Book Title: Sahasrakoot Jin Stavan
Author(s): Mehulprabhsagar
Publisher: Mehulprabhsagar

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Page 2
________________ ध्यान करने से सिद्धि सुलभ होती है। सोलहवीं गाथा में विनती करते हुए कवि ने कहा है कि हे परमात्मन् ! अब आप मुझे अपनी शरण देकर रक्षा करना। __ स्तवन में रचना संवत् का उल्लेख नहीं किया गया है। सहस्रकूट जिन स्तवन नामक कृति खरतरगच्छ साहित्य कोश में 5989 पर उल्लिखित है। कर्ता परिचय श्री खरतरगच्छ की विद्वान् साधुसमुदाय से सुविस्तारित क्षेमकीर्ति शाखा में कविवर जिनहर्षजी 18वीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि हो गये हैं। उपा० जिनहर्षजी के पट्टधर सुखवर्धनजी हुए। इनके पट्टधर दयासिंहजी के शिष्य रूपचन्दजी दीक्षानाम महोपाध्याय रामविजयजी हुए। रामविजयजी को जिनचन्द्रसूरिजी महाराज ने वि० सं० 1756 में दीक्षा दी थी। महो० रामविजयजी का जन्म नाम रूपचन्द्र ही अधिक प्रसिद्धि में रहा। जिसका उल्लेख गौतमीय काव्य की प्रशस्ति में स्वयं ने किया है तच्छिष्योऽभयसिंहनामनृपते लब्धप्रतिष्ठो महागम्भिराऽऽर्हतशास्त्रतत्त्वरसिकोऽहं रूपचन्द्राह्वयः । प्रख्याताऽपरनामरामविजयो गच्छे स दत्ताख्यया काव्येऽकार्षमिमं कवित्वकलया श्रीगौतमीये श्रमम् ।।3।। उस समय के विद्वानों में उपाध्याय श्री रामविजयजी का मूर्धन्य स्थान था। ये उद्भट विद्वान् और साहित्यकार थे। तत्कालीन गच्छनायक जिनलाभसूरि और क्रियोद्धारक संविग्नपक्षीय प्रौढ़ विद्वान् क्षमाकल्याणोपाध्याय के ये विद्यागुरु भी थे। सं० 1821 में जिनलाभसूरि ने यतियों सहित संघ के साथ आबू की यात्रा की थी, उसमें ये भी सम्मिलित थे। इनके द्वारा निर्मित प्रमुख रचनायें निम्न हैं ग्यारह सर्गमय गौतमीय महाकाव्य-(सं० 1807) क्षमाकल्याणोपाध्याय रचित संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित है। जिनलाभसूरि की आज्ञा से रचित गुणमालाप्रकरण-(सं० 1814), चतुर्विंशतिजिन- स्तुतिपंचाशिका (सं० 1814), सिद्धान्त चंद्रिका सुबोधिनी वृत्ति पूर्वार्ध ग्रं. 6000, साध्वाचार षट्त्रिंशिका, षड्भाषामय पत्र, अभयसिंह राजा के मंत्री छाजेड़ गोत्रीय जीवराज के पुत्र मनरूप के आग्रह से सोजत में रचित भर्तृहरि-शतकत्रय बाला० (सं0 1788), अमरुशतक बालावबोध (सं0 1791), गणधर चोपड़ा गोत्रीय जगन्नाथ के लिये स्वर्णगिरि में समयसार बालावबोध (सं० 1798), कल्पसूत्र बालावबोध (सं० 1811), नेमि नाम माला भाषा टीका (सं० 1822), मुहूर्त मणिमाला, हेमव्याकरण भाषा टीका (सं0 1822), पार्श्वस्तवन सटीक, शिष्य पुण्यशील-विद्याशील के आग्रह से भक्तामर टबा, सबलसिंह पठनार्थ नवतत्त्व टबा (सं० 1834), कल्याण मन्दिर टब्बा, दुरियर स्तोत्र टबा, लघुस्तव टब्बा, शिष्य विद्याशील पठनार्थ साधु समाचारी, वीरायु 72 स्पष्टीकरण आदि अनेक प्रकरण एवं चित्रसेन पद्मावती चौपाई, फलोदी पार्श्व स्तवन, गौडी पार्श्वनाथ छंद, अल्प-बहुत्व स्तवन, नय निक्षेप विचार गर्भित श्री महावीर स्तवन, दादा गुरुदेवों के अनेक स्तवनादि प्राप्त हैं। नब्बे वर्ष की परिपक्व आयु में (सं०1834) में पाली (मारवाड़) में आपका स्वर्गवास हुआ, वहाँ आपकी चरण पादुकायें भी प्रतिष्ठित की गई। प्राप्त प्रमाणों के आधार से ज्ञात होता है कि संवत् 1810 से पूर्व आपको वाचक पद प्राप्त था और संवत् 1823 में आप उपाध्याय पद से अलंकृत हो चुके थे। संवत् 1818 से 1825 तक आपने जिनचन्द्रसूरिजी के साथ ही विचरण किया था। प्रति परिचय सहस्रकूट जिन स्तवन नामक हस्तलिखित प्रति की प्रतिलिपि राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर संग्रहालय से महेन्द्रसिंहजी भंसाली (अध्यक्ष जैन ट्रस्ट, जैसलमेर) के शुभप्रयत्न से प्राप्त हुई है। एतदर्थ वे साधुवादाह हैं। जोधपुर में इस पुस्तकनुमा हस्तलिखित प्रति क्रमांक 31225 में अनेक लघु-दीर्घ रचनाओं के साथ प्रस्तुत कृति पृष्ठ संख्या 157 पर लिखी हुई है। प्रति के हर पृष्ठ पर प्रायः उन्नीस पंक्ति और हर पंक्ति में लगभग बारह अक्षर है। अक्षर स्पष्ट है। अक्षरमिलान में आचार्य श्री कैलाशसागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा के प्रति संख्या जहाज मन्दिर • मार्च - 2017 |14

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