Book Title: Samyag Achar ki Adharshila Samyaktva
Author(s): Surekhashreeji
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक् आचार की आधारशिला सम्यक्त्व : आचारांग के परिप्रेक्ष्य में -साध्वी सुरेखा श्री जी (प० पू० प्र० विचक्षण श्री जी म० सा० शिष्या–विदुषी लेखिका) भारतीय दर्शन की पृष्ठभूमि के आस्तिक दर्शनों जैनदर्शन हर वस्तु की मीसांसा करता है। उपर्युक्त में जैनदर्शन जीवात्मा को ही परमात्म स्वरूप होना प्रथा व्यावहारिक हो सकती है, पर निश्चय में स्वीकार करता है। आत्मा का अभ्युदय आत्माभि- सम्यक्त्व का मूल्यांकन अनूठे ढंग से किया गया है। मुखता की ओर अग्रसर हुए बिना नहीं हो सकता। ___ "सम्यक् आचार की आधारशिला सम्यक्त्व" पराभिनिवेश से मुक्त है जिसकी आत्मा, वही पर किस प्रकार हो सकता है ? उससे पूर्व यह जान लें मात्म-पद की ओर कदम बढ़ा सकता है। जब तक कि सम्यक्त्व है क्या ? सम्यक्त्व का अर्थ हो गया निश्चित रूप से जीवात्मा स्व-पर भेदविज्ञानी नहीं है, श्रद्धान ! पदार्थों पर श्रद्धान ! वस्तु तत्व पर बन जाता, तब तक मोक्षाभिमुख नहीं हो पाता। श्रद्धान ! अन्य दर्शनों ने जिसे श्रद्धा कहा उसी को यह स्व-पर भेदविज्ञान अर्थात् जीव और जगत्, ' जैनों ने पारिभाषिक शब्द दिया है सम्यक्त्व अर्थात् जड़ और चेतन का पृथक-पृथक ज्ञान और तदनुसार सम्यग्दर्शन । वाचकवर्य उमास्वाति ने इसे परिभाआचरण हो तब हो पाता है। यही बीजारोपण षित किया तत्वार्थ सूत्र में “तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्"सम्यक्त्व" शब्द से अभिप्रेत है। संसार भ्रमण की दर्शनम्"। यहाँ तत्वों पर श्रद्धा ही सम्यक्त्व है, परिधि को सम्यक्त्व सीमित कर देता है। यह निर्देश किया गया है। व्युत्पत्तिपरक अर्थ करें हालांकि लौकिक व्यवहार में सम्यक्त्व/समकित तो सम् पूर्वक अंच् धातु से क्विप् प्रत्यय करने पर यह शब्द जैनधर्म के प्रायः सभी धर्म-स्थानों में श्रवण सम्यक् शब्द निष्पन्न होता है । “समंचित इति गोचर होता है। कभी-कभी तो यह भी सुनाई देता सम्यक्" इस प्रकार भी व्युत्पत्ति होती है। प्रकृत है कि मुझे अमुक गुरु की समकित है। मैंने उन गुरु में इसका अर्थ प्रशंसा है । उमास्वाति ने अपने भाष्य से समकित ली है । तो क्या सम्यक्त्व अथवा समकित में सम्यग शब्द का अर्थ करते हुए कहा--"सम्यलेने-देने की वस्तु है जो कि गुरु अपने अनुयायियों गिति प्रशंसाओं निपातः, समंचतेर्वा भावः' अर्थात् को प्रदान करते हैं। इस प्रथा के रूप में ही निपात से सम्यक् यह प्रशंसार्थक शब्द है तथा सम्सम्यक्त्व है या अनेकान्तवादी जैनदर्शन व जैनागम पूर्वक अंच धातु यह भाव से है। राजवार्तिककार अन्य अर्थ को द्योतित करता है। व्यवहार और अकलंक देव के अनुसार प्रशंसार्थक (निपात) के निश्चय इन दो पहलुओं को दृष्टिकोण में रखकर साथ यह प्रशस्त रूप, गति, जाति, कुल, आयु, खण्ड ४/8 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक् आचार की आधारशिला