Book Title: Sadhvi Jivan Ek Chintan Author(s): Sushil Jain Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 1
________________ Vocadertica8860048086868083 साध्वी जीवन : एक चिन्तन 8885604598280380899398382888888888888888888888 • दीक्षित डा. सुशील जैन "शशि" 'नारी' प्रकति की एक अनपम कति है। सौन्दर्य की साक्षात समज्ज्वला है। आनन्द की अधिष्ठाता है, पवित्रता की प्रतिमा है, मंगल की मूर्ति है एवं समता का संकलन है शक्ति "संचय का सामर्थ्य, उन्नति का उत्साह तथा साध्य प्राप्ति की योग्यता है। नारी न+अरि है अर्थात् नारी वह है जिसके कोई शत्रु नहीं है। समाज की स्वस्थ-व्यवस्था में नारी और पुरुष की समान आवश्यकता है। पुरुषों के मानस में नारी के प्रति अबला मानी जाने वाली मिथ्या धारणा है। नारी अबला नहीं सबला है। हम नारी की गोद से वीर, तेजस्वी, ज्ञानी एवं महान पुरुष के जन्म की चाह करते है. किन्त यदि सन्तान वीर और तेजस्वी पाना है तो नारी को अबला नहीं सबला बनाना होगा। याद रखिये अबला नारी से सबल सन्तान का जन्म नहीं हो सकेगा। सियारनी से शेर का जन्म सम्भव नहीं। शेर का जन्म सिंहनी से होगा। नारी एवं पुरुष के मध्य यदि श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ दृष्टि से मूल्यांकन किया जाय तो राम के साथ समकालीन रावण, सीता के साथ शूर्पणखा, कृष्ण के ही युग में कंस, युधिष्ठिकर के साथ दुर्योधन, भगवान महावीर के साथ गौशालक, गांधी के साथ गौडसे, महासती चन्दनबाला के साथ सेठानी मूला एवं भक्त प्रहलाद के साथ हिरण्य कश्यप का स्मरण हो आता है। अनुभव के आधार पर पुरुषों की अपेक्षा 'नारी' अधिक सहनशील एवं शक्ति सम्पन्न ठहरी है। मैराथन दौड़ के ओलम्पिक खेलों में १५ वर्ष के अन्तर्गत महिलाओं ने ४० मिनिट की कमी की पुरुष धावक मात्र २ मिनिट ही कम कर सके हैं। बर्फीली हवाओं में हिमांक से ५० डिग्री से नीचे के तापमान में ३३ वर्षीया महिला सूसर नबुकर ने १०४९ मील कुत्तागाड़ी दौड़ लगाकर तीसरी बार जीती थी। (१) अनुशासन क्षमता के क्षेत्र में हम स्व. प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी को देख सकते हैं, जिसने पुरुषों की अपेक्षा लम्बे समय तक भारत की विशाल जनता का कुशल संचालन किया है। जैन इतिहास में १९ वें तीर्थकर भगवान् मल्लीनाथ का जीवन नारी की पूर्णता का सजीव उदाहरण है। जैन धर्म के मूल सिद्धान्तों के प्रगतिशील दर्शन ने नारी को यथोचित सम्मान दिया है। धार्मिक क्षेत्र में भी नर और नारी की साधना में कोई भेद नहीं रखा है। चतुर्विध संघ में नारी को समान स्थान दिया है। साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका। जैन संस्कृति के श्वेताम्बर परिप्रेक्ष्य में पुरुषों की तरह नारी भी अष्ठ कर्मों को क्षय करके मोक्ष जा सकती है, जिसका प्रारम्भिक ज्वलन्त उदाहरण भगवान् ऋषभदेव की माता मरूदेवी है। भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर ने आध्यात्मिक अधिकारों में कोई भेद नहीं रखा। उन्होंने पुरुषों की भाँति नारी को भी दीक्षित बनाया है। परिणामत: उन सभी की श्रमण सम्पदा से श्रमणी सम्पदा अधिक रही है। १ - अभिनन्द ग्रंथ "श्रमणी" खण्ड ५ जयपुर (४३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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