Book Title: Samdarshi Haribhadrasuri Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 4
________________ समदर्शी आचार्य हरिभद्र : : ताडपत्रीय जैसलमेर की प्रति का परिचय मुनि श्री पुण्यविजय सम्पादित 'जैसलमेर कलेक्शन' पृष्ठ ६८ में इस प्रकार प्राप्य है "क्रमांक १९६. जम्बू द्वीपक्षेत्रसमासवृत्ति पत्र २६, भाषा, प्राकृत संस्कृत, कर्त्ता हरिभद्र आचार्य, प्रतिलिपि ले० सं० अनुमानतः १४वीं शताब्दी ।” इस प्रति के अन्त में इस प्रकार का उल्लेख मिलता है - इति क्षेत्रसमासवृत्तिः समाप्ता । विरचिता श्री हरिभद्राचार्यैः । । छ । । लघुक्षेत्रसमासस्य वृत्तिरेषा समासतः । रचिताबुधबोधार्थ श्री हरिभद्रसूरिभिः ।। १ ।। पश्चाशितिकवर्षे विक्रमतो वज्रति शुक्लपञ्चम्याम् । शुक्रस्य शुक्रवारे शस्ये पुष्ये च नक्षत्रे || २ || ठीक इसी प्रकार का उल्लेख अहमदाबाद, संवेगी उपाश्रय के हस्तलिखित भण्डार की सम्भवतः पन्द्रहवीं शताब्दी में लिखी हुई क्षेत्र समास की कागज की एक प्रति में उपलब्ध होता है। दूसरी गाथा में स्पष्ट शब्दों में श्री हरिभद्रसूरि ने लघुक्षेत्रमास वृत्ति का रचनाकाल वि० सं० (५) ८५, पुष्यनक्षत्र शुक्र (ज्येष्ठ) मास, शुक्रवार शुक्लपञ्चमी बताया है। यद्यपि यहाँ वि० सं० ८५ का उल्लेख है। तथापि जिन वार-तिथि मास-नक्षत्र का यह उल्लेख है उनसे वि० सं० ५८५ का ही मेल बैठता है। अहमदाबाद वेधशाला के प्राचीन ज्योतिष विभाग के अध्यक्ष श्री हिम्मतराम जानी ने ज्योतिष और गणित के आधार पर जाँच करके यह बताया है कि उपर्युक्त गाथा में जिन वारतिथि इत्यादि का उल्लेख है, वह वि० सं० ५८५ के अनुसार बिलकुल ठीक है, ज्योतिषशास्त्र के गणितानुसार प्रामाणिक है। इस प्रकार श्री हरिभद्रसूरि महाराज ने स्वयं ही अपने समय की अत्यन्त प्रामाणिक सूचना दे रखी है, तब उससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है जो उनके इस समय की सिद्धि में बाधा डाल सके ? शंका हो सकती है कि 'यह गाथा किसी अन्य ने प्रक्षिप्त को होगी' किन्तु वह ठीक नहीं, क्योंकि प्रक्षेप करने वाला केवल संवत् का उल्लेख कर सकता है किन्तु उसके साथ प्रामाणिक वार तिथि आदि का उल्लेख नहीं कर सकता । हाँ, यदि धर्मकीर्ति आदि का समय इस समय में बाधा उत्पन्न कर रहा हो तो धर्मकीर्ति आदि के समयोल्लेख के आधार पर श्री हरिभद्रसूरि को विक्रम की छठी शताब्दी से खींचकर आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ले जाने की अपेक्षा उचित यह है कि श्री हरिभद्रसूरि के इस अत्यन्त प्रामाणिक समय उल्लेख के बल से धर्मकीर्ति आदि को ही छठी शताब्दी के पूर्वार्ध या उत्तरार्ध में ले जाया जाय। । किन्तु मुनि श्रीजयसुन्दरविजयजी की उपर्युक्त सूचना के अनुसार जम्बूद्वीप क्षेत्र समासवृत्ति का रचनाकाल है । पुन: इसमें मात्र ८५ का उल्लेख है, ५८५ का नहीं। इत्सिंग आदि का समय तो सुनिश्चित है पुनः समस्या न केवल धर्मकीर्ति आदि के समय की है, । अपितु जैन परम्परा के सुनिश्चित समयवाले जिनभद्र, सिद्धसेनक्षमाश्रमण एवं जिनदासगणि महत्तर की भी है- इनमें से कोई भी विक्रम संवत् ५८५ से पूर्ववर्ती नहीं है जबकि इनके नामोल्लेख सहित प्रन्यावतरण Jain Education International ६६७ हरिभद्र के ग्रन्थों में मिलते हैं। इनमें सबसे पूर्ववर्ती जिनभद्र का सत्तासमय भी शक संवत् ५३० अर्थात् विक्रम संवत् ६६५ के लगभग है। अतः हरिभद्र के स्वर्गवास का समय विक्रम संवत् ५८५ किसी भी स्थिति में प्रामाणिक सिद्ध नहीं होता । । हरिभद्र को जिनभद्रगणि, सिद्धसेनगणि और जिनदासमहत्तर का समकालिक मानने पर पूर्वोक्त गाथा के वि० सं० ५८५ को शक संवत् मानना होगा और इस आधार पर हरिभद्र का समय ईसा की सातवीं शताब्दी का उत्तरार्ध सिद्ध होता है। हरिभद्र की कृति दशवैकालिक वृत्ति में विशेषावश्यकभाष्य की अनेक गाथाओं का उल्लेख यही स्पष्ट करता है कि हरिभद्र का सत्ता समय विशेषावश्यकभाष्य के पश्चात् ही होगा। भाष्य का रचनाकाल शक संवत् ५३१ या उसके कुछ पूर्व का है । अतः यदि उपर्युक्त गाथा के ५८५ को शक संवत् मान लिया जाय तो दोनों में संगति बैठ सकती है पुनः हरिभद्र की कृतियों में नन्दी चूर्णि से भी । कुछ पाठ अवतरित हुए हैं। नन्दीचूर्णि के कर्ता जिनदासगणिमहत्तर ने उसका रचना काल शक संवत् ५९८ बताया है। अतः हरिभद्र का सत्तसमय शक संवत् ५९८ तदनुसार ई० सन् ६७६ के बाद ही हो सकता है। यदि हम हरिभद्र के काल सम्बन्धी पूर्वोक्त गाथा के विक्रम संवत् को शक संवत् मानकर उनका काल ईसा की सातवीं शताब्दी का उत्तरार्ध एवं आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध मानें तो नन्दी चूर्णि के अवतरणों की संगति बैठाने में मात्र २०-२५ वर्ष का ही अन्तर रह जाता है। अतः इतना निशित है कि हरिभद्र का काल विक्रम की सातवीं/ आठवीं अथवा ईस्वी सन् की आठवीं शताब्दी ही सिद्ध होगा। इससे हरिभद्र की कृतियों में उल्लिखित कुमारिल, भर्तृहरि धर्मकीर्ति, वृद्धधर्मोत्तर आदि से उनकी समकालिकता मानने में भी कोई बाधा नहीं आती । हरिभद्र ने जिनभद्र और जिनदास के जो उल्लेख किये हैं और हरिभद्र की कृतियों में इनके जो अवतरण मिलते हैं उनमें भी इस तिथि को मानने पर कोई बाधा नहीं आती। अतः विद्वानों को जिनविजयजी के निर्णय को मान्य करना होगा। पुनः यदि हम यह मान लेते हैं कि निशीथचूर्णि में उल्लिखित प्राकृत धूर्ताख्यान किसी पूर्वाचार्य की कृति थी और उसके आधार पर ही हरिभद्र ने अपने प्राकृत धूर्ताख्यान की रचना की तो ऐसी स्थिति में हरिभद्र के समय को निशीथचूर्णि के रचनाकाल ईस्वी सन् ६७६ से आगे लाया जा सकता है। मुनि श्री जिनविजयजी ने अनेक आन्तर और बाह्य साक्ष्यों के आधार पर अपने ग्रन्थ हरिभद्रसूरि का समय निर्णय' में हरिभद्र समय को ई० सन् ७००-७७० स्थापित किया है। यदि पूर्वोक्त गाथा के अनुसार हरिभद्र का समय विक्रम सं० ५८५ मानते हैं तो जिनविजयजी द्वारा निर्धारित समय और गाथोक्त समय में लगभग २०० वर्षों का अन्तर रह जाता है जो उचित नहीं लगता है। अतः इसे शक संवत् मानना उचित होगा। इसी क्रम में मुनि धनविजयजी ने 'चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धार' में 'रत्नसंचयप्रकरण' की निम्न गाथा का उल्लेख किया है। 1 पणपण्णवारससए हरिभदोसूरि आसि पुव्वकाए । इस गाथा के आधार पर हरिभद्र का समय वीर निर्वाण संवत् For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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