Book Title: Sadhu Rahe Tin Visho Se Savdhan
Author(s): Hastimal Acharya
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 3
________________ 175 | 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी आदि को पुनःपुनः पखालने वाला है, उसको सुगति प्राप्त होना दुर्लभ है।" सुहसायगस्स समणस्स सायाउलगस्स निगामसाइस्स। उच्छोलणा-पहोअस्स दुल्लहा सुगई तारिसगस्स / / __ -दशवैकालिक, अध्ययन 4, गाथा 26 अतः साधक को ब्रह्म रक्षा के लिये सदा सादे रूप में रहना चाहिये। विभूषा के निमित्त जीव विराधना करते हुए भिक्षु चिकने कर्म बांधता है और फिर उस कर्मभार से संसार-सागर में गिर जाता है। विभूसा वतियं भिक्खू कम्मं बंधइ चिक्कणं। संसार-सायरे घोरे जेणं पडइ दुरुत्तरे।। दशवैकालिक 6, गाथा 26 भाव-विभूषा को ग्रहण करके लोक और लोकोतर दोनों को गौरवशाली बनावें। हम देखते हैं कि कुछ संत-सतीजन युगधर्म के प्रवाह में आत्म-धर्म एवं आज्ञा धर्म को भूल रहे हैं। कदाचित् वे समझ रहे होंगे कि उज्ज्वल वेशभूषा से धर्म की प्रभावना होती है, बड़े-बड़े नेता अधिकारी लोगों से सहज ही मिलना होता है, पर उनको समझना चाहिए कि प्रभावना त्याग, तप और विद्वत्ता से होती है। महात्मा गाँधी अर्द्धनग्न दशा में भी देश-विदेश के आकर्षण-केन्द्र बने हुए थे। उनका आत्मबल और त्याग ही प्रभावना का कारण था। उनके अर्द्धनग्न वेष और खादी के कपड़ों में भी बड़ेबड़े साहब झुका करते थे। हम श्रमणों को तो लोगों के वन्दन की भी अपेक्षा नहीं हैं। फिर दूसरों को अच्छा लगेगा या नहीं, इसकी परवाह क्यों की जाये? नीति में भी 6 कारणों से व्रतधारियों का पतन बताया है: ताम्बूलं देहसत्कारः स्त्री कथेन्द्रियपोषणम् / नृपसेवा, दिवानिद्रा, यतीनां पतनानि षट्।। __ 1. ताम्बूल, 2. शरीर का सत्कार, 3. स्त्री-कथा, 4. इन्द्रिय-पोषण, 5. राज-सेवा, 6. दिवानिद्रा-ये छह यतियों के पतन में हेतु है। इसलिये शास्त्रकारों ने कहा है- “विभूषा का त्याग करे, ब्रह्मचर्य में रमण करने वाला भिक्षु शृंगार व शोभा के लिए शरीर का मंडन भी नहीं करे बंभचेररओ भिक्खू, सिंगारत्थं न धारय / / -उत्तराध्ययन,16, गाथा 1 साधना का दूसरा ज़हर है- स्त्री-संसर्ग। ब्रह्मचारी पुरुष के लिये जितना स्त्री-संसर्ग वर्जनीय है, उतना सती साध्वी नारी के लिये पुरुष का संग और सहवास भी वर्जन योग्य है। ब्रह्मचर्य की रक्षा के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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