Book Title: Samyag Darshan Gyancharitratrani Mokshmarg
Author(s): Rammurti Tripathi
Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf

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Page 2
________________ कहाँ ? इतना ही नहीं, वहाँ स्वभावका सुख, प्रतिबन्धकके निराकृत होनेसे, व्यक्त हो जाता है। अतः वस्तुतः मोक्ष अभावात्मक नहों, स्व-भावात्मक है। इसीलिए यह स्वाभाविक है, अजित नहीं। एक बात और समझनी चाहिये। यह मोक्ष या स्वभाव सुख नया पैदा नहीं होता जिससे उसमें नाश सम्भावित हो। सूर्य पर बादल आ जाय तो अन्धकार और हट जाय, तो प्रकाश पर बादल हटनेका अर्थ यह नहीं कि उस सूर्यमें नया प्रकाश उत्पन्न हो गया है जो पहले अविद्यमान था । बादलकी भाँति एक बार यदि कर्मा गया, तो यह वादलोपम कर्मावरण फिर आनेवाला नहीं है। साथ ही, स्वभावका सहज सुख व्यक्त हो गया, तो वह फिर जानेवाला नहीं है। साथ ही, तत्वतः वह कहीं और से नया आया हआ भी नहीं है, स्व-भाव सुख है। सुखात्मा स्वभावका उन्मेष है। यही मोक्ष है। इसके अस्तित्वमें तर्कसे अनुभव अधिक प्रमाण है। मोक्षमार्ग प्रतिपादक सूत्रकी व्याख्या : केवल ज्ञानमार्गसे मुक्ति नहीं ___ इसी मोक्षका मार्ग है-सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान तथा सम्यक्चरित्र । पूर्व पूर्वसे उत्तरोत्तरका उन्मेष सम्भव है । पर उत्तरोत्तरसे पूर्व पूर्वका अस्तित्व निश्चय है। सूत्रकारने इन तीनोंको सम्मिलित रूपमें मोक्षमार्ग कहा है। सूत्रमें दो पद हैं-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि तथा मोक्षमार्ग, दोनों ही सामासिक पद हैं । दर्शनज्ञानचारित्राणि द्वन्द्व समास है, अतः समासघटक प्रत्येक पद प्रधान है। फलतः द्वन्दके आदिमें विद्यमान सम्यक शब्दसे सभीका स्वतन्त्र सम्बन्ध है। इस प्रकार सूत्रके एक अंशका अर्थ है-स सम्यकज्ञान तथा सम्यकचारित्र । मोक्षमार्गका अर्थ स्पट है---मोक्षका मार्ग । अभिप्राय यह कि ये तीनों सम्मिलित रूपमें मोक्ष मार्ग है। इस दृष्टिसे तीनों एक है। इसीलिए सूत्रमें विशेषणका बहुवचनान्त होना और विशेष्यका एक वचनान्त होना 'वेदाः प्रमाणम्'की भाँति साभिप्राय और सार्थक है। निष्कर्ष यह है कि मोक्षमार्गके प्रति तीनोंकी सम्मिलित कारणता है । कुछ लोगोंकी धारणा है कि अनुभव और शास्त्रीय प्रमाण यह बताते हैं कि बंध मात्र अज्ञानसे होता है और मोक्ष मात्र ज्ञानसे, अतः तीनोंकी सम्मिलित कारणता अविचारित-रमणीय है, विचारित सुस्थ नहीं । निःसन्देह ज्ञानसे अज्ञान निवृत होता है और अज्ञाननिवृत्ति से बन्ध दूर होता है । सांख्यदर्शन प्रकृति और पुरुष विषयक विपर्यय ज्ञानसे बन्ध तथा अन्यथाख्यातिसे मोक्ष मानता ही है। न्याय दर्शन भी तत्त्वज्ञानसे मिथ्या ज्ञानकी निवृत्ति होनेपर मोक्ष कहता है। मिष्थ्याज्ञानसे दोष, दोषसे प्रवृत्ति, प्रवृत्तिसे जन्म और जन्मसे दुखकी सन्तति प्रवहमान होती है। इसी सर्वमूल मिथ्याज्ञानकी निवृत्ति ज्ञानसे होती है। वैशिषक भी मानते हैं कि इच्छा और द्वेषसे धर्माधर्म और उनसे सुखदुखात्मक संसार होता है । यहाँ छहों पदार्थोंका तत्त्वज्ञान होते ही मिथ्याज्ञान निवृत्त होता है। बौद्धोंका द्वादशांग प्रतीत्य समुत्पादवाद प्रसिद्ध है ही और इसका मूल अविद्या है, अन्यथा ज्ञान । तत्वज्ञानसे इसकी निवृत्ति होनेपर समस्त दुखचक्र समाप्त हो जाता है । इसी प्रकार जैन सिद्धान्त भी है। यहाँ मिथ्यादर्शन, अविरति आदि बन्ध हेतु हैं । इस प्रकार जब सर्वत्र ज्ञानमात्रको ही मोक्षका व्यंजक माना गया है, तब यहाँ भी केवलज्ञानको हेतु मानना चाहिए । ज्ञानके साथ दर्शन और चरित्रको नहीं। यह कहना कि समकालोत्पादके कारण दर्शन, ज्ञान और चरित्र भिन्न हैं ही नहीं, अमान्य है । अनुभव तथा प्रमाण और परिणाम भेदसे सिद्धभेदका निराकरण समकालोत्पाद मात्र हेतुसे संभव नहीं है । समकालोत्पादकता तो दो सीगोंमें भी है, क्या इसीलिए वे एक हो जायेंगे। अभिप्राय यह है कि दर्शन, ज्ञान तथा चरित्र तीन हैं, एक नहीं। अतः उक्त रीतिसे इन तीनोंकी सम्मिलित मोक्षमार्गता माननेकी जगह केवलज्ञानको ही मोक्ष मार्ग मानना चाहिए । वेदान्त भी कहता है 'ऋते ज्ञानान्न मक्तिः' । -११८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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