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ऋषिभाषित : एक अध्ययन
* प्रो० सागरमल जैन ऋषिभाषित (इसिभासियाई) अर्धमागधी जैन आगम साहित्य का एक प्राचीनतम ग्रन्थ है । वर्तमान में जैन आगमों के वर्गीकरण की जो पद्धति प्रचलित है, उसमें इसे प्रकीर्णक ग्रन्थों के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जाता है । दिगम्बर परम्परा में १२ अंग और १४ अंगबाह्य ग्रन्थ माने गये हैं किन्तु उनमें ऋषिभाषित का उल्लेख नहीं है । श्वेताम्बर जैन परम्परा में स्थानकवासी और तेरापंथी, जो ३२ आगम मानते हैं, उनमें भी ऋषिभाषित का उल्लेख नहीं है । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में ११ अंग. १२ उपांग, ६ छेदसूत्र, ४ मूलसूत्र, रचूलिकासूत्र और १० प्रकीर्णक.ऐसे जो ४५ आगम माने जाते हैं, उनमें भी १० प्रकीर्णकों में हमें कहीं ऋषिभाषित का नामोल्लेख नहीं मिलता है । यद्यपि नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में जो कातिक सूत्रों की गणना की गयी है उनमें ऋपिभाषित का उल्लेख है ।' आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य में अंग-बाह्य ग्रन्थों की जो सूची दी है उसमें सर्वप्रथम सामायिक आदि ६ ग्रन्थों का उल्लेख है और उसके पश्चात दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, दशा (आचारदशा). कल्प, व्यवहार, निशीथ और ऋषिभाषित का उल्लेख है । हरिभद्र आवश्यनियुक्ति की वृत्ति में एक स्थान पर इसका उल्लेख उत्तराध्ययन के साथ करते हैं। और दूसरे स्थान पर 'देविन्दत्यओ' नामक प्रकीर्णक के साथ । हरिभद्र के इस भ्रम का कारण यह हो सकता है कि उनके सामने ऋषिभाषित (इसिभासियाई) के साथ-साथ ऋषिमण्डलस्तव (इसिमण्डलत्याउ) नामक ग्रन्थ भी था, जिसका उल्लेख आचारांग-चूर्णि में है और उनका उद्देश्य ऋषिभाषित को उत्तराध्ययन के साथ और ऋषिमण्डलस्तव को देविन्दत्थओ' के साथ जोड़ने का होगा। यह भी स्मरणीय है कि इसिमण्डल (ऋषिमण्डल) में न केवल ऋपिभाषित के अनेक ऋषियों का उल्लेख है, अपितु उनके इसिभासियाई में जो उपदेश और अध्ययन है उनका भी संकेत है । इससे यह भी निश्चित होता है कि इसिमण्डल में तो क्रम और नामभेद के साथ ऋषिभाषित के लगभग सभी ऋषियों का उत्लेख मिलता है । इसिमण्डल का उल्लेख आचारांग-चूर्णि इसिणामकित्तणं इसिमण्डलत्थउ' (पृष्ठ ३८४) में होने से यह निश्चित ही उसके पूर्व (७वीं शती के पूर्व) का ग्रन्थ है । विद्वानों को इस सम्बन्ध में विशेष रूप से चिन्तन करना चाहिए । इसिमण्डल के सम्बन्ध में यह मान्यता है कि वह तपागच्छ के धर्मघोषसूरि की रचना है : किन्तु मुझे यह धारणा भ्रान्त प्रतीत होती है. क्योंकि ये १४वीं शती के आचार्य हैं । वस्तुत: इसिमण्डल की भाषा से भी ऐसा लगता है कि यह प्राचीन ग्रन्थ है और इसका लेखक ऋषिभाषित का ज्ञाता है । आचार्य जिनप्रभ ने विधिमार्गप्रपा में तप आराधना के साथ आगमों के स्वाध्याय की जिस विधि का वर्णन किया है, उसमें प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित का उल्लेख करके प्रकीर्णक अध्ययनक्रमविधि को समाप्त किया है ।५ इसप्रकार वर्गीकरण की प्रचलित पद्धति में ऋषिभाषित की गणना प्रकीर्णक सूत्रों में की जाती है ।
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प्राचीन काल में जैन परम्परा में इसे एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता था । आवश्यकनियुक्ति में भद्रबाहु ऋषिभाषित पर भी नियुक्ति लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं, वर्तमान में यह नियुक्ति उपलब्ध नहीं होती है । आज तो यह कहना भी कठिन है कि यह नियुक्ति लिखी भी गई थी या नहीं । यद्यपि इसिमण्डल' जिसका उल्लेख आचारांगचूर्णि में है. इससे सम्बन्धित अवश्य प्रतीत होता है । इन सबसे इतना तो सिद्ध हो जाता है कि ऋषिभाषित एक समय तक जैन परम्परा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ रहा है । स्थानांगसूत्र में इसका उल्लेख प्रश्नव्याकरणदशा के एक भाग के रूप में हुआ है । समवायांगसूत्र इसके ४४ अध्ययनों का उल्लेख करता है । जैसा कि पूर्व में हम सूचित्त कर चुके हैं नन्दीसूत्र, पाक्षिकसूत्र आदि में इसकी गणना कालिकसूत्रों में की गई है । आवश्यनियुक्ति इसे धर्मकथानुयोग का ग्रन्थ कहती है (आवश्यक-नियुक्ति हरिभद्रीय वृत्ति : पृ० २०६) 1 ऋषिभाषित का रचनाकाल
