Book Title: Sadhutva ke Adarsh Pratiman Acharya Hastimalji Author(s): Mahavirmal Lodha Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 1
________________ साधुत्व के आदर्श प्रतिमान डॉ० महावीरमल लोढ़ा सामायिक और स्वाध्याय के प्रबल प्रेरक प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म० सा० को मैं साधुत्व का प्रदर्श प्रतिमान मानता हूँ । बचपन में मुझे आचार्य श्री का सान्निध्य अपने पिता श्री और दादा श्री के माध्यम से प्राप्त हुआ किन्तु जीवन के संघर्षों में इतना उलझ गया कि फिर आचार्य श्री का सान्निध्य मैं प्राप्त नहीं कर सका । बचपन से ही मैं यह मानता रहा हूँ कि आचार्य श्री साधुत्व के आदर्श प्रतिमान के रूप में इस युग के महान् जैनाचार्य प्रतिष्ठित हुए । भगवान महावीर ने साधु की सही परिभाषा दी है । उनके अनुसार साधु सिंह के समान पराक्रमी, हाथी के समान स्वाभिमानी, वृषभ के समान भद्र, मृग के समान सरल, वायु के समान निस्संग, सूर्य के समान तेजस्वी, सागर के समान गम्भीर, मेरु के समान निश्चल, चन्द्रमा के समान शीतल, आकाश के समान निरवलम्ब मोक्ष की खोज में रहता है । प्राचार्य श्री इस निष्कर्ष पर पूर्णत: खरे उतरते हैं । आचार्य श्री साधुत्व के चरम शिखर थे जिन्होंने आने वाली पीढ़ियों के लिए साधुत्व का आदर्श स्थापित किया । इस फक्कड़ संत में कर्म, ज्ञान और भक्ति की त्रिवेणी प्रवाहित होती थी । आचार्य श्री ने अपने जीवन और कृतित्व के आधार पर यह बता दिया कि केवल सिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता, ओम् का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, कुश चीवर धारण करने से कोई तपस्वी नहीं होता, वह समता से श्रमण होता है, तप से तपस्वी होता है और गुणों से साधु होता है | आचार्य श्री ने अपने जीवन के आधार पर बता दिया कि साधु वह है जो लाभ और लाभ में, सुख और दुःख में, जीवन और मरण में, निन्दा और प्रशंसा में, मान और अपमान में समभाव रखता है । जो देह आदि ममता से रहित है, मान आदि कषायों से पूरी तरह मुक्त है और जो आत्मा में ही लीन है, वही सच्चा साधु है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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