सम्यक्त्व...... : साध्वी सुरेखाश्री जी विज्ञान आदि अभ्युदय और निःश्रेयस का प्रधान लाती है, शुद्धता लाती है। सम्यक्त्व नामक कारण होता है। अथवा सम्यक् का अर्थ तत्व भी अध्ययन के अतिरिक्त अन्य अध्ययनों में भी सम्यक्त्व किया जा सकता है, जिसका अर्थ होगा तत्व दर्शन, का उल्लेख तो है पर वहाँ भी सम्यक्त्व को सयम अथवा यह क्विप् प्रत्ययान्त शब्द है, जिसका अर्थ के, मुनित्व के समान माना है। संयमी चारित्रवान् है-जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही जानने वाला। मुनि के आचार को ही सम्यक्त्व से अभिप्रेत किया __सम्यक् शब्द की व्युत्पत्ति करने के पश्चात् अब है। सम्यक्त्व और मुनित्व का एकीकरण करते 'दर्शन' शब्द की व्युत्पत्ति पूज्यपाद करते हैं-- हुए कहा है कि'पश्यति दृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्रं वा दर्शनम्' अर्थात् जो “जो सम्यक्त्व है उसे मुनिधर्म के रूप में देखो और देखता है, जिसके द्वारा देखा जाय या देखना मात्र । जो मुनिधर्म है उसे सम्यक्त्व के रूप में देखो।" __ सिद्धसेन के अनुसार 'दर्शनमिति शेख्यभिचारिणी हालाँकि चूर्णिकार और वृत्तिकार के अनुसार सर्वेन्दियानिन्द्रियार्थ प्राप्तिः' अव्यभिचारी इन्द्रिय और मौन अर्थात् मुनिधर्म-संयमानुष्ठान है । जहाँ मुनिअनिन्द्रिय अर्थात् मन के सन्निकर्ष से अर्थ प्राप्ति धर्म है वहाँ सम्यग्ज्ञान है और सम्यग्ज्ञान जहाँ है वहाँ होना दर्शन है । दर्शन शब्द की व्युत्पत्ति 'दृशि' धातू सम्यक्त्व है। ज्ञान का फल विरति होने से के ल्यूट प्रत्यय करके भाव में इक प्रत्यय होने पर सम्यक्त्व की भी अभिव्यक्ति होती है। इस तरह जिसके द्वारा देखा जाता है, जिससे देवा जाता है । के सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र में एकता है। तथा जिसमें देखा जाता है वह दर्शन है । इस प्रकार स्पष्ट है सम्यक्त्व को मुनित्व से अभिप्रेत किया जीवादि के विषय में अविपरीत अर्थात अर्थ को ग्रहण गया है । मुनित्व अर्थात् आचरण की समीचीनता । करने में प्रवत्त ऐसी दृष्टि सम्यग्दर्शन है। अथवा सम्यक्त्व नामक अध्ययन में चार उद्देशक हैं। "प्रशस्तं दर्शनं सम्यग्दर्शनमिति" अर्थात जिनेश्वर प्रथम उद्देशक में सम्यग्वाद का अधिकार है। द्वारा अभिहित अविपरीत अर्थात यथार्थ द्रव्यों अविपरीत अर्थात् यथार्थ वस्तुतत्व का प्रतिपादन और भावों में रुचि होना यह प्रशस्त दर्शन है। हो, वह सम्यग्वाद है। इस उद्देशक में हिंसा का प्रशस्त इसलिए है कि मोक्ष का हेतु है । व्युत्पत्ति स्वरूप बताकर उसका निषेधात्मक रूप अहिंसा का पक्ष के आश्रित अर्थ को लेकर कहते हैं-संगतं वा विधान किया है कि जितने भी तीर्थंकर हुए हैं, हुए दर्शनं सम्यग्दर्शनम्' अर्थात् जिनप्रवचन के अनुसार थे तथा होंगे उन सभी का यह कहना है कि किसी संगत विचार करना वह सम्यग्दर्शन है। इस प्रकार भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए। यही धर्म जिनोक्त तत्वों पर ज्ञानपरक