Book Title: Sadhucharya ki Pramukh Paribhashik Shabdavali Arth aur Abhipraya
Author(s): Alka Prachandiya
Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf

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Page 1
________________ 02: अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर साधुचर्या की प्रमुख पारिभाषिक शब्दावलि अर्थ और अभिप्राय आस्था और व्यवस्था की दृष्टि से श्रमण संस्कृति का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। सम्यक् श्रम-साधना पर आधृत स्वावलम्बन और गुण प्रधान आस्था श्रमण संस्कृति का मुख्य लक्षण है। इस संस्कृति से अनुप्राणित होकर प्रत्येक प्राणी अपने श्रम के द्वारा स्वयं कर्म करता है और अपने किए गए कर्म-फल का स्वयं ही भोक्ता होता है। इस प्रसंग में उसे किसी सत्ता अथवा शक्ति की कृपा की आकांक्षा कभी नहीं रहती। किसी की कृपा का आकांक्षी होने पर उसे स्वावलम्बी बनने में बाधा उत्पन्न होती है। श्रमण सदा स्वावलम्बी होता है। वह अपनी सूझ और समझ पूर्वक अपनी ही श्रम-साधना के बलबूते पर उत्तरोत्तर आत्म-विकास को उपलब्ध करता है। इस प्रकार श्रमण स्वयमेव चरम पुरुषार्थ का सम्पादन कर स्व-पर कल्याण में प्रवृत्त होता है। स्वावलम्बन प्रधान आस्था की अपनी व्यवस्था होती है। इस व्यवस्था में किसी सत्ता अथवा शक्ति की वंदना अथवा उपासना करने का कोई विधान नहीं है। आत्मिक गुणों का स्मरण करना तथा उन्हें जान और पहिचान कर उनकी वंदना और उपासना करना उसे सर्वथा अभीष्ट रहा है। इस प्रक्रिया से साधक अपने अन्तरंग में प्रतिष्ठित आत्मिक शक्ति अथवा सत्ता के गुणों का जागरण और उजागरण करता है। अपने आत्मिक गुणों को अनुभव कर वह स्वयं को साधता है और साधुचर्या का अनुपालन करता है। साधुचर्या का आत्म विकास तीन चरण में सम्पन्न होता है-पथा १. साधु चरण २. उपाध्याय चरण ३. आचार्य चरण साधु के तीन रूप पंच परमेष्ठी में अंतर्मुक्त हैं। इनकी वंदना करने से व्यक्ति साधक के आत्म-विकास की स्वयमेव बन्दना है। साधुचर्या आत्मिक साधना की प्राथमिक प्रयोगशाला है। यहाँ जागतिक जीवन से विरक्त होकर साधक अपनी साधना सम्पन्न करता है। साधुचर्या से सम्बन्धित अनेक शब्दावलि आज प्रायः लाक्षणिक हो गयी है। शब्द एक शक्ति है और अभिव्यक्ति उस शक्ति का परिणाम । साधु-चर्या का प्रत्येक शब्द आज अपनी आर्थिक सम्पदा की दृष्टि से विशिष्ट हो गया है। उस शाब्दिक अर्थ वैशिष्ट्य की अपनी परिभाषा है। उसी शब्दावलि से सम्बन्धित यहाँ कुछेक शब्दों की परिभाषा को स्पष्ट करना वस्तुतः हमारा मूलाभिप्रेत है। विवेच्य शब्दावलि की संक्षिप्ति तालिका निम्नलिखित है-यथा poorn D. Goo Do 91849948 १. गोचरी ३. प्रतिक्रमण ५. मंगली पाठ ७. वर्षावास ९. सिंगाड़ा -श्रीमती डॉ. अलका प्रचंडिया (एम. ए. (संस्कृत), एम.ए. (हिन्दी), पी-एच. डी. ) २. दीक्षा ४. मुखवस्त्रिका ६. रजोहरण ८. समाचारी ५४५ १०. संथारा अब उपर्यंकित अकारादि क्रम से तालिका का क्रमशः अध्ययन-अनुशीलन करेंगे। गोवरी - गोचरी वस्तुतः आगमिक शब्द है। इसका आदिम रूप 'गोयर' है। गोबर का दूसरा रूप गोयरग्ग भी प्राचीन आर्य ग्रन्थों में उपलब्ध है। इसका अर्थ है गाय की तरह भिक्षा प्राप्त्यर्थ परिभ्रमण करना। गाय घास चरते समय स्वयं जाग्रत रहती है। वह घास को इस प्रकार चरती है ताकि उसका मूलवंश सुरक्षित रहे। इसी प्रकार श्रमण-साधु किसी भी गृहस्थ के यहाँ जाकर उसे बिना कष्ट दिए यथायोग्य भिक्षा ग्रहण करता है। के चित्त में गोचरी प्राप्त्यर्थ जाते समय सम्पन्न अथवा साधु विपन्न, कुलीन अथवा मलीन गृहस्वामी का विचार नहीं उठता। वह सरस और विरस भोज्य पदार्थ का भी ध्यान नहीं करता। वह निर्विकार भाव से शुद्धतापूर्ण भोज्य सामग्री को भ्रमर की भाँति अल्पमात्रा में ग्रहण करता है, ताकि किसी गृहस्थ पर उसके गृहीत आहार का किसी प्रकार से भार-भाव उत्पन्न न होने पावे। साधु अथवा श्रमण मन शास्त्र का ज्ञाता होता है। उसे अपने नियमानुकूल संस्कृति से अनुप्राणित भोजन ग्रहण करना होता है। अन्य शुद्धियों के साथ भाव-शुद्धि सर्वोपरि है। गृहपति के अन्तर्मानस को वह सावधानी पूर्वक पढ़ता है। अन्यथा भाव होने पर वह उसके यहाँ गोचरी हेतु प्रवेश नहीं करता। दर असल श्रमण साधु की भिक्षा पूर्णतः अहिंसक और विशुद्ध होती है। उसके द्वारा बयालीस दोषों से रहित भोजन ही ग्रहण किया जाता है। दीक्षा-दीक्षा शब्द में समस्त इच्छाओं और वासनाओं के दहन करने का विधान विद्यमान है। जागतिक जीवन की नश्वरता तथा निस्सारता के प्रति वैराग्यमुखी प्राणी दीक्षा के लिए दस्तक देता है। उसके मनमानस में संसार और संसारीजनों के प्रति आसक्ति एवं मोह के त्याग का भाव उत्पन्न होता है। प्रश्न यह है कि आर्हती दीक्षा ग्रहण करने की पात्रता किसमें है ? आगम के आदेशानुसार जिसमें वैराग्य की तीव्र भावना हो वह मुमुक्षु सहज रूप में दीक्षा धारण कर सकता है। प्राचीन ग्रन्थों में

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