Book Title: Sahityakar Ki Pratibaddhata Ek Srujanatmak Tattva
Author(s): Rajeev Saksena
Publisher: Rajeev Saksena

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Page 3
________________ 20 फिलासफी एण्ड सोशल एक्शन विकता को समझने की पैनी दृष्टि मिलती है और उसके विरुद्ध मानव-संवेदनशीलता गहन बनाने तथा श्रमजीवी वर्ग के उपयुक्त प्रतिमूल्यों को जन साधारण के जीवन से खोज लेने की क्षमता प्राप्त होती है। साथ ही, इस पक्षधरतावश साहित्यकार को आम आदमी के दैनन्दिन जीवन से बहुरंगी शब्द, मुहावरे, बिम्ब और प्रतीक चुनकर अपनी भाषा और अभिव्यंजना को समृद्ध करने की सामर्थ प्राप्त होती है। ऐसा साहित्यकार शब्दकोश और शास्त्रीय ग्रन्थों के आधार पर कृत्रिम रचना नहीं करता, वास्तविक जीवन के आधार पर सजीव रचना करता है। अतः आज के वर्ग-विभक्त समाज में साहित्यकार की प्रबिद्धता साहित्य का एक अत्यन्त रचनात्मक मुख्य तत्व है जिससे उसकी रचना को नितनयी प्रेरणा, नया वस्तुतत्व, नया शिल्प और नयी अभिव्यंजना प्राप्त होती है । इसकी खोज से साहित्यशास्त्र के एक अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्धांत की खोज हुई है जिसका श्रेय श्रमजीवी जनता के दर्शन मार्क्सवाद को है। आज जब करोड़ों जन राजनीति को अपने हाथ में ले रहे हैं, जब राजनीतिक संघर्षों की परिणति से पूरे समाज के वर्तमान और भविष्य का निर्णय होता है और जब राजनीति से व्यक्तिगत जीवन तक का कोई कोना अछूता नहीं रह गया है, तब कोई साहित्यकार राजनीति से बच नहीं सकता । वास्तव में, आज के समाज में राजनीति का वही स्थान है जो मध्ययुग में धर्म का रहा है। वस्तुतः अराजनीति की भी अपनी राजनीति है, उसका अर्थ है कि अराजनीति के समर्थक, दरअसल, सताधारी शोषक वर्गों की राजनीति के विरुद्ध कोई संघर्ष नहीं चाहते । यह कोई आकस्मिक नहीं है कि साहित्यकार से अराजनीतिक प्रवृत्ति की मांग करने वाले लोग मुख्यतः श्रमजीवी वर्ग की ही राजनीति पर हमला करते हैं। कभी-कभी वे श्रमजीवी वर्ग की राजनीति के साथ ही शोषक वर्गों की राजनीति से भी अपनी वितृष्णा प्रकट करते हैं और शुद्ध साहित्यधर्मी होने की घोषणाएं करते हैं । इस वागजाल के पीछे यह नहीं छिपाया जा सकता कि यथार्थतः उनका उद्देश्य होता है आम जनता को आराजनीतिक बनाना तथा . शोषकों की राजनीतिक निरंकुशता की रक्षा करना। स्पष्ट ही, राजनीति में दिलचस्पी लिये बिना साहित्यकार अपने समय के समाज की असलियत और शोषों के दर्शन के भूठ तथा छल-छद्म को बारीकी से नहीं समझ सकता, और न ही ईमानदारी और सच्चाई से सर्वांग और पूर्ण सामाजिक सत्य के बोध से अपनी कला को गहनता प्रदान कर सकता है। अतः साहित्यकार की प्रतिबद्धता में अराजनीति के सिद्धान्त को कोई स्थान नहीं है, क्योंकि यह सिद्धांत रचनाकार को श्रमजीवी जनता से अलग कर शोषक वर्गों से जोड़ता है और कलात्मक नवोन्मेष के एक जीवन्त स्रोत से रचना को विलग कर देता है । पूंजीवादी व्यवस्था एक संगठित शक्ति है और उसको तोड़ने के लिए एक संगठित और अनुशासित शक्ति की आवश्यकता है। इसलिए श्रमजीवी वर्ग को अपनी संगठित राजनीतिक पार्टी की आवश्यकता होती है जो श्रमजीवी विचारधारा पर आधारित हो । श्रमजीवी वर्ग को निरस्त्र करने के लिए पूंजीवादी वर्ग और उसके हित साधक विचारक दल-हीन और विचारधारा-हीन प्रजातंत्र के सिद्धांत बघारते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि दल-हीन जन-प्रतिनिधि को पैसे के बल पर पूंजीवादी नियंत्रण में रखना आसान होता है और विचारधारा हीनता की स्थिति में इन्हें सुविधावादी बनाया जा सकता है । वस्तुतः सर्वहारा क्रान्ति से भयभीत पूंजीपति वर्ग ने पिछली आधी शताब्दी में, विशेषकर समाजवादी अक्टूबर क्रान्ति के बाद से,

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