Book Title: Sadhvi Jivan Ek Chintan Author(s): Sushil Jain Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 3
________________ वैदिक काल में नारी को मन्त्रोच्चारण का भी अधिकार नहीं था। अतः भिक्षुणी बनने का भी प्रावधान नहीं मिलता है। चतुर्विध धर्म-संघ में भिक्षुणी संघ और श्राविका संघ को स्थान देकर जैन निर्ग्रन्थ परम्परा ने स्त्री और पुरुष की समकक्षता को प्रमाणित किया है। भगवान् पार्शवनाथ और भगवान् महावीर के तीर्थंकर परम्परानुसार बिना किसी हिचकिचाहट के भिक्षुणी अर्थात् साध्वी संघ की स्थापना की गई है। जबकि समकालीन बुद्ध को नारी के सम्बन्ध में संकोच रहा है। बौद्धकाल में बुद्ध ने अपने संघ की स्थापना के साथ नारी को भिक्षुणी बनने का अधिकार नहीं दिया किन्तु प्रमुख शिष्य आनन्द तथा गौतमी के अति आग्रह पर ५ वर्ष पश्चात् भिक्षुणी संघ की स्थापना हुई । " वर्तमान सन्दर्भ में, साध्वी जीवन" एक चिन्तन जैन संघ में प्रागैतिहासिक काल वृद्धिगत संख्या में अनवरत् गतिमान है। फिर भी साध्वी जीवन श्रमण - समुदाय से अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण बन गया है। ऐसा क्यों? जब जब भी इस प्रश्न को उठाया गया, तब तब अधिकृत पुरुष वर्ग द्वारा साध्वी जीवन को, नारी के अबला जीवन से सन्दर्भित कर उसका स्तर कम कर दिया गया । किन्तु पुरुष यह क्यों भूल जाता है कि श्रमणी वर्ग ने श्रमण की ही भाँति तीर्थंकर पद को भी प्राप्त किया है। श्वेताम्बर परम्परा में १९ वें तीर्थंकर मल्लीनाथ प्रभु इसके ज्वलन्त उदाहरण है। सभी तीर्थंकरों में मल्लीनाथ (मल्ली कुमारी) ही एक थे, जिन्होंने संयम ग्रहण के प्रथम दिन ही केवल्यज्ञान प्राप्त कर लिया था । - वर्तमानकाल तक सदैव ही साध्वी परम्परा, साधु समाज से ३६,००० श्रमणियों एवं ३,००००० (३ लाख) श्राविकाओं का नेतृत्व कर महासती चन्दनबाला ने इस बात को प्रमाणित किया कि नारी में नेतृत्व की क्षमता पुरुष से कम नहीं है। श्रमण बाहुबली के हृदय में पलने वाले अहं को चूर चूर करने वाली ब्राह्मी, सुन्दरी भी श्रमणी ही थी । पुरुषों की ही भाँति क्षमा लेने तथा देने वाली महासती चन्दनबाला एवं मृगावती दोनों ने अविलम्ब केवलज्ञान प्राप्त कर लिया था। आगमिक व्याख्या काल में साध्वियों को गणिनी प्रवर्तनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका आदि पद प्रदान किये जाते थे। भिक्षुणी संघ की समुचित आन्तरिक व्यवस्था साध्वियों के हाथ में थी किन्तु धीरे-धीरे आगमिक व्याख्या साहित्य काल में भिक्षुणी संघ पर आचार्य का नियंत्रण बढ़ता गया। वर्तमान में चातुर्मास, प्रायश्चित, शिक्षा, सुरक्षा आदि सभी क्षेत्रों में आचार्य का प्रभुत्व बढ़ता ही जा रहा है। व्यवहार सूत्र के अनुसार आचार्य के अनुशासन में मुनिपद के अनुसार ही श्रमणी व्यवस्था हेतु आचार्या, उपाध्यायिका, गणावच्छेदिका एवं प्रवर्तनी का होना आवश्यक है। किन्तु पुरुष हृदय की पदलिप्सा के कारण महासती चन्दनबाला के पश्चात् आचार्या याकिनी महत्तरा के अतिरिक्त किसी साध्वी को आचार्या नियुक्त नहीं किया गया। Jain Education International बौद्ध भिक्षु संघ में बुद्ध ने नारी को प्रवेश की आज्ञा नहीं दी। जब शिष्य आनन्द ने गौतमी की बलवती इच्छा देखकर बुद्ध से अपने संघ में सम्मिलित करने का आग्रह किया तब बुद्ध ने स्पष्ट बताया “मेरे संघ में नारी के सम्मिलित हो जाने पर अब मेरा धर्म शासन जितने समय तक चलना है, उससे आधे समय तक ही चलेगा।" साथ ही बुद्ध ने नवदीक्षित भिक्षु को चिरदीक्षिता भिक्षुणी द्वारा नमस्कार किये For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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