Book Title: Samyag Achar ki Adharshila Samyaktva
Author(s): Surekhashreeji
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf

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Page 1
________________ सम्यक् आचार की आधारशिला सम्यक्त्व : आचारांग के परिप्रेक्ष्य में -साध्वी सुरेखा श्री जी (प० पू० प्र० विचक्षण श्री जी म० सा० शिष्या–विदुषी लेखिका) भारतीय दर्शन की पृष्ठभूमि के आस्तिक दर्शनों जैनदर्शन हर वस्तु की मीसांसा करता है। उपर्युक्त में जैनदर्शन जीवात्मा को ही परमात्म स्वरूप होना प्रथा व्यावहारिक हो सकती है, पर निश्चय में स्वीकार करता है। आत्मा का अभ्युदय आत्माभि- सम्यक्त्व का मूल्यांकन अनूठे ढंग से किया गया है। मुखता की ओर अग्रसर हुए बिना नहीं हो सकता। ___ "सम्यक् आचार की आधारशिला सम्यक्त्व" पराभिनिवेश से मुक्त है जिसकी आत्मा, वही पर किस प्रकार हो सकता है ? उससे पूर्व यह जान लें मात्म-पद की ओर कदम बढ़ा सकता है। जब तक कि सम्यक्त्व है क्या ? सम्यक्त्व का अर्थ हो गया निश्चित रूप से जीवात्मा स्व-पर भेदविज्ञानी नहीं है, श्रद्धान ! पदार्थों पर श्रद्धान ! वस्तु तत्व पर बन जाता, तब तक मोक्षाभिमुख नहीं हो पाता। श्रद्धान ! अन्य दर्शनों ने जिसे श्रद्धा कहा उसी को यह स्व-पर भेदविज्ञान अर्थात् जीव और जगत्, ' जैनों ने पारिभाषिक शब्द दिया है सम्यक्त्व अर्थात् जड़ और चेतन का पृथक-पृथक ज्ञान और तदनुसार सम्यग्दर्शन । वाचकवर्य उमास्वाति ने इसे परिभाआचरण हो तब हो पाता है। यही बीजारोपण षित किया तत्वार्थ सूत्र में “तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्"सम्यक्त्व" शब्द से अभिप्रेत है। संसार भ्रमण की दर्शनम्"। यहाँ तत्वों पर श्रद्धा ही सम्यक्त्व है, परिधि को सम्यक्त्व सीमित कर देता है। यह निर्देश किया गया है। व्युत्पत्तिपरक अर्थ करें हालांकि लौकिक व्यवहार में सम्यक्त्व/समकित तो सम् पूर्वक अंच् धातु से क्विप् प्रत्यय करने पर यह शब्द जैनधर्म के प्रायः सभी धर्म-स्थानों में श्रवण सम्यक् शब्द निष्पन्न होता है । “समंचित इति गोचर होता है। कभी-कभी तो यह भी सुनाई देता सम्यक्" इस प्रकार भी व्युत्पत्ति होती है। प्रकृत है कि मुझे अमुक गुरु की समकित है। मैंने उन गुरु में इसका अर्थ प्रशंसा है । उमास्वाति ने अपने भाष्य से समकित ली है । तो क्या सम्यक्त्व अथवा समकित में सम्यग शब्द का अर्थ करते हुए कहा--"सम्यलेने-देने की वस्तु है जो कि गुरु अपने अनुयायियों गिति प्रशंसाओं निपातः, समंचतेर्वा भावः' अर्थात् को प्रदान करते हैं। इस प्रथा के रूप में ही निपात से सम्यक् यह प्रशंसार्थक शब्द है तथा सम्सम्यक्त्व है या अनेकान्तवादी जैनदर्शन व जैनागम पूर्वक अंच धातु यह भाव से है। राजवार्तिककार अन्य अर्थ को द्योतित करता है। व्यवहार और अकलंक देव के अनुसार प्रशंसार्थक (निपात) के निश्चय इन दो पहलुओं को दृष्टिकोण में रखकर साथ यह प्रशस्त रूप, गति, जाति, कुल, आयु, खण्ड ४/8 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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