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श्री रामविजयोपाध्याय विरचित
सहस्रकूट जिन स्तवन
प्राचीन साहित्य
संपादक : मणिगुरु चरणरज :
आर्य मेहुलप्रभसागर
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CSIRLSES ZEBATTEREDESEDIAS
कृति परिचय विश्व विख्यात सिद्धाचल गिरिराज पर मूलनायक
श्री आदिनाथ जिनमंदिर के दांयी तरफ स्थित सहस्रकूट DALE
जिन मंदिर में इस स्तवन की रचना हुई है। रचना के MORanama
समय खरतरगच्छाधिपति आचार्य श्री जिनलाभसूरीश्वरजी महाराज उपस्थित थे, ऐसा कलश में लिखा हुआ है। कवि ने दर्शन वंदन करते हुए मन में ही इस कृति को गुंफित किया हो, ऐसा प्रत्यक्ष वर्णन अद्यपर्यन्त अप्रकाशित प्रस्तुत स्तवन में है। इस स्तवन में 1024 तीर्थंकरों की वंदना करते हुये स्तुति की गई है। सहस्रकूट में 1024 तीर्थंकरों की गणना इस प्रकार की गई है- जम्बू द्वीप स्थित भरत क्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल के 24 तीर्थंकर, अनागत काल के 24 तीर्थंकर एवं अतीत काल के 24 तीर्थंकर, इस प्रकार 72 तीर्थंकर। ऐरावत क्षेत्र के भी इसी प्रकार से 72 तीर्थंकर, इस तरह जम्बू द्वीप के कुल 144 तीर्थंकर होते हैं।
धातकी खंड में दो भरत क्षेत्र हैं वहां के तीर्थंकरों की संख्या तीन काल की अपेक्षा से 144 | इसी तरह ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों की संख्या भी 144 होती है।
दोनों संख्या मिलाकर योग 288 होता हैं। श्री सिद्धाचल गिरिराज पर स्थित
अर्धपुष्कर द्वीप में भी धातकी खंड के समान दो श्री सहस्रकूट जिनमंदिर
भरत और दो ऐरावत क्षेत्र है। उन चार क्षेत्रों के तीर्थंकरों की संख्या 288 गणना की गई है। इन सभी के नाम समवायांग सूत्र आदि आगमों में उपलब्ध होते हैं।
144+ 288 + 288 = 720
अवसर्पिणी के चौथे आरे में और उत्सर्पिणी के तीसरे आरे में जब मनुष्य की संख्या सविशेष होती है, वह उत्कृष्ट काल कहलाता है। उस समय अढी द्वीप के पांच महाविदेह क्षेत्र के 160 विजय में एक-एक तीर्थंकर विचरण करते हैं। इस प्रकार 160 तीर्थंकर होते हैं। इनके नाम सूत्र में उपलब्ध नहीं होतें। परंतु विजय को स्मृतिपथ में लाकर वंदना करता हूँ। ऐसा भाव दिखाया गया है।
सभी तीर्थंकरों के पांचों ही कल्याणक वंदनीय हैं। इस तरह एक चौबीसी के तीर्थंकरों के आश्रयी पाँच-पाँच कल्याणक 24 गुणा 5 = 120 कल्याणक होते हैं।
720+160+ 120 = 1000 वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में साक्षात विचरण कर रहे 20 तीर्थंकरों का परिगणन किया गया है।
1. ऋषभानन 2. चन्द्रानन 3. वारिषेण 4. वर्धमान ये चार शाश्वत नाम हैं। शाश्वत का तात्पर्य यह है कि भरत एवं ऐरावत क्षेत्र की दस चौबीसियों और बीस विहरमानों में इन नामवाले तीर्थंकर कहीं न कहीं होते ही हैं। इस तरह कुल 1024 तीर्थंकर होते हैं।
पन्द्रहवीं गाथा में परमात्मा का नाम रटण, वंदन और गुणगान करने से भव्यजीवों को बोधि सुलभ होती है।
KAMASHARMA
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ध्यान करने से सिद्धि सुलभ होती है।
सोलहवीं गाथा में विनती करते हुए कवि ने कहा है कि हे परमात्मन् ! अब आप मुझे अपनी शरण देकर रक्षा करना।