होने वाली श्रद्धा को शुद्ध है, नित्य है, शाश्वत है और जिन प्रवचन में सम्यग्दर्शन कहा। प्ररूपित है। इस प्रकार अहिंसा तत्व का सम्यक् एवं सूक्ष्म निरूपण के साथ अहिंसा की कालिक तत्त्वार्थ सूत्र में तथा टीकाकारों ने श्रद्धापरक एवं सार्वभौमिक मान्यता, सार्वजनीनता एवं सत्यअर्थ को लेकर ही सम्यक्त्व की व्युत्पत्ति की। किन्तु तथ्यता का सम्यग्वाद के रूप में प्रतिपादन किया आगमों में इसका अर्थ भिन्न है। आगमों में सर्व है। अहिंसा व्रत को स्वीकार करने वाले साधक को प्राचीन व प्रथम अंग है आचारांग । आचारांग कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे सावधान रहकर अहिंसा व्रत सूत्र आचारप्रधान है। आचारांग में सम्यक्त्व को स्वीकार करने का अहिंसा के आचरण के लिए नामक अध्ययन होने पर भी सम्यक्त्व का अर्थ पराक्रम करना चाहिए । इस प्रकार आचारांग श्रद्धापरक नहीं वरन् सम्यक्आचारपरक है । के ४-१ में सम्यग्वाद के परिप्रेक्ष्य में अहिंसा धर्म सम्यक्त्व को स्पष्ट रूप से मुनि आचार कहा गया की चर्चा की गई है। चतुर्थ अध्ययन के दूसरे उद्देहै। हाँ, सम्यक्आचार श्रद्धापूर्वक होता है। श्रद्धा शक में धर्मप्रवादियों की धर्म परीक्षा का निरूपण आचरण में सम्यक्तता, समीचीनता लाती है, स्थिरता है । विभिन्न धर्मप्रवादियों के प्रवादों में युक्त-.. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन अयुक्त की विचारणा होने से धर्म की परीक्षा का चतुर्थ उद्देशक में संक्षेप में चारित्र का निरूपण निरूपण है । इस उद्देशक में हिंसा और अहिंसा में किया है। संयत जीवन कैसा ? जो पूर्व सम्बन्धों युक्त क्या है और अयुक्त क्या है ? इसकी परीक्षा का त्याग कर विषयासक्ति छोड़ देता है । इस प्रकार की जाय । विभिन्न मतावलम्बियों में जो यह कहते पुनर्जन्म को अवरुद्ध क दिया है जिन्होंने ऐसे वीर हैं कि “यज्ञ-यागादि में होने वाली हिंसा दोषयुक्त पुरुषों का यह संयम मार्ग दुरूह है । स्थिर मन वाला नहीं" उनको बुलाकर पूछा जाय कि दुःख सुख रूप ब्रह्मचर्य से युक्त ऐसा वीर पुरुष संयम में रत, सावहै या दुःख रूप है ? तो सत्य तथ्य यही वे कहेंगे कि धान, अप्रमत्त तथा तप द्वारा शरीर को कृश करके दुःख तो दुःख रूप ही है। क्योंकि दुःखार्थी कोई प्राणी कर्मक्षय करने में प्रयत्नशील होता है । जो विषयनहीं, सभी प्राणी सुखार्थी है । अतः हिसा अनिष्ट भोगों में लिप्त हैं, उन्हें जानना चाहिए कि मत्य एवं दुःख रूप होने से त्याज्य है और अहिंसा अवश्यंभावी है । जो इच्छाओं के वशीभूत हैं, असंयमी इष्ट एवं सुखरूप होने से ग्रहण करने योग्य-उपादेय हैं और परिग्रह में गृद्ध हैं, वे ही पूनः जन्म लेते हैं। है। इसी के साथ आस्रव और परिस्रव की परीक्षा जो पापकर्मों से निवृत्त हैं, वे ही वस्तुतः वासनारहित के लिए आस्रव में पड़े हुए ज्ञानीजन कैसे परिस्रव हैं। भोगैषणारहित पुरुष की निन्द्य प्रवृत्ति कैसे हो गोषणा (निर्जरा धर्म) में प्रवृत्त हो जाते हैं । तथा