Book Title: Sahityakar Ki Pratibaddhata Ek Srujanatmak Tattva Author(s): Rajeev Saksena Publisher: Rajeev Saksena View full book textPage 2
________________ साहित्यकार की प्रतिबद्धता'.. 19 लादे रखा गया था । अर्थात्, यह एक नये जीवन-दर्शन के लिए संघर्ष है । और इस संघर्ष में साहित्यकार समेत तमाम बुद्धिजीवियों के योगदान की आवश्यकता है। वस्तुतः वर्ग-विभक्त समाज में शासक वर्गों के जीवन-मूल्यों से स्वयं शोषित वर्ग भी ग्रस्त रहते हैं, इसलिए इन जीवन-मूल्यों से अपने को तथा अपनी मित्र-श्रेणियों को मुक्त करने का संघर्ष छेड़े बिना शोषित वर्ग अपनी वर्गीय एकता भी स्थापित नहीं कर सकता और न शोषक वर्गों के विरुद्ध विजय प्राप्त कर सकता है। एक सहयोगी के रूप में जब साहित्यकार सामाजिक रूपान्तर के क्रान्तिकारी संघर्ष में भाग लेने के लिए तैयार होता है तो प्रथमतः उसके लिए आवश्यक होता है कि वह श्रमजीवी वर्ग का दृष्टिकोण अपनाये और शोषक वर्गों के जीवन मूल्यों (आज की भारतीय स्थिति में परम्परागत सामन्ती मूल्यों और नवोदित पूंजीवादी मूल्यों) के उन्मूलन के संघर्ष में भाग लेकर श्रमजीवी वर्ग के जीवन मूल्यों को प्रसारित करने में अपने कला-कौशल का उपयोग करे। अतः साहित्यकार की प्रतिबद्धता का अर्थ है कि वह समाज, मानवीय सम्बन्धों, विभिन्न सामाजिक संघटनाओं को व्याख्या करने में एक वर्ग विशेष यानी श्रमजीवी वर्ग की जीवन दृष्टि अपनाये और कला माध्यम से स्वयं अपना परिष्कार करते हुए पूरे समाज का परिष्कार करने में योगदान करे। श्रमजीवी वर्ग की जीवन-दृष्टि का सम्पन्न दर्शन है मार्क्सवादी विचारधारा जो यथार्थ को मनोगत दृष्टि के विरुद्ध (मनोगत दृष्टि अनिवार्यतः परम्परागत मानस को प्रतिफलित करती है, फिर चाहे वह कितने ही नये रूप में क्यों न अभिव्यक्त की गयी हो) वस्तुगत दृष्टि से देखने-परखने की शक्ति देती है। किन्तु, यह भी सम्भव है कि कोई व्यक्ति मार्क्सवादी दर्शन पूर्णतया स्वीकार न कर सका हो, मगर मानवतावादी भावनाओं से प्रेरित होकर वह अपने को श्रमजीवी वर्ग के साथ रखता है, शोषक वर्गों के जीवन-मूल्यों पर आघात करता है और इस प्रकार श्रमजीवी श्रेणी के जीवन-मूल्यों को विकसित करने में सहायक बनता है। अतः यहां श्रमजीवी श्रेणी से भावनात्मक तादात्य या पक्षधरता का बड़ा महत्व है, लेनिन ने अपनी एक कृति “परम्परा जिसको हम तिलांजली देते हैं", में लिखा था : "कोई भी सजीव व्यक्ति एक या दूसरे वर्ग पक्ष का लिये बिना नहीं रह सकता (जब वह उन वर्गों का अन्तरसम्बन्ध समझ लेता है), उस वर्ग की सफलताओं पर आनन्द और असफलता पर दुख मनाये बिना नहीं रह सकता, या जो लोग उस वर्ग के विरुद्ध हैं, या जो लोग पिछड़े हुए विचारों का प्रसार कर. उस वर्ग के विकास में बाधाएं डालते हैं, उनके प्रति कुछ क्रुद्ध हुए बिना नहीं रह सकता, आदि।" हर्ष-विषाद, प्रेम-घृणा, असन्तोष-आक्रोश...यही तो वह सामग्री है जिससे साहित्य की विभिन्न विधाएं अपना ताना बुनती हैं । अतः साहित्यकार की प्रतिबद्धता के वस्तुत्व का मुख्य स्रोत है श्रमजीवी वर्ग के प्रति पक्षधरता। पक्षधरता एक अत्यन्त रचनात्मक तत्व है। अक्सर आम आदमी के सुख-दुख हर्षविषाद, आशा-आकांक्षा का तीव्र संवेदन ग्रहण करने के कारण साहित्यकार अपनी जीवन-दर्शन सम्बन्धी सीमाओं का अतिक्रमण कर यथार्थ का इतना बहयामी बोध प्राप्त या प्रदान करता है कि उसकी रचना युग की अत्यन्त प्रतिनिधि रचना बन जाती है। इसके अतिरिक्त श्रमजीवी वर्ग की पक्षधरता से साहित्यकार को प्रचलित जीवनमूल्यों के ऊपर चढ़े हुए सज्जनता और सभ्यता के मुलम्मे के नीचे-छिपी भौंड़ी और क्रूर वास्तPage Navigation
1 2 3 4 5