Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): 
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 17
________________ हरिभद्र इस सम्बन्ध में सीधे तो कुछ नहीं कहते हैं, मात्र एक प्रश्नचिह्न छोड़ देते हैं कि सराग और सशस्त्र देव में देवत्व (उपास्य) की गरिमा कहाँ तक ठहर पायेगी अन्य परम्पराओं के देव और गुरु के सम्बन्ध में उनकी सौम्य एवं व्यंग्यात्मक शैली जहाँ पाठक को चिन्तन के लिए विवश कर देती है, वहीं दूसरी ओर वह उनके क्रान्तिकारी, साहसी व्यक्तित्व को प्रस्तुत कर देती है। हरिभद्र सम्बोधप्रकरण में स्पष्ट कहते हैं कि रागी-देव, दुराचारी गुरु और दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाली प्रवृत्तियों को धर्म मानना, धर्म साधना के सम्यक् स्वरूप को विकृत करना है । अतः हमें इन मिथ्या विश्वासों से ऊपर उठना होगा । इस प्रकार हरिभद्र जनमानस को अन्धविश्वासों से मुक्त कराने का प्रयास कर अपने क्रान्तदर्शी होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं । - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म वस्तुतः हरिभद्र के व्यक्तित्व में एक ओर उदारता और समभाव के सद्गुण हैं तो दूसरी ओर सत्यनिष्ठा और स्पष्टवादिता भी है। उनका व्यक्तित्व अनेक सदुणों का एक पूँजीभूत स्वरूप है। वे पूर्वाग्रह या पक्षाग्रह से मुक्त हैं, फिर भी उनमें सत्याग्रह है जो उनकी कृतियों में स्पष्टतः परिलक्षित होता है। आचार्य हरिप्रद की रचनाधर्मिता अपूर्व है, उन्होंने धर्म, दर्शन योग कथा साहित्य सभी पक्षों पर अपनी लेखनी चलाई। उनकी रचनाओं को ३ भागों में विभक्त किया जा सकता है। १. आगमग्रन्थों एवं पूर्वाचायों की कृतियों पर टीकाएँ. आचार्य हरिभद्र आगमों के प्रथम संस्कृत टीकाकार हैं। उनकी टीकाएँ अधिक व्यवस्थित और तार्किकता लिये हुये हैं। २. स्वरचित ग्रन्थ एवं स्वोपज्ञ टीकाएँ आचार्य ने जैनदर्शन और समकालीन अन्य दर्शनों का गहन अध्ययन करके उन्हें अत्यन्त स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया है। इन ग्रन्थों में सांख्य-योग, न्यायवैशेषिक, अद्वैत, चार्वाक, बौद्ध, जैन आदि दर्शनों का प्रस्तुतीकरण एवं समालोचना की है। जैन-योग के तो वे आदि प्रणेता थे, उनका योग विषयक ज्ञान मात्र सैद्धान्तिक नहीं था। इसके साथ ही उन्होंने अनेकान्तजयपताका नामक क्लिष्ट न्याय ग्रन्थ की भी रचना की । ३. कथा साहित्य आचार्य ने लोक प्रचलित कथाओं के माध्यम से धर्म प्रचार को एक नया रूप दिया है। उन्होंने व्यक्ति और समाज की विकृतियों पर प्रहार कर उनमें सुधार लाने का प्रयास किया है । समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान और अन्य लघु कथाओं के माध्यम से उन्होंने अपने युग की संस्कृति का स्पष्ट एवं सजीव चित्रांकन किया है। आचार्य हरिभद्र-विरचित ग्रन्थ-सूची निम्न है १. अनुयोगद्वार वृत्ति । २. अनेकान्तजयपताका । ३. अनेकान्तघट्ट । ४. अनेकान्तवादप्रवेश । ५. अष्टक । ६. आवश्यकनियुक्तिलपुटीका ७ आवश्यक नियुक्तिटीका । ८. उपदेशपद ९. कथाकोश १०. कर्मस्तववृत्ति ११. कुलक । । । । १२. क्षेत्रमासवृत्ति १३. चतुर्विंशतिस्तुति १४. चैत्यवंदनभाष्य । १५. चैत्यन्दनवृत्ति १६. जीवाभिगमलप्रवृत्ति । १७. ज्ञानपंचकविवरण १८. ज्ञानदिव्यप्रकरण । १९. दशवैकालिक - अवचूरि ।