पह ग्रन्थ अपनी भाषा, छन्द-योजना और विषयवस्तु की दृष्टि से अर्धमागधी जैन आगम ग्रन्थों में अतिप्राचीन है । मेरी दृष्टि में यह ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध से किंचित् परवर्ती तथा सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक जैसे प्रचीन आगम ग्रन्थों की अपेक्षा पूर्ववर्ती सिद्ध होता है । मेरी दृष्टि में इसका वर्तमान स्वरूप भी किसी भी स्थिति में ईसवी पूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी से परवर्ती सिद्ध नहीं होता है । स्थानांग में प्राप्त सूचना के अनुसार यह ग्रन्थ प्रारम्भ में प्रश्नव्याकरणदशा का एक भाग था ; स्थानांग में प्रश्नव्याकरणदशा की जो दस दशाएं वर्णित हैं, उसमें ऋषिभाषित का भी उल्लेख है। समवायांग इसके ४४ अध्ययन होने की भी सूचना देता है । अत: यह इनका पूर्ववर्ती तो अवश्य ही है । सूत्रकृतांग में नमि, बाहुक. रामपुत्त. असित देवल, द्वैपायन, पराशर आदि ऋषियों का एवं उनकी आचारगत मान्यताओं का किंचित निर्देश है । इन्हें तपोधन और महापुरुष कहा गया है । उसमें कहा गया है कि पूर्व कालिक ऋषि इस (आर्हत प्रवचन) में 'सम्मत' माने गये हैं । इन्होंने (सचित्त) बीज और पानी का सेवन करके भी मोक्ष प्राप्त किया था । ९ अतः पहला प्रश्न पही उठता है कि इन्हें सम्मानित रूप में जैन परम्परा में सूत्रकृतांग के पहले किस ग्रन्थ में स्वीकार किया गया है ? मेरी दृष्टि में केवल ऋषिभाषित ही एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें इन्हें सम्मानित रूप से स्वीकार किया गया है । सूत्रकृतांग की गाथा का ‘इह-सम्मता' शब्द स्वयं सूत्रकृतांग की अपेक्षा ऋषिभाषित के पूर्व अस्तित्व की सूचना देता है । ज्ञातव्य है कि सूत्रकृतांग और ऋषिभाषित दोनो में जैनेतर परम्परा के अनेक ऋषियों यथा असित देवल, बाहुक आदि का सम्मानित रूप में उल्लेख किया गया है । यद्यपि दोनो की भाषा एवं शैली भी मुख्यतः पद्यात्मक ही है, फिर भी भाषा की दृष्टि से विचार करने पर सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा भी ऋषिभाषित की अपेक्षा परवर्तीकाल की लगती है । क्योंकि उसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत के निकट है. जबकि ऋषिभाषित की भाषा कुछ परवर्ती परिवर्तन को छोड़कर प्राचीन अर्धमागधी है । पुनः जहाँ सूत्रकृतांग में इतर दार्शनिक मान्यताओं की समालोचना की गयी है वहाँ ऋषिभाषित में इतर परम्परा के ऋषियों का सम्मानित रूप में ही उल्लेख हुआ है । यह सुनिश्चित सत्य
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है कि यह ग्रन्थ जैनधर्म एवं संघ के सुव्यवस्थित होने के पूर्व लिखा गया था । इस ग्रन्थ के अध्ययन से स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है कि इसके रचनाकाल तक जैन संघ में साम्प्रदायिक अभिनिवेश का पूर्णतः अभाव था । मंखलि गोशालक और उसकी मान्यताओं का उल्लेख हमें जैन आगम सूत्रकृतांग. भगवती११ और उपासकदशांग २ में तथा बौद्ध परम्परा के सुत्तनिपात, दीघनिकाय के सामञ्जफलसुत्त'३ आदि में मिलता है । सूत्रकृतांग में यद्यपि स्पष्टतः मंखलि गोशालक का उल्लेख नहीं है, किन्तु उसके आर्द्रक नामक अध्ययन में नियतिवाद की समालोचना अवश्य है । यदि हम साम्प्रदायिक अभिनिवेश के विकास की दृष्टि से विचार करें तो भगवती का मंखलि गोशालक वाला प्रकरण सूत्रकृतांग और उपासकदशांग की अपेक्षा भी पर्याप्त परवर्ती सिद्ध होगा। सूत्रकृतांग, उपासकदशांग और पालि-त्रिपिटक के अनेक ग्रन्थ मंखलि गोशालक के नियतिवाद को प्रस्तुत करके उसका खण्डन करते हैं । फिर भी जैन आगम ग्रन्थों की अपेक्षा सुत्तनिपात में मखति गोशालक की गणना बुद्ध के समकालीन छ: तीर्थङ्करों में करके उनके महत्त्व और प्रभावशाली व्यक्तित्व का वर्णन अवश्य किया गया है१४. किन्तु पालि-विण्टिक के प्राचीनतम ग्रन्थ सुत्तनिपात की अपेक्षा भी ऋषिभापित में उसे अर्हत ऋषि कह कर सम्मानित किया गया है । अत : धार्मिक उदारता की दृष्टि से ऋषिभाषित की रचना पालि त्रिपिटक की अपेक्षा भी प्राचीन है । क्योकि किसी भी धर्मसंघ के सुव्यवस्थित होने के पश्चात् ही उसमें साम्प्रदायिक अभिनिवेश का विकास होता है । ऋषिभाषित स्पष्ट रूप से यह सूचित करता है कि उसकी रचना जैन परम्परा में साम्प्रदायिक अभिनिवेश आने के बहुत पूर्व हो चुकी थी । केवल आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर शेष सभी जैन आगम ग्रन्थों में धार्मिक अभिनिवेश न्यूनाधिक रूप में अवश्य परिलक्षित होता है । अत: ऋषिभाषित केवल आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़ शेष सभी जैनागमों से प्राचीन सिद्ध होता है । भाषा, छन्द - योजना आदि की दृष्टि से भी यह आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध और सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के मध्य में ही सिद्ध होता है ।
बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में प्राचीनतम ग्रन्थ सुत्तनिपात है१५ किन्तु उसमे भी वह उदारता नहीं है जो ऋषिभाषित में है । त्रिपिटक साहित्य में ऋषिभाषित में उल्लेखित कुछ ऋषियों यथा नारद १६. असितदेवल ७. पिंग१८. मंखलिपुत्त'९.संजय (वेलठ्ठिपुत्त)२०. वर्धमान (निग्गंटु नायपुत्त)२१. कुम्मापुत्तर २. आदि के उल्लेख हैं. किन्तु इन सभी को बुद्ध से निम्न ही बताया गया है-दूसरे शब्दों में वे ग्रन्थ भी साम्प्रदायिक अभिनिवेश से मुक्त नहीं हैं. अत : यह उनका भी पूर्ववर्ती ही है ।ऋषिभाषित में उल्लेखित अनेक गद्यांश और गाथायें भाव, भाषा और शब्दयोजना की दृष्टि से जैन परम्परा के सूत्रकृतांग. उत्तराध्ययन, दशवैकातिक और बौद्ध परम्परा के सुत्तनिपात, धम्मपद आदि प्राचीन ग्रन्थों में पाई जाती हैं । अत : उनकी रचना-शैली की अपेक्षा भी यह पूर्ववर्ती ही सिद्ध होता है । यद्यपि यह तर्क दिया जा सकता है कि यह भी संभव है कि ये गाधाएँ एवं विचार बौद्ध त्रिपिटक साहित्य एवं जैन ग्रन्थ उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक से ऋषिभाषित्त में गये हों, किन्तु यह बात इसलिए समुचित नहीं है कि प्रथम तो ऋषिभाषित की भाषा, छन्द-योजना आदि इन ग्रन्थों
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की अपेक्षा प्राचीनकाल की है और आचारांग एवं सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध तथा सुत्तनिपात के अधिक निकट है । दूसरे जहाँ ऋपिभाषित में इन विचारों को अन्य परम्पराओं के ऋषियों के सामान्य सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया गया है. वहाँ बौद्ध त्रिपिटक साहित्य और जैन साहित्य में इन्हें अपनी परम्परा से जोड़ने का प्रयत्न किया गया है । उदाहरण के रूप में आध्यात्मिक कृषि की चर्चा ऋषिभाषित२३ में दो बार और सुत्तनिपात२४ में एक बार हुई है, किन्तु जहाँ सुत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं कि मैं इसप्रकार की आध्यात्मिक कृषि करता हूँ, वहाँ ऋषिभापित का ऋषि कहता है कि जो भी इसप्रकार की कृषि करेगा वह चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शूद्र हो, मुक्त होगा । अत : ऋषिभाषित आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर जैन और बौद्ध परम्परा के अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा प्राचीन ही सिद्ध होता है ।
भाषा की दृष्टि से विचार करने पर हम यह भी पाते हैं कि ऋषिभाषित में अर्धमागधी प्राकृत का प्राचीनतम रूप बहुत कुछ सुरक्षित है । उदाहरण के रूप में ऋषिभाषित में आत्मा के लिए 'आता' शब्द का प्रयोग हुआ है, जबकि जैन अंग आगम साहित्य में भी अत्ता, अप्पा, आदा, आया, आदि शब्दों का प्रयोग देखा जाता है जो कि परवर्ती प्रयोग है । 'त' श्रुति की बहुलता निश्चित रूप से इस ग्रन्थको उत्तराध्ययन की अपेक्षापूर्ववर्ती सिद्ध करती है, क्योंकि उत्तराध्ययन की भाषा में 'त' के लोप की प्रवृति देखी जाती है । ऋषिभाषित में जाणति, परितप्पति, गच्छति, विज्जति, वति, पवत्तति आदि रूपों का प्रयोग बहुलता से मिलता है । इससे यह सिद्ध होता है कि भाषा और विषयवस्तु दोनों ही दृष्टि से यह एक पूर्ववर्ती ग्रन्थ है।
अगन्धक कुल के सर्प का रूपक हमें उत्तराध्ययन२५. दशवैकालिक२६ और ऋषिभाषित२७ तीनों में मिलता है । किन्तु तीनों स्थानों के उल्लेखों को देखने पर यह स्ष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है कि ऋषिभाषित का यह उल्लेख उत्तराध्ययन तथा दशवैकालिक की अपेक्षा अत्यधिक प्राचीन है क्योंकि ऋषिभाषित में मुनि को अपने पथ से विचलित न होने के लिए इसका मात्र एक रूपक के रूप में प्रयोग हुआ है, जबकि दशवैकालिक और उत्तराध्ययन में यह रूपक राजीमती और रथनेमि की कथा के साथ जोड़ा गया है ।
