Book Title: Sadhu Rahe Tin Visho Se Savdhan Author(s): Hastimal Acharya Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 1
________________ साधु रहे तीन विषों से सावधान आचार्यप्रवर श्री हस्तीमल जी म.सा. श्रमण- जीवन में आत्म-शोधनपूर्वक सजगता के साथ साधना में आगे बढ़ा जाता है तथा बाधक निमित्तों से दूर रहना होता है। आचार्य हस्ती ने दश्वैकालिक सूत्र के आधार पर श्रमण को 1. विभूषा, 2. स्त्री - संसर्ग और 3. प्रणीतरस भोजन इन तीन विषों से दूर रहने की प्रभावी प्रेरणा की है, क्योंकि साधनाशील जीवन में ये तीनों बाधक एवं घातक हैं। यह प्रेरणा प्रत्येक साधु-साध्वी की साधना में हितकर है। -सम्पादक 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 173 साधक की साधना जिन कारणों से पुष्ट हो वही अमृत और जिन बातों से साधना क्षीण हो, नष्ट हो, वही साधना का विष है । जीवन - प्रेमी सदा विष से बचना चाहता है, अन्यथा उसे जीवन से हाथ धोना पड़े। इसी प्रकार साधक के संयम-जीवन के लिये भी कुछ हलाहल विष है। साधक थोड़ी सी गफलत कर जाय तो उसका संयम-जीवन दूषित और अंत में नष्ट-भ्रष्ट हो सकता है। संसार की विभिन्न साधनाओं में जैन साधक की साधना अपना विशिष्ट स्थान रखती है। जैन साधक केवल त्याग की ऊँची, प्रतिज्ञा लेकर या वेष बदलकर ही नहीं रहता, वइ इन्द्रिय और कषायों का मुंडन कर साधना में ज्ञानपूर्वक तन, मन एवं वाणी को कसता है। वह निरारंभ और अपरिग्रही होकर पूर्ण वीतरागता की ओर आगे बढ़ता है। उसके साधक जीवन में पहली शर्त सदाचार सम्पन्न होना और दूसरी शर्त आरम्भ - परिग्रह के फंदे से बचे रहना है। जैन साधु दोनों शर्तों को पूर्ण रूप से निभाता है और जरा भी कहीं स्खलना न हो जाय इसके लिये सदा जागरूक रहता है। सच्चा साधक विषय कषाय को जीतने की साधना करता है और जरा भी गलती हुई तो स्वयं ही अपना आलोचक बनकर शुद्धि करता है। शास्त्र स्पष्ट कहा है कि जो व्यक्ति साधक बनकर भी निद्रा में व्यस्त रहता है और खा-पीकर सुख से सोया पड़ा रहता है, शास्त्र की भाषा में वह पाप श्रमण है । जे केई पव्वइ निद्दासीले पगामसो । भुच्चा पिच्चा सुहं सुवइ पावसमणेत्ति दुच्चइ ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 17, गाथा - 3, इस गिरावट का कारण प्रमाद है। इसलिये संयमी को प्रमाद से बचने का खास ध्यान दिलाया गया है। Jain Educationa International आज हम लोग जब व्रत लेते हैं तो बड़े उमंग और उत्साह से मार्ग ग्रहण करते हैं । परन्तु दीक्षित For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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