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सम्यक् आचार की आधारशिला सम्यक्त्व...... : साध्वी सुरेखाश्री जी
विज्ञान आदि अभ्युदय और निःश्रेयस का प्रधान लाती है, शुद्धता लाती है। सम्यक्त्व नामक कारण होता है। अथवा सम्यक् का अर्थ तत्व भी अध्ययन के अतिरिक्त अन्य अध्ययनों में भी सम्यक्त्व किया जा सकता है, जिसका अर्थ होगा तत्व दर्शन, का उल्लेख तो है पर वहाँ भी सम्यक्त्व को सयम अथवा यह क्विप् प्रत्ययान्त शब्द है, जिसका अर्थ के, मुनित्व के समान माना है। संयमी चारित्रवान् है-जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही जानने वाला। मुनि के आचार को ही सम्यक्त्व से अभिप्रेत किया __सम्यक् शब्द की व्युत्पत्ति करने के पश्चात् अब है। सम्यक्त्व और मुनित्व का एकीकरण करते 'दर्शन' शब्द की व्युत्पत्ति पूज्यपाद करते हैं-- हुए कहा है कि'पश्यति दृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्रं वा दर्शनम्' अर्थात् जो “जो सम्यक्त्व है उसे मुनिधर्म के रूप में देखो और देखता है, जिसके द्वारा देखा जाय या देखना मात्र । जो मुनिधर्म है उसे सम्यक्त्व के रूप में देखो।" __ सिद्धसेन के अनुसार 'दर्शनमिति शेख्यभिचारिणी हालाँकि चूर्णिकार और वृत्तिकार के अनुसार सर्वेन्दियानिन्द्रियार्थ प्राप्तिः' अव्यभिचारी इन्द्रिय और मौन अर्थात् मुनिधर्म-संयमानुष्ठान है । जहाँ मुनिअनिन्द्रिय अर्थात् मन के सन्निकर्ष से अर्थ प्राप्ति धर्म है वहाँ सम्यग्ज्ञान है और सम्यग्ज्ञान जहाँ है वहाँ होना दर्शन है । दर्शन शब्द की व्युत्पत्ति 'दृशि' धातू सम्यक्त्व है। ज्ञान का फल विरति होने से के ल्यूट प्रत्यय करके भाव में इक प्रत्यय होने पर सम्यक्त्व की भी अभिव्यक्ति होती है। इस तरह जिसके द्वारा देखा जाता है, जिससे देवा जाता है ।
के सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र में एकता है। तथा जिसमें देखा जाता है वह दर्शन है । इस प्रकार
स्पष्ट है सम्यक्त्व को मुनित्व से अभिप्रेत किया जीवादि के विषय में अविपरीत अर्थात अर्थ को ग्रहण गया है । मुनित्व अर्थात् आचरण की समीचीनता । करने में प्रवत्त ऐसी दृष्टि सम्यग्दर्शन है। अथवा सम्यक्त्व नामक अध्ययन में चार उद्देशक हैं। "प्रशस्तं दर्शनं सम्यग्दर्शनमिति" अर्थात जिनेश्वर प्रथम उद्देशक में सम्यग्वाद का अधिकार है। द्वारा अभिहित अविपरीत अर्थात यथार्थ द्रव्यों अविपरीत अर्थात् यथार्थ वस्तुतत्व का प्रतिपादन
और भावों में रुचि होना यह प्रशस्त दर्शन है। हो, वह सम्यग्वाद है। इस उद्देशक में हिंसा का प्रशस्त इसलिए है कि मोक्ष का हेतु है । व्युत्पत्ति
स्वरूप बताकर उसका निषेधात्मक रूप अहिंसा का पक्ष के आश्रित अर्थ को लेकर कहते हैं-संगतं वा
विधान किया है कि जितने भी तीर्थंकर हुए हैं, हुए दर्शनं सम्यग्दर्शनम्' अर्थात् जिनप्रवचन के अनुसार
थे तथा होंगे उन सभी का यह कहना है कि किसी संगत विचार करना वह सम्यग्दर्शन है। इस प्रकार
भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए। यही धर्म जिनोक्त तत्वों पर ज्ञानपरक होने वाली श्रद्धा को शुद्ध है, नित्य है, शाश्वत है और जिन प्रवचन में सम्यग्दर्शन कहा।
प्ररूपित है। इस प्रकार अहिंसा तत्व का सम्यक्
एवं सूक्ष्म निरूपण के साथ अहिंसा की कालिक तत्त्वार्थ सूत्र में तथा टीकाकारों ने श्रद्धापरक एवं सार्वभौमिक मान्यता, सार्वजनीनता एवं सत्यअर्थ को लेकर ही सम्यक्त्व की व्युत्पत्ति की। किन्तु तथ्यता का सम्यग्वाद के रूप में प्रतिपादन किया आगमों में इसका अर्थ भिन्न है। आगमों में सर्व है। अहिंसा व्रत को स्वीकार करने वाले साधक को प्राचीन व प्रथम अंग है आचारांग । आचारांग कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे सावधान रहकर अहिंसा व्रत सूत्र आचारप्रधान है। आचारांग में सम्यक्त्व को स्वीकार करने का अहिंसा के आचरण के लिए नामक अध्ययन होने पर भी सम्यक्त्व का अर्थ पराक्रम करना चाहिए । इस प्रकार आचारांग श्रद्धापरक नहीं वरन् सम्यक्आचारपरक है । के ४-१ में सम्यग्वाद के परिप्रेक्ष्य में अहिंसा धर्म सम्यक्त्व को स्पष्ट रूप से मुनि आचार कहा गया की चर्चा की गई है। चतुर्थ अध्ययन के दूसरे उद्देहै। हाँ, सम्यक्आचार श्रद्धापूर्वक होता है। श्रद्धा शक में धर्मप्रवादियों की धर्म परीक्षा का निरूपण
आचरण में सम्यक्तता, समीचीनता लाती है, स्थिरता है । विभिन्न धर्मप्रवादियों के प्रवादों में युक्त-.. Jain Education International
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