___ अत : ऋषिभाषित सुत्तनिपात, उत्तराध्ययन और दशवकालिक की अपेक्षा प्राचीन है । इसप्रकार ऋषिभाषित आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध का परवर्ती और शेष सभी अर्धमागधी आगम साहित्य का पूर्ववर्ती ग्रन्थ है । इसीप्रकार पालि त्रिपिटक के प्राचीनतम ग्रन्थ सुतनिपात की अपेक्षा भी प्राचीन होने से यह ग्रन्थ सम्पूर्ण पालि त्रिपिटक से भी पूर्ववर्ती
जहाँ तक इसमें वर्णित ऐतिहासिक ऋषियों के उल्लेखों के आधार पर काल-निर्णय करने का प्रश्न है वहाँ केवल वज्जीयपुत्त को छोड़कर शेष सभी ऋषि महावीर और बुद्ध से या तो पूर्ववर्ती हैं या उनके समकालिक हैं । पालि-त्रिपिटक के आधार पर वज्जीयपत्त (वात्सीयपुत्र) भी बुद्ध के तधुवयस्क समकालीन ही है-वे आनन्द के निकट थे।
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वज्जीपुत्रीय सम्प्रदाय भी बुद्ध के निर्वाण की प्रथम शताब्दी में ही अस्तित्व में आ गया था। अत : इनका बुद्ध के लघुवयस्क समकालीन होना सिद्ध है । अतएव ऐतिहासिक दृष्टि से भी ऋषिभाषित बुद्ध और महावीर के निवार्ण की प्रथम शताब्दी में ही निर्मित हो गया होगा। यह सम्भव है कि इसमें बाद में कुछ परिवर्तन हुआ हो । मेरी दृष्टि में इसके रचनाकाल की पूर्व सीमा ईसा पूर्व ५वीं शताब्दी और अन्तिम सीमा ई०पू० ३शती के बीच ही है । मुझे अन्त: और बाहय साक्ष्यों में कोई भी ऐसा तत्त्व नहीं मिला. जो इसे इस कालावधि से परवर्ती सिद्ध करे । दार्शनिक विकास की दृष्टि से विचार करने पर भी हम इसमें न तो जैन सिद्धान्तों का और न बौद्ध सिद्धान्तों का विकसित रूपपाते हैं। इसमें मात्र पंचास्तिकाय और अष्टविध कर्म का निर्देश है । यह भी सम्भव है कि ये अवधारणाएँ पाश्र्वापत्यों में प्रचलित रही हों और वहीं से महावीर की परम्परा में ग्रहण की गई हों । परिषह, कषाय आदि की अवधारणाएँ तो प्राचीन ही हैं । ऋषिभाषित के वात्सीयपुत्र, महाकाश्यप, सारिपुत्र आदि बौद्ध ऋषियों के उपदेश में भी केवल बौद्ध धर्म के प्राचीन सिद्धान्त सन्ततिवाद, क्षणिकवाद आदि ही मिलते हैं । अत : यह ग्रन्थ पालि-त्रिपिटक से भी प्राचीन है ।
ऋषिभाषित की रचना के सम्बन्ध में प्रो० शुद्भिग एवं अन्य विद्वानों का मत है कि यह मूलत : पार्व की परम्परा में निर्मित हुआ होगा, क्योंकि उस परम्परा का स्पष्ट प्रभाव प्रथम अध्याय में देखा जाता है, जहाँ ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को एक साथ मानकर उसे चातुर्याम की व्यवस्था के अनुरूप ढाला गया है ।२८ पुन : पार्श्व का विस्तृत अध्याय भी उसी तथ्य को पुष्ट करता है । दूसरा इसे पार्श्व की परम्परा का मानने का एक आधार यह भी है कि पार्श्व की परम्परा अपेक्षाकृत अधिक उदार थी। उसकी अन्य परिव्राजक और श्रमण परम्पराओं से आचार-व्यवहार आदि में भी अधिक निकटता थी । पापित्यों के महावीर के संघ में प्रवेश के साथ यह ग्रन्थ महावीर की परम्परा में आया और उनकी परम्परा में निर्मित दशाओं में प्रश्नव्याकरणदशा के एक भाग के रूप में सम्मिलित किया गया । ऋषिभाषित के ऋषियों की परम्परा---
__ जैन परम्परा के अनुसार इन ४५ ऋषियों में २० अरिष्टनेमि के काल के, १५ पार्व के काल के और शेष १० महावीर के काल के माने गये हैं ।२९ इसिमण्डल भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है । यदि हम इनके काल का यह वर्गीकरण इस आधार पर करें कि प्रथम २० अरिष्टनेमि के काल के, उसके बाद के १५ पार्श्व के काल के और अन्त में १० महावीर के काल के हैं तो यह वर्गीकरण उचित नहीं बैठता; क्योंकि फिर २९वें क्रम में स्थित वर्धमान को पार्श्व के काल का और ४० वें क्रम पर स्थित द्वैपापन को महावीर के काल का मानना होगा । जबकि स्थिति इससे भित्र ही है । द्वैपायन अरिष्टनेमि के काल के हैं और वर्धमान स्वयं महावीर ही है। अत: यह मानना समुचित नहीं होगा कि जिस क्रम से ऋषिभाषित में इन ऋषियों का उल्लेख हुआ है उस क्रम से ही वे अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर के काल में विभाजित होते हैं । कौन ऋषि किस काल का है ? इसके सन्दर्भ में पुनर्विचार की आवश्पकता है । शुब्रिग ने स्वयं भी इस सम्बन्ध में स्पष्ट संकेत नहीं किया है । ऋषिभाषित
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के ऋपियों की पहचान का एक प्रयत्न शुब्रिग ने अपनी 'इसिभासियाई' की भूमिका में किया है । ३° उनके अनुसार याज्ञवल्क्य, बाहुक (नत). अरुण, महाशालपुत्र या आरुणि
