता है)-अयोग केवल (अन्तिमदशा)। यहाँ अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्य, अनन्तश्रद्वा तथा अनन्तशान्ति उपलब्ध होती है। तत्वतः चारित्र आत्माका स्वरूप ही है, अतः उसकी अभिव्यक्ति दर्शन और ज्ञान गत सम्यक्वत्वसे ही होती है। इस चरित्र स्वभावकी अभिव्यक्तिके लिए अणव्रत तथा महाव्रत विहित है-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह । राग-द्वेषके कारण पाँच महापाप होते हैं-हिंसा, असत्य, चौर्य, कुशील तथा परिग्रह । इनसे विरति साध्य है। इसी विरतिसे होनेवाला माध्यस्थभाव ही सम्यकचरित्र है। यह दो -१२० - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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