__ स्तवन में रचना संवत् का उल्लेख नहीं किया गया है। सहस्रकूट जिन स्तवन नामक कृति खरतरगच्छ साहित्य कोश में 5989 पर उल्लिखित है।
कर्ता परिचय श्री खरतरगच्छ की विद्वान् साधुसमुदाय से सुविस्तारित क्षेमकीर्ति शाखा में कविवर जिनहर्षजी 18वीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि हो गये हैं। उपा० जिनहर्षजी के पट्टधर सुखवर्धनजी हुए। इनके पट्टधर दयासिंहजी के शिष्य रूपचन्दजी दीक्षानाम महोपाध्याय रामविजयजी हुए। रामविजयजी को जिनचन्द्रसूरिजी महाराज ने वि० सं० 1756 में दीक्षा दी थी। महो० रामविजयजी का जन्म नाम रूपचन्द्र ही अधिक प्रसिद्धि में रहा। जिसका उल्लेख गौतमीय काव्य की प्रशस्ति में स्वयं ने किया है
तच्छिष्योऽभयसिंहनामनृपते लब्धप्रतिष्ठो महागम्भिराऽऽर्हतशास्त्रतत्त्वरसिकोऽहं रूपचन्द्राह्वयः । प्रख्याताऽपरनामरामविजयो गच्छे स दत्ताख्यया
काव्येऽकार्षमिमं कवित्वकलया श्रीगौतमीये श्रमम् ।।3।।
उस समय के विद्वानों में उपाध्याय श्री रामविजयजी का मूर्धन्य स्थान था। ये उद्भट विद्वान् और साहित्यकार थे। तत्कालीन गच्छनायक जिनलाभसूरि और क्रियोद्धारक संविग्नपक्षीय प्रौढ़ विद्वान् क्षमाकल्याणोपाध्याय के ये विद्यागुरु भी थे। सं० 1821 में जिनलाभसूरि ने यतियों सहित संघ के साथ आबू की यात्रा की थी, उसमें ये भी सम्मिलित थे। इनके द्वारा निर्मित प्रमुख रचनायें निम्न हैं
ग्यारह सर्गमय गौतमीय महाकाव्य-(सं० 1807) क्षमाकल्याणोपाध्याय रचित संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित है। जिनलाभसूरि की आज्ञा से रचित गुणमालाप्रकरण-(सं० 1814), चतुर्विंशतिजिन- स्तुतिपंचाशिका (सं० 1814), सिद्धान्त चंद्रिका सुबोधिनी वृत्ति पूर्वार्ध ग्रं. 6000, साध्वाचार षट्त्रिंशिका, षड्भाषामय पत्र, अभयसिंह राजा के मंत्री छाजेड़ गोत्रीय जीवराज के पुत्र मनरूप के आग्रह से सोजत में रचित भर्तृहरि-शतकत्रय बाला० (सं0 1788), अमरुशतक बालावबोध (सं0 1791), गणधर चोपड़ा गोत्रीय जगन्नाथ के लिये स्वर्णगिरि में समयसार बालावबोध (सं० 1798), कल्पसूत्र बालावबोध (सं० 1811), नेमि नाम माला भाषा टीका (सं० 1822), मुहूर्त मणिमाला, हेमव्याकरण भाषा टीका (सं0 1822), पार्श्वस्तवन सटीक, शिष्य पुण्यशील-विद्याशील के आग्रह से भक्तामर टबा, सबलसिंह पठनार्थ नवतत्त्व टबा (सं० 1834), कल्याण मन्दिर टब्बा, दुरियर स्तोत्र टबा, लघुस्तव टब्बा, शिष्य विद्याशील पठनार्थ साधु समाचारी, वीरायु 72 स्पष्टीकरण आदि अनेक प्रकरण एवं चित्रसेन पद्मावती चौपाई, फलोदी पार्श्व स्तवन, गौडी पार्श्वनाथ छंद, अल्प-बहुत्व स्तवन, नय निक्षेप विचार गर्भित श्री महावीर स्तवन, दादा गुरुदेवों के अनेक स्तवनादि प्राप्त हैं। नब्बे वर्ष की परिपक्व आयु में (सं०1834) में पाली (मारवाड़) में आपका स्वर्गवास हुआ, वहाँ आपकी चरण पादुकायें भी प्रतिष्ठित की गई।
प्राप्त प्रमाणों के आधार से ज्ञात होता है कि संवत् 1810 से पूर्व आपको वाचक पद प्राप्त था और संवत् 1823 में आप उपाध्याय पद से अलंकृत हो चुके थे। संवत् 1818 से 1825 तक आपने जिनचन्द्रसूरिजी के साथ ही विचरण किया था।