और उद्दालक स्पष्ट रूप से औपनिषदिक परम्परा के प्रतीत होते हैं । इसके साथ ही पिंग, ऋषिगिरि और श्रीगिरि इन तीनों को ब्राह्मण परिव्राजक और अम्बड को परिव्राजक कहा गया है । इसलिए ये चारों भी ब्राह्मण परम्परा से सम्बन्धित हैं । यौगन्धरायण, जिनका अम्बड से संवाद हुआ है, वे भी ब्राह्मण परम्परा के ऋषि प्रतीत होते हैं । इसीप्रकार मधुरायण. आर्यायण, तारायण (नारायण) भी ब्राह्मण परम्परा से सम्बन्धित लगते हैं । अंगिरस और वारिषेण कृष्ण भी ब्राह्मण परम्परा से सम्बन्धित माने जाते हैं । शुबिग महाकाश्यप. सारिपुत्त
और वज्जियपुत्त को बौद्ध परम्परा से सम्बन्धित मानते हैं । उनकी यह मान्यता मेरी दृष्टि से समुचित भी है । यद्यपि शुब्रिग ने पुष्पशालपुत्र, केतलीपुत्र, विदु. गाथापतिपुत्र तरुण, हरिगिरि, मातंग और वायु को प्रमाण के अभाव में किसी परम्परा से जोड़ने में असमर्थता व्यक्त की है।
यदि हम शुब्रिग के उपर्युक्त दृष्टिकोण को उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर रखते हैं तो नारद, असित देवल, अंगिरस भारद्वाज, याज्ञवल्क्य, उद्दालक, पिंग, तारायण को स्पष्ट रूप से वैदिक या औपनिपदिक परम्परा के ऋषि मान सकते हैं । इसीप्रकार महाकाश्यप. सारिपत्त और वज्जीयपत्त को बौद्ध परम्परा का मानने में भी हमें कोई आपत्ति नहीं होगी। पार्श्व और वर्धमान स्पष्ट रूप से जैन परम्परा के माने जा सकते हैं । मंखलिपुत्र स्पष्ट रूप से आजीवक परम्परा के है । शेष नामों के सम्बन्ध में हमें अनेक पहलुओं से विचार करना होगा । यद्यपि पुष्पशालपुत्त, वक्कलचीरी, कुम्मापुत्त, केततिपुत्त, भयालि, मधुरायण, सौर्यायण, आर्यायण, गर्दभालि, गाथापतिपुत्त तरुण, वारत्रय, आर्द्रक, वायु, संजय, इन्द्रनाग, सोम, यम, वरुण, वैश्रमण आदि की ऐतिहासिकता और परम्परा का निश्चय करना कठिन
ऋषिभाषित के ऋषि प्रत्येकबुद्ध क्यों ?
ऋषिभाषित के मूलपाठ में केतलिपुत्र को ऋषि, अम्बड को परिव्राजक, पिंग, ऋपिगिरि एवं श्री गिरि को ब्राह्मण (माहण) परिव्राजक अर्हत ऋषि, सारिपुत्र को बुद्ध अर्हत ऋषि तथा शेष सभी को अर्हत ऋषि के नाम से सम्बोधित किया गया । उत्कट (उत्कल) नामक अध्ययन में वक्ता के नाम का उल्लेख ही नहीं है, अत : उसके साथ कोई विशेषण होने का प्रश्न ही नहीं उठता है । यद्यपि ऋषिभाषित्त के अन्त में प्राप्त होने वाली संग्रहणी गाथा १ एवं ऋषिमण्डल२२ में इन सबको प्रत्येकबुद्ध कहा गया है तथा यह भी उल्लेख है कि इनमें से बीस अरिष्टनेमि के, पन्द्रह पार्श्वनाथ के और शेष महावीर के शासन में हुए हैं। किन्तु, यह गाथा परवर्ती है और बाद में जोड़ी गई लगती है । मूलपाठ में कहीं भी इनका प्रत्येकवुद्ध के रूप में उल्लेख नहीं है । समवायांग में ऋषिभाषित की चर्चा के प्रसंग में इन्हें मात्र देवलोक से च्युत कहा गया है, प्रत्येकबुद्ध नहीं कहा गया है । यद्यपि समवायांग में ही प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का विवरण देते समय यह कहा गया है कि इसमें स्वसमय
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और परसमय के प्रवक्ता प्रत्येकबुद्धों के विचारों का संकलन है । चूँकि ऋषिभाषित प्रश्नव्याकरण का ही एक भाग रहा था । इसप्रकार ऋषिभाषित के ऋपियों को सर्वप्रथम समवायांग में परोक्षरूप से प्रत्येकबुद्ध मान लिया गया था । ३३ यह स्पष्ट है कि ऋषिभाषित के अधिकांश ऋषि जैन परम्परा के नहीं थे, अत: उनके उपदेशों को मान्य रखने के लिए उन्हें प्रत्येकबुद्ध कहा गया । जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं में प्रत्येकबुद्ध वह व्यक्ति है. जो किसी निमित्त से स्वयं प्रबुद्ध होकर एकाकी साधना करते हुए ज्ञान प्राप्त करता है, किन्तु न तो वह स्वयं किसी का शिष्य बनता है और न किसी को शिष्य बनाकर संघ व्यवस्था करता है । इसप्रकार प्रत्येकबुद्ध किसी परम्परा या संघ व्यवस्था में आबद्ध नही होता है. फिर भी वह समाज में आदरणीय होता है और उसके उपदेश प्रामाणिक माने जाते हैं । ऋषिभाषित और जैनधर्म के सिद्धान्त