परिस्रव सकती है ? जो समितियों से समित, ज्ञान सहित, (धर्म) का अवसर प्राप्त होने पर भी अज्ञानी जन संयत, शुभाशुभदर्शी हैं, ऐसे ज्ञानियों की क्या उपाधि कैसे आस्रव में फंसे रहते हैं ? इस प्रकार आस्रव- हो सकती है ? सम्यग्द्रष्टा की कोई उपाधि नहीं । मग्न जनों को विभिन्न दुःखों का स्पर्श होता है। होती, ऐसा ज्ञानी पुरुष कहते हैं । फलस्वरूप प्रगाढ़ वेदना होती है। इसमें ज्ञानी और अज्ञानियों की गतिविधियों एवं अनुभव के आधार इन चारों उद्देशकों में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, पर धर्मपरीक्षा की है। सम्यक्तप और सम्यक्चारित्र का क्रमशः उल्लेख किया है। श्रद्धा अर्थ का कहीं उल्लेख नहीं है । इन । तीसरे उद्देशक में निषि/अनवद्य तप से ही चारों ही उद्देशकों पर दृष्टिपात करें तो सम्यक्त्व मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है न कि बाल-अज्ञान यहाँ सम्यक्आचरण से ही अभिप्रेत है। अहिंसा, तप से, विश्लेषण किया है। तपस्वा कान ह सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, काम-वासना उनके गुण एवं प्रकृति तथा वे किस प्रकार तपश्चया रहित अनासक्ति आदि से युक्त है, तदनुसार ही कर कर्मक्षय करते हैं उसका विधान किया गया है। उसका आचरण है, उसे सम्यक्त्व हो सकता है । जो अहिंसक हैं, वे ज्ञानी हैं । उनकी वृत्तियों का निरी- ज्ञान मात्र अपेक्षित नहीं, वरन यहाँ आचरण ही क्षण करें तो ज्ञात होगा कि वे धर्म के विशेषज्ञ हान प्रधान बताया है। जो सम्यकत्वी/सम्यग्दृष्टि है के साथ सरल व अनासक्त हैं । वे कषायों को भस्मी - उसके कार्य कैसे होते हैं, उसका उल्लेख करते हुए भूत कर कर्मों का क्षय करते हैं। ऐसा सम्यग्दृष्टि कहा है कि तत्ववेत्ता मुनि कल्याणकारी मोक्षमार्ग कहते हैं, क्योंकि “दुःख कर्मजनित हैं" वे इसे भली को जानकर पाप कर्म नहीं करता। भाँति जानते हैं । अतः कर्म-स्वरूप जानकर उसका त्याग करने का उपदेश देते हैं। जो अरिहन्त की उक्त कथन से स्पष्ट है कि आचरण की विशुआज्ञा के आकांक्षी, निस्पृही, बुद्धिमान पुरुष हैं, वे द्धता सम्यक्त्व पर आधारित है। सम्यक्आचरण सर्वात्मदर्शन करके देहासक्ति छोड़ देते हैं। जिस से युक्त जीवन ही चरम लक्ष्य की ओर कदम बढ़ा प्रकार जीर्णकाष्ठ को अग्नि शीघ्र जला देती है, सकता है । क्योंकि कहा भी है कि जो वीर सम्यउसी प्रकार समाहित आत्म वाले वीर पुरुष कषाय क्त्वदर्शी/सम्यग्दृष्टि मुनि है वही संसार को तिरता रूपी कर्म शरीर को तपश्चर्या द्वारा शीघ्र जला देते हैं। है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक् आचार की आधारशिला सम्यक्त्व... : साध्वी सुरेखाश्री जी इस प्रकार आचारांग में सम्यक्त्व का अर्थ है। त्रिपिटकों में सम्यग्दृष्टि को सम्माद्दिट्ठी कहा सम्यक्आचरण पर आधारित बताया है। किन्तु गया तथा सम्यग्दृष्टि श्रद्धायुक्त होता है। आर्य अन्य आगमों व आगमेतर साहित्य में सम्यक्त्व के अष्टांगिक मार्ग, शिक्षात्रय, आध्यात्मिक