२० दशवैका Jain Education International · लिकबहुटीका २१. देवेन्द्रनरकेन्द्रप्रकरण २२. द्विजवदनचपेटा । २३. धर्मविन्दु । २४. धर्मलाभसिद्धि । २५. धर्मसंग्रहणी । २६. धर्मसारमूलटीका ।२७. धूर्ताख्यान २८. नंदीवृत्ति २९. न्यायप्रदेशसूत्रवृत्ति । ३० न्यायविनिश्चय । ३१. न्यायामृततरंगिणी । ३२. न्यायावतारवृत्ति । ३३. पंचनिग्रन्थी ३४. पंचलिंगी । ३५. पंचवस्तुसटीक । ३६. पंचसंग्रह । ३७ पंचसूत्रवृत्ति । ३८. पंचस्थानक । ३९. पंचाशक । ४०. परलोकसिद्धि । ४१. पिंडनियुक्तिवृत्ति ४२. प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या । ४३. प्रतिष्ठाकल्प । ४४. बृहन्मिथ्यात्वमंथन ४५. मुनिपतिचरित्र ४६. यतिदिनकृत्य । ४७. यशोधरचरित । ४८. योगदृष्टिसमुच्चय । ४९. योगबिन्दु । ५०. योगशतक । ५१. लग्नशुद्धि ५२. लोकतत्त्वनिर्णय ५३. लोकबिन्दु । ५४. विंशतिविंशिका । ५५. वीरस्तव । ५६. वीरांगदकथा । ५७. वेदबाह्यतानिराकरण । ५८. व्यवहारकल्प । ५९. शास्त्रवार्तासमुच्चयसटीक । ६० श्रावकप्रज्ञप्तिवृत्ति । ६१. श्रावकधर्मतंत्र । ६२. पद्दर्शनसमुच्चय । ६३. षोडशक ६४. समकित पचासी । ६५. संग्रहणीवृत्ति । ६६. संमत्तसित्तिरी । ६७. संबोधसित्तरी । ६८. समराइच्चकहा। ६९. सर्वज्ञसिद्धिप्रकरणसटीक ७०. स्याद्वादकुचोद्यपरिहार | किन्तु इनमें कुछ ग्रन्थ ऐसे भी जिन्हें 'भवविरहांक' समदर्शी आचार्य हरिभद्र की कृति है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। आगे हम उन्हीं कृतियों का संक्षिप्त परिचय दे रहे हैं जो निश्चित रूप से समदर्शी एवं भव-विरहांक से सूचित वाकिनीसून हरिभद्र द्वारा प्रणीत हैं। आगमिक व्याख्याएँ जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया है, हरिभद्र जैन आगमों की संस्कृत में व्याख्या लिखने वाले प्रथम आचार्य हैं। आगमों की व्याख्या सन्दर्भ में उनके निम्न ग्रन्थ उपलब्ध हैं - (१) दशवैकालिक वृत्ति, (२) आवश्यक लघुवृत्ति, (३) अनुयोगद्वार वृत्ति, (४) नन्दी वृत्ति, (५) जीयाभिगमसूत्र लघुवृत्ति (६) चैत्यवन्दनसूत्रवृत्ति (ललितविस्तरा) और (७) प्रज्ञापनाप्रदेश व्याख्या । इनके अतिरिक्त आवश्यक सूत्र बृहत्वृत्ति और पिण्डनिर्युक्तिवृत्ति के लेखक भी आचार्य हरिभद्र माने जाते है, किन्तु वर्तमान में आवश्यक वृत्ति अनुपलब्ध है। जो पिण्डनिर्युक्तिटीका मिलती है उसकी उत्थानिका में यह स्पष्ट उल्लेख है कि इस ग्रन्थ का प्रारम्भ तो हरिभद्र ने उन्होंने किया था, किन्तु वे इसे अपने जीवन काल में पूर्ण नहीं कर पाए, स्थापनादोष तक की वृत्ति लिखी थी, उसके आगे किसी वीराचार्य ने लिखी। आचार्य हरिभद्र द्वारा विरचित व्याख्याअन्यों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है १. दशवैकालिक वृत्ति यह वृत्ति शिष्यबोधिनी या बृहद्वृत्ति के नाम से भी जानी जाती है। वस्तुतः यह वृत्ति दशवैकालिक सूत्र की अपेक्षा उस पर भद्रबाहुविरचित नियुक्ति पर है। इसमें आचार्य ने दशवैकालिक शब्द का अर्थ, ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल की आवश्यकता और उसकी व्युत्पत्ति को स्पष्ट करने के साथ ही दशवैकालिक की रचना क्यों की गई इसे स्पष्ट करते हुए सय्यंभव और उनके पुत्र मनक के पूर्ण [१६] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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