प्रति परिचय सहस्रकूट जिन स्तवन नामक हस्तलिखित प्रति की प्रतिलिपि राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर संग्रहालय से महेन्द्रसिंहजी भंसाली (अध्यक्ष जैन ट्रस्ट, जैसलमेर) के शुभप्रयत्न से प्राप्त हुई है। एतदर्थ वे साधुवादाह हैं। जोधपुर में इस पुस्तकनुमा हस्तलिखित प्रति क्रमांक 31225 में अनेक लघु-दीर्घ रचनाओं के साथ प्रस्तुत कृति पृष्ठ संख्या 157 पर लिखी हुई है। प्रति के हर पृष्ठ पर प्रायः उन्नीस पंक्ति और हर पंक्ति में लगभग बारह अक्षर है। अक्षर स्पष्ट है। अक्षरमिलान में आचार्य श्री कैलाशसागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा के प्रति संख्या
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________________ 79826 का सहयोग लिया गया है। एतदर्थ उनका भी आभार। श्री रामविजयोपाध्याय विरचित सहस्रकूट जिन स्तवन (ढाल आदिसर हो सोवन काय एहनी) सिद्धाचल हो तीरथराय, सहसकूट जिन वंदीयै। जिनवरना हो सहु बिंब जोइ, तिहां मन झाण सुं संधीये।।1।। सिमाजहोतीरथरायसहसा इण भरहे हो सिरि जिणराय, गय उसप्पिणि काल में। जिवदाये जिनबरना पडि नामे हो ते सह देव, ल्याऊं झाण संभाल में। 12 || हासविंजार सिननक रिसहादिक हो जिण चोवीस, वंदूं इण अवसप्पिणी। रासुसंधीय शावरहदा वलि हुइस्यै हो अणागयकाल, ते पिण वांदूं जगधणी।।3।। चोवीसे हो त्रिण्हे काल, बहुतरि 72 जिण वंदूं धडै / सिरिजिया रायगयनसप्यरिख एरवय खंड को बहुत्तरि 72 एम, जंबूदीव सह जूडे / / 4 / / কাট ওদিনদিৱৰৰ बिहुं भरहे हो धाइयसंड, सय चम्माल 144 जिण गाईये। aलावाकाएपसंतालनरि बिहुं एरवय हो सय चम्माल 144, काल त्रिण्हे करि ध्याइए।।5।। सहाधिकाजिरवावीसव इम बीजे हो संड जिणदेव, बिसे अठ्यासी 288 वंदीये। शवसप्पिणी वस्तिक इतला ही हो त्रीजे दीव, अरधपुक्खर अंभिनंदीये / / 6 / / स्पदामागयकाल पिण सहू मेलवि हो त्रिण्हे दीव, सगसय वीस 720 जिणेसरा। वरंजगधगीचोवीसह समवायांग हो सूत्र मझार, नामैं पामुं ते खरा।।7 || विरोदकाल वऊरिजमा त्रिण्ह दीवे हो पंच विदेह, इग सो साठि 160 वीजै चवै। एरवयवमहायज विहरंता हो इहां जिणनाह, समकालै इतलां हुवै।।8।। सिद्धांते हो अंग उवंग, एहना नाम न मैं लह्या। पिण वंदू हो विजय संभारि, ए जिणवर मैं सरदह्या।।9।। सरवाले हो ए सहू होय, अडसै असीय 880 तीर्थंकरा। कल्याणक हो वलि वंदनीक, चोवीसे हो जिणवरा / / 10 / / इक-इक जिण हो पण-पण वार, वंदू पंच कल्याणके। इम करता होइ एगसो बीस 120, वंदण जोग वली तिके।।11।। सह संख्या हो सहस 1000 ए होई, हिवे वलि माहाविदेह में। विहरंता हो इणहीज काल, वीस जिणंद वांदू इमे।।12।। हिव च्यारे हो जिणवर नाम, जिहिं तिह कालहिं पामीयै। सासय जिण हो तिण ए च्यार, हूं वांदू धरि सुधि हीयै / / 13 / / पाछलडी हो संख्या मेलि, सहस ऊपरि चौवीस 1024 ए। ए थापना हो श्री सिद्धसैल, सहसकूट वांद्या मए / / 14 / / जिणवर ना हो नाम जपंत, वांदता गुण गावतां / भवियण ने हो बोधि सुलभ, सिद्धि सुलभ वलि ध्यावतां / / 15 / / हिव मुझने हो सिरि जिणदेव, सरणे राखि संभालज्यो। वीनतडी हो माहरी एम, करम बंधण थी टालिज्यो / / 16 / / / / कलश / / इम सयल जिणवर दुरिय दुहहर, सिद्ध कूटै संथव्या। देवाधिदेव तिलोय सामी, अंतरजामी विनव्या।। जिनलाभसूरि सुरीस सांनिधि, रामविजय पाठक कहे। ए तवन भणतां श्रवण सुणता, सयल जिनयात्रा लहै।।17 || ।।इति सहस्रकूट जिन स्तवनम् / / सं. 1854 माघ वदि 12 शुक्रे। -जिनहरि विहार धर्मशाला, तलेटी रोड़, पालीताना 364270, गुजरात 15| जहाज मन्दिर * मार्च - 2017