Book Title: Sakam Dharm Sadhna
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 1
________________ श्रीजुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर' सकाम धर्मसाधन लौकिक-फल की इच्छाओं को लेकर जो धर्मसाधन किया जाता है उसे 'सकाम-धर्मसाधन' कहते हैं. और जो धर्म वैसी इच्छाओं को साथ में न लेकर मात्र आत्मीय कर्तव्य समझकर किया जाता है उसका नाम निष्काम-धर्मसाधन है. निष्कामधर्मसाधन ही बास्तव में धर्मसाधन है और वही वास्तविक फल को फलता है. सकाम-धर्मसाधन धर्म को विकृत करता है, सदोष बनाता है और उससे यथेष्ट धर्मफल की प्राप्ति नहीं हो सकती. प्रत्युत उससे, अधर्म की और कभी-कभी घोर-पाप-फल की भी प्राप्ति होती है. जो लोग धर्म के वास्तविक स्वरूप और उसकी शक्ति से परिचित नहीं, जिनके अन्दर धैर्य नहीं, श्रद्धा नहीं, जो निर्बल हैं, कमजोर हैं, उतावले हैं और जिन्हें धर्म के फल पर पूरा विश्वास नहीं है, ऐसे लोग ही फलप्राप्ति में अपनी इच्छाओं की टाँगे अड़ा कर धर्म को अपना कार्य करने नहीं देते, उसे पंगु और बेकार बना देते हैं, और फिर यह कहते हुए नहीं लजाते कि धर्म-साधन से कुछ भी फल की प्राप्ति नहीं हुई है. ऐसे लोगों के समाधानार्थ-उन्हें उनकी भूल का परिज्ञान कराने के लिये ही यह निबंध लिखा जाता है, और इसमें आचार्य-वाक्यों के द्वारा ही विषय को स्पष्ट किया जाता है. श्रीगुणभद्राचार्य अपने 'आत्मानुशासन' ग्रन्थ में लिखते हैं : संकल्प्यं कल्पवृक्षस्य चिन्त्यं चिंतामणेरपि । असंकल्प्यमसंचिंत्यं फलं धर्मादवाप्यते । 'फल के प्रदान में कल्पवृक्ष संकल्प की और चिन्तामणि चिन्ता की अपेक्षा रखता है-कल्पवृक्ष विना संकल्प किये और चिन्तामणि विना चिन्ता किये फल नहीं देता, परन्तु धर्म वैसी कोई अपेक्षा नहीं रखता-वह विना संकल्प किये और विना चिन्ता किये ही फल प्रदान करता है.' जब कर्म स्वयं ही फल देता है और फल देने में कल्पवृक्ष तथा चिन्तामणि की शक्ति को भी परास्त करता है, तब फलप्राप्ति के लिये इच्छाएं करके-निदान बांधकर–अपने आत्माको व्यर्थ ही संक्लेशित और आकुलित करने की क्या जरूरत है ? ऐसा करने से तो उलटे फल-प्राप्ति के मार्ग में काँटे बोये जाते हैं, क्योंकि इच्छा फल-प्राप्ति का साधन न होकर उसमें बाधक है. इसमें संदेह नहीं कि धर्मसाधन से सब सुख प्राप्त होते हैं, परन्तु तभी तो जब धर्मसाधन में विवेक से काम लिया जाय. अन्यथा, क्रिया के-बाह्य धर्माचरण के समान होने पर भी एक को बन्धफल, दूसरे को मोक्षफल अथवा एक को पुण्यफल और दूसरे को पापफल क्यों मिलता है ? देखिये, कर्मफल की इस विचित्रता के विषय में श्रीशुभचंद्राचार्य ज्ञानार्णव में क्या लिखते हैं : यत्र बालश्चरत्यस्मिन्पथि तौव पंडितः । बालः स्वमपि बध्नाति मुच्यते तत्वविद् ध्रुवं । ७२१ । Jain EN Obrary.org

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