Book Title: Samdarshi Haribhadrasuri
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 8
________________ समदर्शी आचार्य हरिभद्र ६७१ दर्शनों का संक्षेप में वर्णन किया गया है। पं० दलसुखभाई मालवणिया समीक्षा में शिष्टभाषा का प्रयोग और अन्य धर्मप्रवर्तकों के प्रति के अनुसार इस ग्रन्थ की एक विशेषता तो यह है कि इसमें न्याय- बहुमान वैशेषिकों का समावेश शैवदर्शन में किया गया है। मेरी दृष्टि में इसका दर्शन के क्षेत्र में अपनी दार्शनिक अवधारणाओं की पुष्टि तथा कारण लेखक के द्वारा हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय का अनुसरण करना विरोधी अवधारणाओं के खण्डन के प्रयत्न अत्यन्त प्राचीनकाल से होते ही है, क्योंकि उसमें भी न्यायदर्शन के देवता के रूप में शिव का ही रहे हैं। प्रत्येक दर्शन अपने मन्तव्यों की पुष्टि के लिये अन्य दार्शनिक उल्लेख किया गया है - मतों की समालोचना करता है । स्वपक्ष का मण्डन तथा परपक्ष का 'अक्षपादमते देवः सृष्टिसंहारकृच्छिवः' ।।१३।। खण्डन- यह दार्शनिकों की सामान्य प्रवृत्ति रही है । हरिभद्र भी इसके यह ग्रन्थ भी हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय के समान केवल अपवाद नहीं हैं। फिर भी उनकी यह विशेषता है कि अन्य दार्शनिक मतों परिचयात्मक और निष्पक्ष विवरण प्रस्तुत करता है और आकार में मात्र की समीक्षा में वे सदैव ही शिष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं तथा विरोधी ६६ श्लोक प्रमाण हैं। . दर्शनों के प्रवर्तकों के लिए भी बहुमान प्रदर्शित करते हैं । दार्शनिक जैन परम्परा में दर्शन- संग्राहक ग्रन्थों में तीसरा क्रम राजशेखर समीक्षाओं के क्षेत्र में एक युग ऐसा रहा है जिसमें अन्य दार्शनिक (विक्रम १४०५) के षड्दर्शनसमुच्चय का आता है । इस ग्रन्थ में जैन, परम्पराओं को न केवल भ्रष्ट रूप में प्रस्तुत किया जाता था, अपितु उनके सांख्य, जैमिनीय, योग, वैशेषिक और सौगत (बौद्ध) इन छ: दर्शनों का प्रवर्तकों का उपहास भी किया जाता था । जैन और जैनेतर दोनों ही उल्लेख किया गया है । हरिभद्र के समान ही इस ग्रन्थ में भी इन सभी परम्पराएँ इस प्रवृत्ति से अपने को मुक्त नहीं रख सकीं । जैन परम्परा के को आस्तिक कहा गया है और अन्त में नास्तिक के रूप में चार्वाक दर्शन सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र आदि दिग्गज दार्शनिक भी जब अन्य का परिचय दिया गया है। हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय और राजशेखर दार्शनिक परम्पराओं की समीक्षा करते हैं तो न केवल उन परम्पराओं की के षड्दर्शनसमुच्चय में एक मुख्य अन्तर इस बात को लेकर है कि मान्यताओं के प्रति, अपितु उनके प्रवर्तकों के प्रति भी चुटीले व्यंग्य कस दर्शनों के प्रस्तुतीकरण में जहाँ हरिभद्र जैनदर्शन को चौथा स्थान देते हैं देते हैं । हरिभद्र स्वयं भी अपने लेखन के प्रारम्भिक काल में इस प्रवृत्ति वहाँ राजशेखर जैनदर्शन को प्रथम स्थान देते हैं । पं० सुखलाल संघवी के अपवाद नहीं रहे हैं । जैन आगमों की टीका में और धूर्ताख्यान जैसे के अनुसार सम्भवतः इसका कारण यह हो सकता है कि राजशेखर ग्रन्थों की रचना में वे स्वयं भी इस प्रकार के चुटीले व्यंग्य कसते हैं, अपने समकालीन दार्शनिकों के अभिनिवेशयुक्त प्रभाव से अपने को दूर किन्तु हम देखते हैं कि विद्वत्ता की प्रौढ़ता के साथ हरिभद्र में धीरे-धीरे नहीं