Book Title: Rushibhashit Ek Adhyayan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf View full book textPage 3
________________ २०५ है कि यह ग्रन्थ जैनधर्म एवं संघ के सुव्यवस्थित होने के पूर्व लिखा गया था । इस ग्रन्थ के अध्ययन से स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है कि इसके रचनाकाल तक जैन संघ में साम्प्रदायिक अभिनिवेश का पूर्णतः अभाव था । मंखलि गोशालक और उसकी मान्यताओं का उल्लेख हमें जैन आगम सूत्रकृतांग. भगवती११ और उपासकदशांग २ में तथा बौद्ध परम्परा के सुत्तनिपात, दीघनिकाय के सामञ्जफलसुत्त'३ आदि में मिलता है । सूत्रकृतांग में यद्यपि स्पष्टतः मंखलि गोशालक का उल्लेख नहीं है, किन्तु उसके आर्द्रक नामक अध्ययन में नियतिवाद की समालोचना अवश्य है । यदि हम साम्प्रदायिक अभिनिवेश के विकास की दृष्टि से विचार करें तो भगवती का मंखलि गोशालक वाला प्रकरण सूत्रकृतांग और उपासकदशांग की अपेक्षा भी पर्याप्त परवर्ती सिद्ध होगा। सूत्रकृतांग, उपासकदशांग और पालि-त्रिपिटक के अनेक ग्रन्थ मंखलि गोशालक के नियतिवाद को प्रस्तुत करके उसका खण्डन करते हैं । फिर भी जैन आगम ग्रन्थों की अपेक्षा सुत्तनिपात में मखति गोशालक की गणना बुद्ध के समकालीन छ: तीर्थङ्करों में करके उनके महत्त्व और प्रभावशाली व्यक्तित्व का वर्णन अवश्य किया गया है१४. किन्तु पालि-विण्टिक के प्राचीनतम ग्रन्थ सुत्तनिपात की अपेक्षा भी ऋषिभापित में उसे अर्हत ऋषि कह कर सम्मानित किया गया है । अत : धार्मिक उदारता की दृष्टि से ऋषिभाषित की रचना पालि त्रिपिटक की अपेक्षा भी प्राचीन है । क्योकि किसी भी धर्मसंघ के सुव्यवस्थित होने के पश्चात् ही उसमें साम्प्रदायिक अभिनिवेश का विकास होता है । ऋषिभाषित स्पष्ट रूप से यह सूचित करता है कि उसकी रचना जैन परम्परा में साम्प्रदायिक अभिनिवेश आने के बहुत पूर्व हो चुकी थी । केवल आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर शेष सभी जैन आगम ग्रन्थों में धार्मिक अभिनिवेश न्यूनाधिक रूप में अवश्य परिलक्षित होता है । अत: ऋषिभाषित केवल आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़ शेष सभी जैनागमों से प्राचीन सिद्ध होता है । भाषा, छन्द - योजना आदि की दृष्टि से भी यह आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध और सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के मध्य में ही सिद्ध होता है । बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में प्राचीनतम ग्रन्थ सुत्तनिपात है१५ किन्तु उसमे भी वह उदारता नहीं है जो ऋषिभाषित में है । त्रिपिटक साहित्य में ऋषिभाषित में उल्लेखित कुछ ऋषियों यथा नारद १६. असितदेवल ७. पिंग१८. मंखलिपुत्त'९.संजय (वेलठ्ठिपुत्त)२०. वर्धमान (निग्गंटु नायपुत्त)२१. कुम्मापुत्तर २. आदि के उल्लेख हैं. किन्तु इन सभी को बुद्ध से निम्न ही बताया गया है-दूसरे शब्दों में वे ग्रन्थ भी साम्प्रदायिक अभिनिवेश से मुक्त नहीं हैं. अत : यह उनका भी पूर्ववर्ती ही है ।ऋषिभाषित में उल्लेखित अनेक गद्यांश और गाथायें भाव, भाषा और शब्दयोजना की दृष्टि से जैन परम्परा के सूत्रकृतांग. उत्तराध्ययन, दशवैकातिक और बौद्ध परम्परा के सुत्तनिपात, धम्मपद आदि प्राचीन ग्रन्थों में पाई जाती हैं । अत : उनकी रचना-शैली की अपेक्षा भी यह पूर्ववर्ती ही सिद्ध होता है । यद्यपि यह तर्क दिया जा सकता है कि यह भी संभव है कि ये गाधाएँ एवं विचार बौद्ध त्रिपिटक साहित्य एवं जैन ग्रन्थ उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक से ऋषिभाषित्त में गये हों, किन्तु यह बात इसलिए समुचित नहीं है कि प्रथम तो ऋषिभाषित की भाषा, छन्द-योजना आदि इन ग्रन्थों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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