Book Title: Samajik Samasyo me Samadhan me Jain Dharm ka Yogadan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 9
________________ 6. अपने स्वार्थ की सिद्धि के हेतु असत्य घोषणा मत करो। 7. न तो स्वयं चोरी करो, न चोर को सहयोग दो, चोरी का माल भी मत खरीदो। 8, व्यवसाय के क्षेत्र में नाप तौल में अप्रामाणिकता मत रखो और वस्तुओं में मिलावट मत करो। 6. राजकीय नियमों का उल्लंघन और राज्य के करों का अपवंचन मत करो। 10. अपने यौन सम्बन्धों में अनैतिक आचरण मत करो। वैश्या-संसर्ग, वैश्यावृत्ति एवं वैश्यावत्ति के द्वारा धन अर्जन मत करो। 11. अपनी सम्पत्ति का परिसीमन करो और उसे लोकहितार्थ व्यय करो। 12. अपने व्यवसाय के क्षेत्र को सीमित करो और वजित व्यवसाय मत करो। 13. अपनी उपभोग सामग्री की मर्यादा करो और उसका अति संग्रह मत करो। 14. वे सभी कार्य मत करो, जिनसे तुम्हारा कोई हित नहीं होता है किन्तु दूसरों का अहित सम्भव हो अर्थात् अनावश्यक गपशप, परनिन्दा, काम-कुचेष्टा, शस्त्र-संग्रह आदि मत करो। 15. यथा सम्भव अतिथियों की, सन्तजनों की, पीड़ित एवं असहाय व्यक्तियों की सेवा करो। अन्न, वस्त्र, आवास, औषधि आदि के द्वारा उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करो। कषाय चतुष्टय के निषेध से निम्न आचार नियम फलित होते हैं१६. क्रोध मत करो, सबसे प्रेम-पूर्ण व्यवहार करो। 17. अहंकार मत करो अपितु विनीत बनो, दूसरों का आदर करो। 18. कपटपूर्ण व्यवहार मत करो वरन् व्यवहार में निश्छल एवं प्रामाणिक रहो। 16. अविचारपूर्ण कार्य मत करो। 20. लोभ या आसक्ति मत रखो। उपर्युक्त और अन्य कितने ही आचार नियम हैं जो जैन नीति की सामाजिक सार्थकता को स्पष्ट करते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम आधुनिक सन्दर्भ में उनकी व्याख्या एवं समीक्षा करें तथा उन्हें युगानुकूल बनाकर प्रस्तुत करें। देवपितकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् / मातृदेवो भव / पितृदेवो भव / आचार्यदेवो भव / अतिथिदेवो भव / यान्यनवद्यानि कर्माणि / तानि सेवितव्यानि / नो इतराणि / यान्यस्माकं सुचरितानि / तानि त्वयोपास्यानि // देवकार्य और पितृकार्यों से प्रमाद नहीं करना चाहिये / तू मातृदेव (माता ही जिसका देव है ऐसा) हो, पितृदेव हो, आचार्यदेव हो और अतिथिदेव हो / जो अनिन्द्य कर्म हैं उन्हीं का सेवन करना चाहिये-दूसरों का नहीं। हमारे (हम गुरुजनों के) जो शुभ आचरण हैं तुझे उन्हीं की उपासना करनी चाहिये। तैत्तिरीयोपनिषद्, 1/11/2 48 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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