विकास की प्रचलित अर्थ व स्वरूप में भिन्नता है। अपेक्षाभेद पाँच शक्तियाँ और पाँच बल सभी में श्रद्धा का स्थान से, निश्चय-व्यवहारनय से उसमें समानता भी प्रथम माना है। इसी मोक्षमार्ग के साधन रूप श्रद्धा द्योतित होती है । आचारांग में आत्मोपम्य की को सांख्यदर्शन एवं योगदर्शन ने विवेकख्याति कह भावना से ओतप्रोत, अहिंसा, विवेक, अनवद्य तप से कर सम्बोधित किया है । वेदान्तदर्शन में ज्ञान में ही युक्त चारित्र को सम्यक्त्व के अर्थ में व्यापक दृष्टि- श्रद्धा को अन्तनिहित किया गया है। कोण से अनुलक्षित किया है । क्योंकि उपरोक्त गुणों की सुरक्षा भी पूर्णतया मुनिजीवन में ही सम्भव महाभारत में श्रद्धा को सर्वोपरि माना है तथा है। जबकि सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रु तस्कन्ध में श्रद्धा ही सब पापों से मुक्त कराने वाली है ऐसा संयती मुनि के साथ व्रतधारी श्रावकों का भी मान्य किया है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सम्यग्दृष्टि होना बताया गया है। संयती मुनि व श्रद्धा धारण करने का उपदेश दिया और कहा कि श्रावक श्रद्धापूर्वक धर्मानुष्ठान करते हैं, यत्र-तत्र श्रद्धावान् ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है, वही संयती उसका भी उल्लेख मिलता है। किन्तु सम्यक्त्व के होता है । तदनन्तर वह आत्मा परब्रह्म को प्राप्त हो स्वरूप ने श्रद्धा रूपी बाना यहाँ धारण नहीं किया। सकती है । ईसाई धर्म व इस्लाम धर्म में भी श्रद्धा उत्तराध्ययन सूत्र में सर्वप्रथम सम्यक्त्व को तत्व को प्राथमिकता दी है। तात्पर्य यह है कि सर्व धर्म श्रद्धा स्वीकार किया व तत्वों का भी निर्देशन किया दर्शनों ने श्रद्धा/सम्यग्दर्शन को मोक्ष का हेत समवेत गया है। अन्य आगमों में इसके भेद, प्रकार, अति- स्वर से स्वीकार किया है। चार, अंग, लक्षण आदि का कथन किया गया। आगमेतर साहित्य में तत्त्वार्थ सूत्र में वाचकवर्य आध्यात्मिक दृष्टि से तो सम्यग्दर्शन का उमास्वाति ने सम्यग्दर्शन का स्वरूप स्पष्ट रूप से स्थान महत्वपूर्ण है ही, किन्तु लौकिक जीवन निर्धारित किया। उत्तराध्ययन सूत्र की अपेक्षा में भी इसका महत्व कम नहीं । जैन मान्यतानुसार तत्त्वार्थ सूत्र अधिक प्रकाश में आया । उसका कारण इसका हम यथार्थ दृष्टिपरक अर्थ करते हैं तो यह रहा कि यह सभी जैन सम्प्रदायों को ग्राह्य है। भी इसका महत्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है। क्योंकि तत्त्वार्थ सूत्र के टीकाकारों ने भी इसकी विशद चर्चा यह जीवन के प्रति ही एक दृष्टिकोण हो जाता है। की। सम्यक्त्व के पर्यायवाची शब्द सम्यग्दर्शन, अहिंसा अनेकान्त और अनासक्त जीवन जीने की श्रद्धा, रुचि, प्रतीति, विश्वास भी व्यवहृत होते हैं। कला इससे प्राप्त होती है। चूंकि जीवनदृष्टि के सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति में किसी ने अनुसार ही व्यक्तित्व व चरित्र का निर्माण होता ज्ञान को पश्चात्वर्ती