Book Title: Samaj Seva me Nari Ki Bhumika
Author(s): Malti Sharma
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड . . ... . ..... ........... . ........................................ के एक वरिष्ठ प्रोफेसर को जानती हैं जो अपनी सामान्य सी क्षीणकाय शोध सहायिका को समूचे विभाग की “जीवन हरियाली" कहा करते हैं । स्त्री सहयोगी होना अप्रत्यक्ष रूप से किसी भी वातावरण में व्यवस्था और संतुलन लाता है, क्रूर एवं अमानवीय वृत्तियाँ उभर नहीं पातीं, स्वतः ही पानी-पानी हो जाती हैं । हमारे क्रांतदर्शी ऋषि इस सत्य से पूर्ण परिचित थे, उन्होंने सेवाभाव के लिये जरूरी सभी मूल प्रवृत्तियों के दर्शन नारी प्रकृति में किये हैं। यजुर्वेद का ऋषि कहता है इडे रन्ते हव्वे काम्ये चन्द्र ज्योतेऽदिते सरस्वति महि विश्रुति एताते अध्ध्न्ये नामानि देवेभ्यो मा सुकृत ब्रूतात्। -यजुर्वेद ८४/.३ जो उत्तम मधुरभाषिणी है, प्रसन्न करने वाली, पूजनीय, चाहने योग्य, आनन्द देने वाली प्रकाशमान ज्योति है । दीनभावना से रहित उत्तम ज्ञान सम्पादन करने वाली धरती सी सहिष्णु और विद्याओं की ज्ञाता है । देवता भी उस नारी का पुण्य कथन करते हैं, वह नारी कभी भी मारने योग्य नहीं है। मानव-धर्म शास्त्रकार मनु ने प्रेम और शुश्रूषा करने में स्त्रियों को उत्तम माना है एवं उनके अधीन घरों को ही स्वर्ग की संज्ञा दी है अपत्यधर्मकार्याणि शुश्रूषा रतिरुत्तमा । दाराधीनस्तथा स्वर्गः पितृणात्मनश्च ।। --मनु०, अध्याय ३/६३ मानव सृष्टि के प्रारम्भ में कवि प्रसाद की नारी श्रद्धा सेवा का सार दया, माया, ममता, मधुरिमा और अगाध विश्वास, संसार-सागर को पतवार रूप में समर्पित कर विश्व की चालिका बन जाती है, वहीं भुलों का सधार, उलझनों की सुलझन, जीवन के उष्ण विचारों का शीतलोपचार और दया, माया, ममता का बल लिये शक्तिमयी करुणा है, मूर्तिवान सेवा है। - पर इस सेवामूर्ति की सेवा-भूमिका भारतीय समाज में प्रमुख समाज के लघुसंस्कार परिवार के दारे में पुत्री, बहन, पत्नी, माता, दादी, नानी, मौसी, बुआ आदि विभिन्न पारिवारिक सम्बन्धों में ही आँकी गई। इनकी सेवा-सरहदें मानव से लेकर कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों तक फैली हैं। किसी स्त्री से यदि ये रक्त वंश के सम्बन्ध नहीं भी होते तो आयु, गोत्र, गाँव के नाते मना बना लिये जाते हैं। गाँव, जवार, पुरवे, मुहल्ले में कोई न कोई ऐसी विधवा परित्यक्ता, अनाथ, एकाकी दीदी, बुआ, दादी, काकी, ताई अवश्य होती थी जो जन्ति-जापे में, हारी-बीमारी, ब्याहशादी गमी में, सब समय सब जगह अपनी मूल्यहीन अयाचित सेवाएँ देती देखी जाती थी, मगर कभी भी उन्हें ग्राम सेविका का नाम तमगा नहीं मिला। किसी न किसी रिश्ते से ही पुकारा जाता रहा। आज के नगरीय समाज में नारी का यह स्वैच्छिक अयाचित सेवा रूप एक तरह से दुर्लभ ही हो गया है। विश्व ही परिवार है। इस ग्रामीण संस्कृति के विस्तार में लोक ने सेवामूति नारी के हाथ में सुबह-सुबह बुहारी और चक्की का हथेला, दोपहर को भोजन का थाल, छाक और बिजनी, शाम को तेलभरा दीपक और रात को जल की झारी देखी सौंपी है। हर पल, हर क्षण नूतन सृजन, रक्षण, पोषण और तृप्ति देना, रोग-शोक, मलिनता, अन्धकार भगाना उसके जिम्मे पड़ा है। ___ जन्म-मरण और लगन में लोक के विस्तृत सेवक समाज की क्या स्थिति है ? यहाँ दाई है, कुम्हार के साथ कुम्हारिन, नाई के साथ नाइन, धोबी के साथ धोबिन है, भंगी के साथ भंगिन है, लुहारिन, तेलिन, तमोलिन, कोरिन, मालिन, काछिन, बारिन, चमारिन, बढ़इन हैं। खेत-खलियान, बारी-फुलबारी में, जंगलों में, घानी-धानी पर निरन्तर सेवारत । ग्राम्य समाज की कोई भी सेवा नारीरहित नहीं, अयुग्म नहीं। हमारा लोक बिना मालिन-माली की और बिना फूली डाली की कल्पना तक नहीं करता, न उसका जीवन ही बिना नारी के एक पग चल पाता है। बीज से वृक्ष तक उसे नारी की सेवा का रस सिंचन चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4