ऋषिभाषित का समग्रत : अध्ययन हमें इस संबंध में विचार करने को विवश करता है कि क्या ऋषिभाषित में अन्य परम्पराओं के ऋषियों द्वारा उनकी ही अपनी मान्यताओं का प्रतिपादन करवाया गया है अथवा उनके मुख से जैन परम्परा की मान्यताओं का प्रतिपादन करवाया गया है ? प्रथम दृष्टि से देखने पर तो ऐसा भी लगता है कि उनके मुख से जैन मान्यताओं का प्रतिपादन हुआ है । प्रो० शुब्रिग और उनके ही आधार पर प्रो० लल्लनजी गोपाल ने प्रत्येक ऋषि के उपदेशों के प्रतिपादन के प्रारम्भिक और अन्तिम कथन की एकरूपता के आधार पर यह मान लिया है कि ग्रन्थकार ऋषियों के उपदेशों के प्रस्तुतिकरण में प्रामाणिक नहीं हैं । उसने इनके उपदेशों को अपने ही ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है । अधिकांश अध्यायों में जैन पारिभाषिक पदावली यथा-महाव्रत, कषाय, परिषह आदि को देखकर इस कथन में सत्यता परिलक्षित होने तगती है। उदाहरणार्थ प्रथम नारद नामक अध्ययन में यद्यपि शौच के चार लक्षण बताये गये हैं. किन्तु यह अध्ययन जैन परम्परा के चातुर्याम का ही प्रतिपादन करता है । वज्जीयपुत्त नामक द्वितीय अध्याय में कर्म सिद्धान्त की अवधारणा का प्रतिपादन किया गया है । यह अध्ययन जीव के कर्मानुगामी होने की धारणा का प्रतिपादन करता है, साथ ही मोह को दुःख का मूल बताता है । यह स्पष्ट करता है कि जिसप्रकार बीज से अंकुर और अंकुर से बीज की परम्परा चलती रहती है उसीप्रकार मोह से कर्म और कर्म से मोह की परम्परा चलती रहती है और मोह के समाप्त होने पर कर्म-सन्तति ठीक वैसे ही समाप्त होती है जैसे वृक्ष के मूल को समाप्त करने पर उसके फूल-पत्ती अपने आप समाप्त होते हैं। कर्म सिद्धान्त की यह अवधारणा ऋषिभाषित के अध्याय १३, १५, २४ और ३० में भी मिलती है । जैन परम्परा में इससे ही मिलताजुलता विवरण उत्तराध्ययन के बत्तीसवें अध्ययन में प्राप्त होता है । इसीप्रकार तीसरे असित देवल नामक अध्ययन में हमें जैन परम्परा और विशेष रूप से आचारांग में उपलब्ध पाप को लेप कहने की चर्चा मिल जाती है । इस अध्ययन में हमें पांच महाव्रत, चार कषाय तथा इसीप्रकार हिंसा से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के १८ पापों का उल्लेख भी मिलता है। यह अध्ययन मोक्ष के स्वरूप का विवेचन भी करता है और उसे शिव, अतुल, अमल, अव्याघात, अपुनरावर्तन तथा शाश्वत स्थान बताता है । मोक्ष का ऐसा ही स्वरूप हमें जैन
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आगम-साहित्य में अन्यत्र भी मिलता है । पांच महाव्रतों और चार कषायों का विवरण तो ऋषिभापित के अनेक अध्ययनों में आया है । महाकाश्यप नामक ९वें अध्ययन में पुण्य, पाप तथा संवर और निर्जरा की चर्चा उपलब्ध होती है । इसी अध्याय में कषाय का भी उल्लेख है । नवें अध्ययन में कर्म के आदान की चर्चा करते हुए मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग को बन्धन का कारण कहा गया है, जो जैन परम्परा के पूर्णतः अनुरूप है । इसमें जैन परम्परा के अनेक पारिभाषिक शब्द यथा उपक्रम, बद्ध , स्पृष्ट, निकाचित, निर्जीर्ण, सिद्धि, शैलेषी-अवस्था, प्रदेशोदय, विपाकोदय आदि पाये जाते हैं । इस अध्ययन में प्रतिपादित आत्मा की नित्यानित्यता की अवधारणा, सिद्धावस्था का स्वरूप एवं कर्मबन्धन और निर्जरा की प्रक्रिया जैन दर्शन के समान है ।
इसी तरह अनेक अध्ययनों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अवधारणा भी मिलती है । बारहवें याज्ञवल्क्य नामक अध्ययन में जैन परम्परा के अनुरूप गोचरी के स्वरूप एवं शुर्दोषणा की चर्चा मिल जाती है । आत्मा अपने शुभाशुभ कर्मों का कर्ता और कृत-कर्मों के फल का भोक्ता है, यह बात भी पन्द्रहवें मधुरायन नामक अध्ययन में कही गयी है । सत्रहवें विदुर नामक अध्ययन में सावधयोग. विरति और समभाव की चर्चा है । उन्नीसवें आरियायण नामक अध्ययन में आर्य ज्ञान, आर्य दर्शन और आर्य चरित्र के रूप में प्रकारान्तर से सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र की ही चर्चा है । बाईसवां अध्ययन धर्म के क्षेत्र में पुरुष की प्रधानता की चर्चा करता है तथा नारी की निन्दा करता है, इसकी सूत्रकृत्तांग के इत्थिपरिण्णा' नामक अध्ययन से समानता है । तेईसवें रामपुत्त नामक अध्ययन में उत्तराध्ययन (२८/३५) के समान ही ज्ञान के द्वारा जानने, दर्शन के द्वारा देखने, संयम के द्वारा निग्रह करने तथा तप के द्वारा अष्टविध कर्म के विधूनन की बात कही गयी है । अष्टविध कर्म की यह चर्चा केवत जैन परम्परा में ही पायी जाती है । पुन : चौबीसवें अध्ययन में भी मोक्ष मार्ग के रूपमें ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की चर्चा है ! इसी अध्याय मे देव, मनुष्य. तिर्यज्ज्ञ और नारक-इन चुतर्गतियों की भी चर्चा है । पच्चीसवें अम्बड नामक अध्ययन में चार कषाय, चार विकथा, पांच महाव्रत, तीन गुप्ति, पंच इन्द्रिय-संयम, छ: जीवनिकाप, सात भय, आठ मद. नौ प्रकार का ब्रह्मचर्य तथा दस प्रकार के समाधिस्थान की चर्चा है । इसप्रकार इस अध्ययन में जैन परम्परा में मान्य अनेक अवधारणाएँ एक साथ उपलब्ध हो जाती हैं। इसी अध्ययन में आहार करने के छ: कारणों की चर्चा भी है, जो स्थानांग (स्थान६) आदि में मिलती है । स्मरण रहे कि यद्यपि जैनागमों में अम्बड को परिव्राजक माना है, फिर भी उसे महावीर के प्रति श्रद्धावान बताया है । यही कारण है कि इसमें सर्वाधिक जैन अवधारणएँ उपलब्ध हैं। ऋषिभाषित के छब्बीसवें अध्ययन में उत्तराध्ययन के पच्चीसवें अध्ययन के समान ही ब्राह्मण के स्वरूप की चर्चा है । इसी अध्ययन में कषाय, निर्जरा. छः जीवनिकाय और सर्व प्राणियों के प्रति दया का भी उल्लेख है । इकतीसवें पार्श्व नामक अध्ययन में पुनः चातुर्याम, अष्टविध कर्मग्रन्थि, चार गति, पंचास्तिकाय तथा मोक्ष स्थान के स्वरूप का दिग्दर्शन होता है । इसी अध्ययन में जैन परम्परा के समान जीव को ऊर्ध्वगामी और पुदगत को अधोगामी कहा गया है. किन्तु पार्श्व तो जैनपरम्परा में मान्य ही हैं अतः इस अध्ययन में जैन अवधारणाएँ होना आश्चर्यजनक नहीं है ।
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अब विद्वानों की यह धारणा भी बनी है कि जैनदर्शन का तत्त्वज्ञान पापित्यों की ही देन है । शब्रिग ने भी इसिभासियाइं पर पाश्वपित्यों का प्रभाव माना है । पुनः बत्तीसवें पिंग नामक अध्ययन में जैन परम्परा के अनुरूप चारों वर्गों की मुक्ति का भी प्रतिपादन किया गया है । चौतीसवें अध्ययन में परिषह और उपसर्गों की चर्चा है । इसी अध्ययन में पंच महाव्रत से युक्त, कषाय से रहित, छिन्त्रस्रोत. अनासव भिक्षु की मुक्ति की भी चर्चा है । पुन : पैतीसवें उद्दालक नामक अध्ययन में तीन गुप्ति. तीन दण्ड तीन शल्य, चार कषाय चार विकथा, पांच समिति, पंचेन्द्रिय-संयम, योग-सन्धान एवं नवकोटि परिशुद्ध, दस दोष से रहित विभित्र कुलों की परकृत. परनिर्दिष्ट, विगतधूम. शास्त्रपरिणत भिक्षा ग्रहण करने का उल्लेख है । इसी अध्ययन में संज्ञा एवं बाईस परिषहों का भी उल्लेख है ।
इसप्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में अनेक जैन अवधारणाएँ उपस्थित है। अत: स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि क्या जैन आचार्यों ने ऋषिभाषित का संकलन करते समय अपनी ही अवधारणाओं को इन ऋषियों के मुख से कहलवा दिया अथवा मूलतः ये अवधारणाएँ इन ऋपियों की ही थी और वहाँ से जैन परम्परा में प्रविष्ट हुई ? यह तो स्पष्ट है कि ऋपिभाषित में उल्लेखित ऋषियों में पार्व और महावीर को छोड़कर शेष अन्य सभी या तो स्वतन्त्र साधक रहे हैं या अन्य परम्पराओं के रहे हैं । यद्यपि इनमें कुछ के उल्लेख उत्तराध्यपन और सूत्रकृतांग में भी हैं । यदि हम इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि इसमें जो विचार हैं वे उन ऋपियों के नहीं हैं तो ग्रन्थ की और ग्रन्थकर्ता की प्रामाणिकता खण्डित होती है, किन्तु दूसरी ओर यह मानना कि ये सभी अवधारणाएँ जैन परम्परा में अन्य परम्पराओं से प्रविष्ट हुईं : पूर्णत : सन्तोषप्रद नहीं लगता है । अत : सर्वप्रथम तो हम पह परीक्षण करने का प्रयत्न करेंगे कि ऋषिभाषित में जिन ऋषियों के उपदेश संकलित हैं वे उनके अपने है या जैन आचार्यों ने अपनी बात को उनके मुख से कहलवाया है । ऋषिभाषित में उपदिष्ट अवधारणाओं की प्रामाणिकता का प्रश्न