माना तो किसी ने सहभागी है, दृष्टि के अनुसार ही जीवन सृष्टि निर्मित होती माना। तत्त्वार्थ के पूर्व नंदीसूत्र में देववाचक गणि है। ऐसे उदाहरणों से इतिहास भरा है। अतः यह ने कहा कि सम्यग्दृष्टि का श्र त ही सम्यक्च त है अपने आप पर निर्भर है कि हमको जैसा बनना है अन्यथा वह मिथ्याश्र त है। दिगम्बर साहित्य में उसी के अनुरूप हम अपनी जीवनदृष्टि बनाएँ । भी सम्यक्त्व का यही स्वरूप स्वीकृत किया है। क्योंकि जैसी दृष्टि होती है, वैसा ही उसके जीवन जैनेतर दर्शनों में बौद्धदर्शन तो श्रमण भगवान जीने का ढंग होता है और जैसा उसके जीने का महावीर के समकालीन व सन्निकट रहा है। अतः ढंग होता है, उसी स्तर से उसके चरित्र का निर्माण इनमें एक दूसरे का प्रतिबिम्ब झलकना स्वाभाविक होता है और चरित्र के अनुसार ही उसके व्यक्तित्व Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड 4 : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन में प्रतिभा आती है। इस प्रकार यथार्थ दृष्टिकोण जीवन के आदर्शों के साथ परस्पर मैत्रीपूर्ण होना जीवन-निर्माण की दिशा में आवश्यकीय है। सम्बन्ध बनाए रखना, सम्यक् रीति से जीवन सैद्धान्तिक अपेक्षा से आध्यात्मिक विकास में व्यतीत करना है। राजनैतिक व्यवस्था सम्यक् न सम्यक्त्व महत्वपूर्ण है ही किन्तु व्यावहारिक जीवन होगी तो राष्ट्र में भ्रष्टाचार बढ़ता ही जावेगा, में भी सम्यक्त्व अत्यन्त उपयोगी है। सामाजिक फलस्वरूप राष्ट्र का अनैतिकता के कारण पतन हो क्षेत्र हो या पारिवारिक क्षेत्र हो, राजनैतिक क्षेत्र जायेगा। धार्मिक व नैतिक क्षेत्र में तो स्पष्ट रूप हो या आर्थिक क्षेत्र हो, धार्मिक क्षेत्र हो या नैतिक से ही सम्यक्त्व की छाप दृष्टिगोचर होती है / क्षेत्र हो हर क्षेत्र में सम्यकत्व उपयोगी व महत्व- धार्मिक सिद्धान्तों का व्यावहारिक जीवन में पूर्ण है ; क्योंकि सही दृष्टि सही दिशा की ओर ले उपयोग होना ही सम्यक्त्व है। जीवन को सुव्यवजाती है / फलतः मंजिल तक पहुँचा देती है। स्थित रूप से, सुचारु रूप से प्रतिपादन करने में, गलत राह पर जाने वाला भटक जाता है, सही राह उत्तरोत्तर आत्मिक गुणों के विकास में सम्यक्त्व ही वाला नहीं। सहायक है। 9 भाषा की मधुरता और शिष्टता में ही व्यक्ति की कुलीनता और सज्जनता छिपी हुई है। भाषा से ही व्यक्ति अपना परिचय दे देता है कि वह किस खानदान से ताल्लुक रखता है। भाषा की शालीनता जहाँ व्यक्ति को सम्मान दिलाती है वहीं व्यक्ति के प्रथम परिचय में ही अमिट छाप 卐 इसी जीभ में अमृत और जहर बसता है / मधुरता भाषा का अमृत है और कटुता जहर है / यह जहर व्यक्ति के स्वयं के जीवन में भी अशान्ति फैलाता है और अन्य को भी परेशान करता है। आपको अनुभव भी होगा। अगर किसी बात को स्नेह से कहते हैं तो आपका सारा तनाव काफूर हो जाता है / अगर गुस्से में कहते हैं-दो-चार गालियाँ सुनाकर कहते हैं तो -आचार्य श्री जिनकान्ति सागरसूरि ( 'उठ जाग मुसाफिर भोर भई' पुस्तक से)