रख सके । यह प्रवृत्ति लुप्त हो जाती है और अपने परवर्ती ग्रन्थों में वे अन्य पं० दलसुखभाई मालवणिया की सूचना के अनुसार राजशेखर परम्पराओं और उनके प्रवर्तकों के प्रति अत्यन्त शिष्ट भाषा का प्रयोग के काल का ही एक अन्य दर्शन-संग्राहक ग्रन्थ आचार्य मेरुतुंगकृत करते हैं तथा उनके प्रति बहुमान सूचित करते हैं । इसके कुछ उदाहरण 'षड्दर्शननिर्णय' है । इस ग्रन्थ में मेरुतुंग ने जैन, बौद्ध, मीमांसा, हमें उनके ग्रन्थ 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में देखने को मिल जाते हैं। अपने सांख्य, न्याय और वैशेषिक - इन छ: दर्शनों की मीमांसा की है किन्तु ग्रन्थ 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' के प्रारम्भ में ही ग्रन्थ-रचना का उद्देश्य स्पष्ट इस कृति में हरिभद्र जैसी उदारता नहीं है । यह मुख्यतया जैनमत की करते हुए वे लिखते हैं - स्थापना और अन्य मतों के खण्डन के लिये लिखा गया है । इसकी यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्वविनिश्चयः । एकमात्र विशेषता यह है कि इसमें महाभारत, स्मृति, पुराण आदि के जायते द्वेषशमनः स्वर्गसिद्धिसुखावहः ।। आधार पर जैनमत का समर्थन किया गया है। अर्थात् इसका अध्ययन करने से अन्य दर्शनों के प्रति द्वेष-बुद्धि पं० दलसुखभाई मालवणिया ने षड्दर्शनसमुच्चय की समाप्त होकर तत्त्व का बोध हो जाता है । इस ग्रन्थ में वे कपिल को प्रस्तावना में इस बात का भी उल्लेख किया है कि सोमतिलकसूरिकृत दिव्य पुरुष एवं महामुनि के रूप में सूचित करते हैं -कपिलो दिव्यो हि 'षड्दर्शनसमुच्चय' की वृत्ति के अन्त में अज्ञातकृत एक कृति मुद्रित स महामुनि: (शास्त्रवार्तासमुच्चय, २३७) । इसी प्रकार वे बुद्ध को भी है । इसमें भी जैन, न्याय, बौद्ध, वैशेषिक, जैमिनीय, सांख्य और अर्हत् , महामुनिः सुवैद्य आदि विशेषणों से अभिहित करते हैं -यतो बुद्धो चार्वाक- ऐसे सात दर्शनों का संक्षेप में परिचय दिया गया है किन्तु महामुनिः सुवैद्यवत् (वही, ४६५-४६६)। यहाँ हम देखते हैं कि जहाँ अन्त में अन्य दर्शनों को दुर्नय की कोटि में रखकर जैनदर्शन को उच्च एक ओर अन्य दार्शनिक अपने विरोधी दार्शनिकों का खुलकर परिहास श्रेणी में रखा गया है । इस प्रकार इसका लेखक भी अपने को करते हैं - न्यायदर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम को गाय का बछड़ा या साम्प्रदायिक अभिनिवेश से दूर नहीं रख सका। बैल और महर्षि कणाद को उल्लू कहते हैं, वहीं दूसरी ओर हरिभद्र अपने इस प्रकार हम देखते हैं कि दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों की रचना विरोधियों के लिए महामुनि और अर्हत् जैसे सम्मानसूचक विशेषणों का में भारतीय इतिहास में हरिभद्र ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने निष्पक्ष प्रयोग करते हैं। 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में यद्यपि अन्य दार्शनिक अवधारणाओं भाव से और पूरी प्रामाणिकता के साथ अपने ग्रन्थ में अन्य दर्शनों का की स्पष्ट समालोचना है किन्तु सम्पूर्ण ग्रन्थ में ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं विवरण दिया है। इस क्षेत्र में वे अभी तक अद्वितीय हैं। मिलता जहाँ हरिभद्र ने शिष्टता की मर्यादा का उल्लंघन किया हो। इस For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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