Book Title: Sadhucharya ki Pramukh Paribhashik Shabdavali Arth aur Abhipraya Author(s): Alka Prachandiya Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf View full book textPage 2
________________ ५४६ अनेक संदर्भ उपलब्ध हैं जब पतित से पतित माने जाने वाले जिज्ञासुओं ने दीक्षा ग्रहण कर अपने जीवन को पवित्र और पावन बनाया है। दीक्षा के लिए वय की दृष्टि से भी कोई विशेष निर्देश नहीं दिया गया है। चाहे बालक हो चाहे हो (तरुण) वयस्क फिर चाहे हो वृद्ध, जिसमें भावों की प्रबलता और वैराग्य का बलवती | वेग हो वही साधकेच्छु दीक्षा ग्रहण कर सकता है। भारत की अन्य अनेक संस्कृतियों में संन्यास लेने के लिए जीवन का उत्तरार्द्ध समय अत्यन्त उपयोगी और सार्थक स्वीकारा गया है। जैन संस्कृति ने इस दिशा में एक उत्तम उत्कान्ति उत्पन्न कर दी। दीक्षा लेने के लिए यहाँ वयस्क अथवा तरुण काल ही श्रेष्ठ और श्रेयस्कर निरूपित किया है। इस समय शारीरिक ऊर्जा उत्कर्ष को प्राप्त होती है तभी इन्द्रियों का उपयोग भोग से हटाकर योग की ओर रूपान्तरित करना चाहिए। जब इन्द्रियाँ शिथिल हों तब साधना करने की सम्भावना शेष नहीं रहती और संयम का भी संयोग प्रायः रहता नहीं, विवशता का परिणाम संयम नहीं, कहा जा सकता। इसीलिए आगम साहित्य में ही नहीं परवर्ती साहित्य में भी बाल दीक्षा का निषेध नहीं है। दरअसल बुभुक्षु व्यक्ति नहीं अपितु मुमुक्ष व्यक्ति ही दीक्षा ग्रहण करने की पात्रता रखता है जिसमें चंचल चित्त की एकाग्रता उत्पन्न करने की शक्ति और सामर्थ्य विद्यमान हो। उसे अपनी खोज स्वयं करनी होती है वह किसी यात्रा का अनुकरण कर लाभान्वित नहीं हो सकता। जागतिक जीवन उत्कर्ष के लिए पराई नकल की जा सकती है पर आध्यात्मिक उन्नति और उन्नयन के लिए किसी प्रकार की नकल उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकती। इसके लिए साधक को अपने अन्तरंग की ऊर्जा को उद्दीप्त करना होता है अन्तरंग का अन्वेषण अथवा अन्तर्यात्रा तेज को तेजस्वी बनाता है। दीक्षा इसी काम को सम्पन्न करती कराती है। प्रतिक्रमण-प्रतिक्रमण साधु वर्या का महत्त्वपूर्ण शब्द है। इसके अभ्यास करने से साधक का विचलित चरण सदाचरण में परिणत हो जाते हैं। प्रति+क्रमण शब्दों के संयोग से प्रतिक्रमण शब्द का गठन हुआ है। प्रति शब्द का अर्थ है-प्रतिकूल और क्रमण शब्द का तात्पर्य हैपद निक्षेप प्रतिकूल अर्थात् प्रत्यागमन, पुनः लीटना ही वस्तुतः प्रतिक्रमण है। प्रमाद तज्जन्य अज्ञानतावश जब साधक अपनी स्वभाव दशा से लौट कर विभाव दशा में चला जता है और पुनः चिन्तवन कर जब वह पुनः स्वभाव सीमाओं में प्रत्यागमन करता है। तो वह कहलाता है - प्रतिक्रमण। प्रतिक्रमण वस्तुतः पुनरावृत्ति है। सूक्ति रूप में कहें तो कहा जा सकता है-पाप से आप में लौटना प्रतिक्रमण है। आगम के वातायन से प्रतिक्रमण जन्य अनेक शब्द निसृत हुए हैं, जिनमें वारणा, प्रतिचरण, प्रतिहरणा, निवृत्ति, निन्दा गर्हा, तथा 7 இரு இaluation Ger P&q उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ शुद्धि आदि अधिक उल्लेखनीय हैं। इन सभी पर्यायवाची शब्दों का प्रयोजन और प्रयोग प्रायः समान ही है अशुद्धि से विशुद्धि की ओर उन्मुख होना । आक्रमण में बाहरी आग्रह है जबकि प्रतिक्रमण में आन्तरिक अनुग्रह । प्रयोग और उपयोग की दृष्टि से प्रतिक्रमण के दो भेद किए जा सकते हैं 9. द्रव्य प्रतिक्रमण २. भाव प्रतिक्रमण द्रव्य प्रतिक्रमण वह जिसमें साधक एक स्थान पर आसीन होकर बिना उपयोग के यश प्राप्ति की अभिलाषा से प्रतिक्रमण करता है। भाव प्रतिक्रमण में साधक अन्तमानस में अपने कृत पापों के प्रति ग्लानि अनुभव करता है। वह इस गिरावट के लिए चिन्तन करता है, भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो अतः वह दृढ़तापूर्वक संकल्प करता है ताकि भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो। भाव प्रतिक्रमण की उपयोगिता इतस्ततः असंदिग्ध है। जीवन मांजने की कला का अपरनाम है-प्रतिक्रमण । सावधानी पूर्वक दिन भर रोजनामचा क्रियाकलाप का तल पटतीलनाप करके साधक अभाव को जानता है और उचित सुधार और उद्धार कर वह सद् वृत्तियों का अभ्यास करता है ताकि जीवन शोधन में कोई अभाव शेष न रह जाय । प्रतिक्रमण में अपनी गिरावट उसके परिहार का पुनर्विचार तथा विकास का विवेकपूर्वक आचरण करना होता है। मुखवस्त्रिका - श्वेताम्बर साधु समुदाय के अन्तर्गत दो प्रमुख परम्पराएँ हैं- स्थानकवासी और दूसरी है तेरापंथी ये दोनों साधु परम्पराएँ मुखवस्त्रिका का प्रयोग और उपयोग करती हैं। यह वस्त्रिका या पट्टिका श्वेत रंग की होती है। श्रमण- साधु जीवन के प्रत्येक चरण में अहिंसा की प्रधानता रहती है। शरीर के भीतर गया श्वांस प्रायः उष्ण हो जाता है और जब वह वार्तालाप के साथ बाहर निकलता है तब बाहरी शीतल वातावरण में वायुकायिक जीवों पर अपनी ऊष्मा से प्रहार करता है उनको निरर्थक कष्ट होता है किं बहुना कभी-कभी विराधना भी हो जाती है। एक तो इसलिए भ्रमण मुँहवस्त्रिका' का प्रयोग करता है। दूसरे साधु अटवीन्मुख होता है वह सदा पदयात्री रहता है अतः मार्ग में रजकण उनके मुँह द्वार से भीतर चले जाते हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद सिद्ध होते हैं यह 'मुँह वस्त्रिका' का प्रयोग इस दिशा में अत्यन्त उपयोगी प्रमाणित होता है। इसके अतिरिक्त चिन्तन, ध्यान और आराधना काल में भी इसका प्रयोग एकाग्रता में सहायक सिद्ध होता है। मंगली पाठ - श्रमण अथवा साधु चर्या सदा स्व-पर कल्याण में प्रवृत्त रहती है। तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा निर्दिष्ट देशना का अभ्यासPage Navigation
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