Book Title: Samtayoga Ek Anuchintan
Author(s): Jashkaran Daga
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf

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Page 9
________________ साथ न जावेगा तो इसे कैसे साथ जे जाऊ?" महात्मा ने कहा “जब आप सुई साथ नहीं ले जा सकते तो फिर सारे धन को साथ ले जाने की ममता से क्यों प्राण अटका कर तकलीफ पा रहे हैं?" बस सेठ का विवेक जगा और महात्मा से संधारा ग्रहण कर लिया । धन पर मूर्छा हट जाने से, तत्काल सेठ के प्राण निकल गए और समाधि मरण प्राप्त कर लिया। (७) ममता विहीन अनासक्त वृत्ति - समता उपलब्धि हेतु जीवन को निर्मम और अनासक्त बनाना भी आवश्यक है। ममता सर्व दुखों और विषमताओं की जननी है। ममता की पाश, पाँच ककार से निर्मित है वे हैं कंचन, कामिनी, कुटुम्ब, काया व कीर्ति। प्राणी इस पाश से बंधकर सदा व्याकुल और चिंताओं से ग्रसित रहता है। इस पाश से मुक्ति होने के लिए ज्ञानियों ने बारह भावनाओं का ब्रह्मास्त्र बताया है। ये बारह भवनाएं इस प्रकार हैं -(१) अनित्य (२) अशरण (३) संसार (४) एकत्व (५) अत्यत्व (६) अशुचि (७)आश्रव (८) संवर (९) निर्जरा (१०) लोक (११) दुर्लभ बोधि व (१२) धर्म भावना। १८ ये बारह भावनाएं वैराग्य वर्धक होने से ममता पाश को बहुत शीघ्र काट देती है, जिससे इनका नित्य पुनः-पुनः चिंतन करना चाहिए। (८) शुभ ध्यान से प्रमोदित रहे - विषमता न पनपे इस हेतु सदा एक सूत्र याद रखो ‘कर्म करते रहो, मुस्कराते रहो।' चित्त को सदैव शुभ में धर्म ध्यान लगाए रखो और उदास न रहो। आर्त व रौद्रध्यान समता के लिए जहर है, जिससे बचते रहो। अशुभ ध्यान प्रायः दुख या प्रतिकूलता या अभावग्रस्त स्थिति में होता है, जिससे बचने के लिए निम्न चिंतन करें - (i) जो भी दुख या प्रतिकूलता या अभावग्रस्तता है, वह स्व कर्म जनित है, पूर्व कर्मों का ऋण है, जिसे चुकाना ही है। (ii) अपने से अधिक दुखियों को देखो-इससे बड़ी राहत और संतोष मिलेगा। (iii) जो अशुभ कर्म बांधे हैं, उन्हें भुगतने ही पड़ेंगे। समभावों से वे क्षय हो जाते हैं, जब कि विषम भावों से और नए बंध जाते हैं। ज्ञानी कहते हैं - “जो जो पुद्गल स्पर्शना तेते, निश्चय होय। ममता समता भाव से, कर्म बंधक्षय होय॥" (iv) जब शुभ नहीं रहा तो यह अशुभ भी रहने वाला नहीं है। रात्रि के घोर अंधकार के बाद भी दिन आता ___ही है, अतः अशुभ में अधीर न होवें। (९) असद् व्यवहार से दूर रहें - सुख शान्ति आत्मा की सहज स्थिति होने से वह बड़ी सस्ती और सुलभ है, और दुःख अशांन्ति के साथ अनेक झंझटे व परेशानियाँ जुड़ी होने से वह बड़ी महंगी पड़ती है। किन्तु फिर भी हम व्यर्थ में दूसरे के प्रति ऐसा व्यवहार जो स्वयं हमें पसंद नहीं करके परस्पर कटुता, क्षोभ व अशांति पैदा कर लेते हैं। अतएव नीति के इस सूत्र को सदा ध्यान में रखें -“आत्मतः प्रतिकूलानि, परेबां न समा चरेत।" जो व्यवहार अपनी आत्मा को अनुकूल नहीं, वो व्यवहार असद् होने से दूसरों के प्रति भी न करें। १८. प्रवचन सारोद्धार, ६७। (१३९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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