Book Title: Samtayoga Ek Anuchintan Author(s): Jashkaran Daga Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 1
________________ समता योगः एक अनुचिंतन 2210050588888888888888888888888888 • श्री जशकरण डागा, टोंक • “मंत्रों में परमेष्ठी मंत्र ज्यों, व्रतो में ब्रह्म-चर्य महान। तारागण में ज्यों चंदा है, पर्वत बड़ा सुमेरा जान॥ नदी में गंगा काष्ठ में चन्दन, ज्यों देवो में इन्द्र महान। . त्यों योगो में 'समता' उत्तम, साक्षी आगम वेद पुराना॥" १ अध्यात्म जगत में तीन योग मुख्य हैं -ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग। इन तीनों योगों के सम्यग् समन्वय का नाम ही 'समतायोग' है। यही मोक्ष मार्ग का सर्वोत्तम योग है। बिना इसके मात्र ज्ञान या कर्म या भक्ति योग स्वप्रतिष्ठित महान होकर भी अपूर्ण कहे गए हैं। जैसे हरड़ बहेड़ा व ऑवला, तीनों गुणकारी होने पर भी त्रिफला अमृत तो इन तीनों के सम्यग् सम्मिश्रण से ही प्राप्त होता है, वैसे ही आत्मा को परमानन्द रूप अलौकिक अमृत की प्राप्ति व अनुभूति, ज्ञान, दर्शन (भक्ति) व चारित्र (कर्म) के सम्यम् समन्वय पर होती है। इसे ही समता योग कहते हैं। यह समता योग सभी योगों में श्रेष्ठ तथा सभी दर्शनों, सिद्धान्तों व शास्त्रों का सार भूत तत्व है। जिसने इसे प्राप्त कर लिया वह कृत्य-कृत्य हो गया और शाश्वत मुक्ति का स्वामी बन गया है। अर्थ एवं व्याख्या - समता शब्द में तीन अक्षर हैं जो रत्नत्रय के प्रतीक है। यथा-स=सम्यक्तव, म=मति (ज्ञान), तात्याग (चारित्र)। अर्थात् जहाँ सम्यग् ज्ञान दर्शन व चारित्र की पावन त्रिवेणी का संगम होता है, वहाँ जीवन में, सच्चे समता योग का सूर्य उदित होता है। समता शब्द सम से बना है। संस्कृत में इसके तीन पर्यायवाची हैं - (1) साम्य = आत्मा की सहज तटस्थ निर्विकलष दशा ।। (ii) शम = क्रोध, मान, माया व लोभ के शमन से प्राप्त शान्त दशा । (iii) श्रम = तप रूप श्रम से कर्म दाय होने पर उपलब्ध आत्मा की विशुद्ध (निर्मल) दशा। इस प्रकार से संक्षेप में कहा जाय तो 'समता योग' आत्मा का स्वाभाव में अवस्थित, वह सहज दशा है, जब वह परमात्म भावों में या तदनुरूप विशुद्ध भावों में स्थिर हो, अंतर में रहे शाश्वत सुख शात्ति के अजस्र स्रोत में लीन होता है। यह समता योग बहिरात्मा से अंतर आत्मा, अंतर अत्मा से महात्मा और महात्मा से परमात्मा होने की सर्वश्रेष्ठ दिव्य कला है, जो सभी साधकों के तप, जप, ज्ञान, ध्यान, का चरम लक्ष्य होता है। समता योग को विशेष रूप से समझने हेतु उसके विरोधक ममता को समझना आवश्यक है। 'ममता' का अर्थ है (मूर्छा) आसक्ति। जो आत्मा विषमता पैदा करे वह ममता है। १. स्वरचित पद (१३१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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