Book Title: Sakam Dharm Sadhna
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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________________ जुगल किशोर मुख्तार सकाम धर्मसाधन : ४४६ जिस मार्ग पर अज्ञानी चलता है उसी पर ज्ञानी. दोनों का धर्माचरण समान होने पर भी, अज्ञानी अविवेक के कारण कर्म बांधता है और ज्ञानी विवेक द्वारा कर्म बंधन से छूट जाता है. ज्ञानार्णव के निम्न श्लोक में भी इसी बात को पुष्ट किया गया है : चेष्टयत्यात्मनात्मानमाज्ञानी कर्मबन्धनः । विज्ञानी मोचयत्येव प्रबुद्धः समयान्तरे । ७१७ । इससे विवेकपूर्ण आचरण का कितना बड़ा माहात्म्य है उसे बतलाने की अधिक जरूरत नहीं रहती. श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने अपने प्रवनचनसार के चारित्राधिकार में, इसी विवेक का - सम्यग्ज्ञान का -- माहात्म्य वर्णन करते हुए बहुत स्पष्ट शब्दों में लिखा है। जं अण्णाणी कम्मं सवेदी भवसयसहस्रफोडीहि । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण । ३८ । अर्थात्पज्ञानी अविवेकी मनुष्य जिस अथवा जितने ज्ञानावरणादिरूप कर्मसमूह को शतसहस्त्रकोटि भवों में करोड़ों जन्म लेकर-क्षय करता है उस अथवा उतने कर्मसमूह को ज्ञानी मनुष्य मन-वचन काय की क्रियाका निरोध कर अथवा उसे स्वाधीन कर स्वरूप में लीन हुआ उच्छ्वासमात्र में – लीलामात्र में- -नाश कर डालता है. इस से अधिक विवेक का माहात्म्य और क्या हो सकता है ? यह विवेक ही चारित्र को 'सम्यक्चारित्र' बनाता है और संसारपरिभ्रमण एवं उसके दुःख-कष्टों से मुक्ति दिलाता है. विवेक के बिना चारित्र मिथ्या चारित्र है, कोरा कायत्केश है और वह संसार - परिभ्रमरण तथा दुःख परंपरा का ही कारण है. इसी से विवेकपूर्वक अथवा सम्यग्ज्ञान के अनन्तर चारित्र का आराधन बतलाया गया है, जैसा कि श्री अमृतचन्द्राचार्य के निम्न वाक्य से प्रकट है : न हि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञानपूर्वकं लभते । शानानन्तरमुपसं पारिवाराधनं तस्मात् । ३८।पुरुषार्थसियुपाय अर्थात् - अज्ञान पूर्वक विवेक को साथ में न लेकर — दूसरों की देखा-देखी अथवा कहने सुननेमात्र से, जो चारित्र का अनुष्ठान किया जाता है वह 'सम्यक् चारित्र' नाम नहीं पाता — उसे 'सम्यक् चारित्र' नहीं कहते इसी से ( आगम में ) सम्यग्ज्ञान के अनन्तर - विवेक हो जाने पर — चारित्र के आराधन का — अनुष्ठान का –निर्देश किया गया है—- रत्नत्रयधर्म की आराधना में, जो मुक्ति का मार्ग है, चारित्र की आराधना का इसी क्रम से विधान किया गया है. श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रवचनसार में, 'चारितं खलु धम्मो' इत्यादि वाक्य के द्वारा जिस चरित्र को — स्वरूपाचरण कोवस्तुस्वरूप होने के कारण धर्म बतलाया है वह भी यही विवेकपूर्वक सम्यक्चारित्र है, जिसका दूसरा नाम साम्यभाव है, और जो मोह क्षोभ अथवा मिथ्यात्व - रागद्वेष तथा काम कोधादिरूप विभाव-परिणति से रहित आत्मा का निज परिणाम होता है" - वास्तव में यह विवेक ही उस भाव का जनक होता है जो धर्माचरण का प्राण कहा गया है. विना भावके तो क्रियाएं फलदायक होती ही नहीं है. कहा भी है : यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः । तदनुरूप भाव के बिना पूजनादिक की तप-दान जपादिक की और वहाँ तक कि दीवहणादिक की सब क्रियाएँ भी ऐसी ही निरर्थक हैं जैसे कि बकरी के गले के स्तन (थन ), अर्थात् जिस प्रकार बकरी के गले में लटकते हुए स्तन देखने में १. चारितं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समोत्ति शिद्दिट्ठो । मोह खोह विहीण परिणामो अपणो हु समो । ७ । २. देखो कल्याण मंदिर स्तोत्र का 'आकर्शितोऽपि' आदि पद्य. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainellerary.org

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