Book Title: Sadhna Ke Do Adarsh Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf View full book textPage 3
________________ उन सब बानों को एकत्र किया जाए, तो मेरु पर्वत के समान एक गगनचुम्बी ऊँचा ढेर हो सकता है, परन्तु आत्मा के अन्तर्तम में एक इंच भी परिवर्तन नहीं आया। इस प्रकार के अंध साधु जीवन से तो गृहस्थ ही अच्छा है, जो सेवा, अहिंसा और करुणा के मार्ग पर चल रहा है। गृहस्थ जीवन में अनेक संघर्ष पाते हैं। उस पर परिवार, समाज आदि के रूप में विभिन्न प्रकार के उत्तरदायित्वों का बोझ रहता है। परन्तु, यदि उसमें भी ईमानदारी है, सेवा है, त्याग है और दृष्टि में निलिप्तता है, तो वह वेषधारी साधु से अच्छा है, बहुत अच्छा है। भगवान् महावीर ने साधना का मानदण्ड वेष को कभी नहीं माना है, भावना को माना है। अगर मानव सच्चे अर्थ में साध बना. सही दष्टि मिली, जीवन में त्याग और वैराग्य उतरा, लक्ष्य की झाँकी मिली, तो उन गृहस्थों से वह बहुत ऊँचा है, बहुत महान् है, जो कि काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि के सघन अंधकार में जीवन गुजार रहे है। अतः निष्कर्ष यह निकला कि चाहे साधु हो या गहस्थ, यदि प्रामाणिकता और ईमानदारी से अपने लक्ष्य की ओर चल रहा है, तो ठीक है, अन्यथा दोनों की ही स्थिति कोई महत्त्व की नहीं है। हम कह चुके हैं कि साधना का मूल्यांकन साधु या गृहस्थ के नाम से नहीं होता, वेष से नहीं होता, आत्मा से होता है। चाहे छोटा हो या बड़ा, जिसमें ईमानदारी है, प्रामाणिकता है, वही श्रेष्ठ है, वहीं ऊँचा है। दो समानान्तर रेखाएँ: साधु और गृहस्थ को भगवान के पुत्र के रूप में मान कर उन्हें परस्पर बड़ा और छोटा भाई बताया है। इस पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि बड़ा भाई बनना अच्छा होता है या छोटा भाई ? दोनों में कौन बड़ा है, कौन छोटा? कौन अच्छा है, कौन बुरा ? महाभारत में पाण्डवों का उदाहरण है--युधिष्ठिर बड़े थे और दुर्योधन छोटा । एक ओर बलदेव बड़े थे और दूसरी ओर श्रीकृष्ण छोटे । यदि बड़ा बनना हो तो युधिष्ठिर का आदर्श अपनायो और यदि छोटा बनना हो तो श्रीकृष्ण का । कृष्ण ने छोटे होकर भी जो महत्वपूर्ण कार्य किये, वे उन्हें महान् बना देते हैं। बड़ा भाई बनना चाहें, तो राम का उदाहरण भी सम्मुख है। बड़ा बनने के साथ उसका उत्तरदायित्व भी बहुत बड़ा हो जाता है। छोटे भाई के रूप में लक्ष्मण और भरत का चरित्र भी बहत अनुकरणीय है। इन उज्ज्वल आदर्श परम्परानों के विपरीत एक दूसरा मलिन पक्ष भी हमारे समक्ष आता है। मुगल इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं-जहाँ छोटे भाई ने बड़े भाई को और बड़े भाई ने छोटे भाई को खून से नहलाया है। राजा श्रेणिक का भी उदाहरण सामने आता है कि जहाँ पुत्र ने पिता को कारागृह में बन्द कर दिया। इधर राम का भी प्रादर्श है कि जिसने सिर्फ पिता के आदेश का पालन करने के लिए ही चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया। पिता-पुत्र के आदर्श, भाई-भाई के आदर्श और पति-पत्नी के प्रादर्श की सार्थकता इसी में है कि उन्हें जीवन में प्रामाणिकता के साथ उतारा जाए। आदर्श की श्रेष्ठता देश और काल से, जाति और वंश परम्परा से, बड़े छोटे से नहीं नापी जाती, बल्कि वह नापी जाती है अन्दर की, सच्चाई से, अन्दर की प्रामाणिकता से । इन आदर्शों का पालन तभी हो सकता है, जब जीवन में भय और प्रलोभनों पर विजय पाने की शक्ति हो। प्राणी मात्र इन्हीं दो पाटों के बीच पिसता पा रहा है। जितने विग्रह हुए हैं, लड़ाइयाँ हुई हैं, उन सबके मूल में ये ही दो कारण रहे हैं। जिस साधक ने इन पर विजय प्राप्त करली, वह निश्चय ही अपनी साधना के लक्ष्य को सफल कर चुका है। संसार के बड़े-बड़े सम्राट उसके चरणों में नतमस्तक हो जाते हैं। यह त्यागियों का शासन अजेय शासन है। वह कभी समाप्त नहीं हो सकता। वहाँ छोटे-बड़े की प्रतिष्ठा नहीं, त्याग की प्रतिष्ठा होती है। जिसका त्याग अधिक तेजस्वी होता है, वही महान् होता है। यदि साधना का वह तेज गृहस्थ जीवन में प्रदीप्त हो सकता है, तो वह जीवन भी महान् हो सकता है। यदि साधु-जीवन में प्रकाशमान होता है, तो वह भी महान् है । साधना के दो प्रादर्श १३५ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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