Book Title: Samadhimaran Author(s): Chandanmuni Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 2
________________ समाधिमरण २४३ . -. -.-.-.-.-.-. -. -.-.-.-.-.-.-.-.-.-. -. -. -.-.-. -. -.-.-. -. -.-.-.-. परन्तु रोते ही आना और रोते ही जाना जीवन-कला का सूचक नहीं है । अज्ञान का ही वह परिणाम है। सकाम-मरण से तात्पर्य है, इच्छापूर्वक मृत्यु का वरण करना। वासनाओं से विमुक्त होकर मौन की गोद में प्रविष्ट होना । जैनागम कहता है-इहलोक की आशंसा, परलोक की आशंसा, जीवन की आशंसा, मरण की आशंसा और कामभोग की आशंसा मुझे मरण के समय न रहे। साधक संकल्पपूर्वक कहता है कि 'मा मज्झ हुज्ज मरणंते' अर्थात् ये उपर्युक्त वासनाएं-आशंसाएं मेरे परलोक-गमन के समय न रहें । महावीर का अद्भुत चिन्तन है कि जीवनाशंसा की तरह मरण की आशंसा भी नहीं होनी चाहिए। क्योंकि रोगादि कष्टों से घबराकर कुछ मरण की भी मांग करने लग जाते हैं । साधक को उस समय जाग्रत रहने की आवश्यकता है। मृत्यु समय की पराधीनता को ध्यान में लेते हुए कबीर साहिब फरमाते हैं कबीरा ! सब ही सधी, एक रही मन मांय । कायागढ़ घेरो दियां, इज्जत रहसी के नाय ।। अर्थात्-जब कायारूपी किले पर यमदूतों का घेरा लगेगा उस समय मेरी इज्जत रहेगी या नहीं, यह चिन्तनीय है । इस स्थिति का चिन्तन करते हुए शान्तसुधारस गेयकाव्य में उपाध्याय श्री विनयविजयजी लिखते हैं प्रतापापन्नं गलितमथ तेजोभिरुदितैर्गतंधैर्योद्योगैः श्लथितमथपुष्टेन वपुषा । प्रवृत्तं तद्रव्यग्रहण-विषये बान्धवजनैर्जने बीनाशेन प्रसभमुपनीते निजशम् ।। इसी भावना का उपजीवी पद्य मैंने एक गीतिका में लिखा है मुख से कुछ कहना चाहेगा, पर न कहा जायेगा, तेज-प्रताप क्षीण होगा, तन शीतल पड़ जायेगा, अंतिम चिह्न एक ही होंगे, शाह और कंगाल के, जब बजे नगाड़े काल के, जब उठे कदम भूचाल के । प्राण पंछी उड़ने वाला, रखना खुद को संभाल के, जब बजे नगाड़े काल के । फिर भी आत्मस्थ साधकों को वहाँ किंचित् भी भय नहीं होता। वे कहते हैं--- जा मरने से जग डरे, मो मन में आनन्द । कब मरिहों कब पाइहों, पूरण परमानन्द ॥ दरअसल मौत है ही क्या ? मौत तो शरीर की है। आत्मा तो अजर-अमर है। वह तो न कभी मरी और न कभी मरेगी । परलोक-गमन को लेकर गीता में कितना मार्मिक चित्रण हुआ है वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृहणति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।। तात्पर्य यह है कि मरण तो केवल जीर्ण वस्त्रों को त्याग कर नवीन परिधान पहनने जैसा है। शरीर जीर्ण हो चुका है । इन्द्रियाँ क्षीण हो चुकी हैं । अब इनके परित्याग में फिक्र कैसा ? भय किसका ? यह तो अवश्यंभावी भाव है । सही देखा जाए तो जन्म के क्षण से ही मौत का प्रारम्भ हो जाता है । एक थैली में सौ रुपये हैं, यदि एक-एक रुपया प्रतिदिन निकाला जाय तो थैली के खाली होने में क्या सन्देह है। हाँ, अन्तिम रुपया निकलते ही वह पूर्णरूपेण शून्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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