यद्यपि ऋपिभाषित के सभी ऋषियों के उपदेश और तत्सम्बन्धी साहित्य हमें नेतर परम्पराओं में उपलब्ध नहीं होता, फिर भी इनमें से अनेकों के विचार और अवधारणाएँ आज भी अन्य परम्पराओं में उपलब्ध हैं। याज्ञवल्क्य का उल्लेख भी उपनिषदों में है । वज्जीयपुत्त, महाकाश्यप और सारिपुत्त के उल्लेख बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में हैं। इसीप्रकार विदुर, नारायण, असितदेवल आदि के उल्लेख महाभारत एवं हिन्दू परम्परा के अन्य ग्रन्थों में मिल जाते हैं । ऋषिभाषित में इनके जो विचार उल्लेखित हैं, उनकी तुलना अन्य स्रोतों से करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि ऋषिभाषित में जिन ऋषियों के जिन विचारों का उल्लेख किया गया है उनमें कितनी प्रामाणिकता है । ऋषिभाषित के ग्यारहवें अध्ययन में मंखलिपुत्र गोशालक का उपदेश संकलित है । मंखलिपुत्र गोशालक के सम्बन्ध में हमें जैन परम्परा में भगवतीसूत्र और उपासकदशांग में, बौद्ध परम्परा में दीघनिकाय के सामञ्ज महाफलसुत्त और सुत्तनिपात में एवं हिन्दू.परम्परा में महाभारत के शान्तिपर्व के १७७वें अध्ययन में मंखी ऋपि के रूप में उत्तेख प्राप्त होता है। तीनों ही सोत उसे नियतिवाद का समर्थक बताते हैं । यदि हम ऋषिभाषित अध्याय ११ में वर्णित
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मंखलि गोशालक के उपदेशों को देखते हैं तो यहाँ भी हमें परोक्ष रूप से नियतिवाद के संकेत उपलब्ध होते हैं । इस अध्याय में कहा गया है कि जो पदार्थों की परिणति को देखकर कम्पित होता है, वेदना का अनुभव करता है, क्षोभित होता है. आहत होता है, स्पंदित होता है, चलायमान होता है, प्रेरित होता है, वह त्यागी नहीं है। इसके विपरीत जो पदार्थों की परिणति को देखकर कम्पित नहीं होता है, क्षोभित नहीं होता है, दुःखित नहीं होता है, वह त्यागी है । परोक्ष रूप से यह पदार्थों की परिणति के सम्बन्ध में नियतिवाद का प्रतिपादन है । संसार की अपनी एक व्यवस्था और गति है वह उसी के अनुसार चल रहा है, साधक को उसका ज्ञाता-द्रष्टा तो होना चाहिए किन्तु द्रष्टा के रूप में उससे प्रभावित नहीं होना चाहिए। नियतिवाद की मूलभूत आध्यात्मिक शिक्षा यही हो सकती है कि हम संसार के घटनाक्रम में साक्षी भाव से रहें । इसप्रकार यह अध्याय गोशालक के मूलभूत आध्यात्मिक उपदेश को ही प्रतिबिम्बित करता है । इसके विपरीत जैन और बौद्ध साहित्य में जो मखलि गोशालक के सिद्धान्त का निरूपण है, वह वस्तुतः गोशालक की इस आध्यात्मिक अवधारणा से निकाला गया एक विकृत दार्शनिक फलित है । वस्तुतः ऋषिभाषित का रचयिता गोशालक के सिद्धान्तों के प्रति जितना प्रामाणिक है, उतने प्रामाणिक त्रिपिटक और परवर्ती जैन आगमों के रचयिता नहीं हैं।
महाभारत के शान्तिपर्व के १७७ वें अध्याय में मंखि ऋषि का उपदेश संकलित है इसमें एक ओर नियतिवाद का समर्थन है, किन्तु दूसरी ओर इसमें वैराग्य का उपदेश भी है । इस अध्याय में मूलतः द्रष्टा भाव और संसार के प्रति अनासक्ति का उपदेश है। इसमें यह बताया गया है कि संसार की अपनी व्यवस्था है । मनुष्य अपने पुरुषार्थ से भी उसे अपने अनुसार नहीं मोड़ पाता है, अतः व्यक्ति को द्रष्टा भाव रखते हुए संसार से विरक्त हो जाना चाहिए। महाभारत के इस अध्याय की विशेषता यह है कि मंखि ऋषि को नियतिवाद का समर्थक मानते हुए भी उस नियतिवाद के माध्यम से उन्हें वैराग्य की दिशा में प्रेरित बताया गया है । इस आधार पर ऋषिभाषित में मंखलिपुत्र का उपदेश जिस रूप में संकलित मिलता है वह निश्चित ही प्रामाणिक है ।
इसीप्रकार ऋषिभाषित के नवें अध्याय में महाकाश्यप के और अड़तीसवें अध्याय में सारिपुत्त के उपदेश संकलित हैं । ये दोनों ही बौद्ध परम्परा से सम्बन्धित रहे हैं । यदि हम ऋषिभाषित में उल्लिखित इनके विचारों को देखते हैं तो स्पष्ट रूप से इसमें हमें बौद्धधर्म की अवधारणा के मूल तत्त्व परिलक्षित होते हैं । महाकाश्यप अध्याय में सर्वप्रथम संसार की दुःखमयता का चित्रण है । इसमें कर्म को दुःख का मूल कहा गया है और कर्म का मूत जन्म को बताया गया है, जो कि बौद्धों के प्रतीत्यसमुत्पाद का ही एक रूप है । इसी अध्याय में एक विशेषता हमें यह देखने को मिलती है कि इसमें कर्म-सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए सन्तानवाद' की चर्चा है जो कि बौद्धों का मूलभूत सिद्धान्त है । इस अध्याय में निर्वाण के स्वरूप को समझाने के लिए बौद्ध दर्शन के मूलभूत दीपक वाले उदाहरण को प्रस्तुत किया गया है । पूरा अध्याय सन्तानवाद और कर्मसंस्कारों के माध्यम से वैराग्य का उपदेश प्रदान करता है । इसप्रकार हम यह कह सकते है कि इसमें बौद्धधर्म के मूल बीज उपस्थित
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हैं । इसीप्रकार अड़तीसवें सारिपुत्त नामक अध्याय में भी बौद्ध धर्म के मूल उत्स मध्यम मार्ग का प्रतिपादन मिलता है । इसके साथ ही बुद्ध के प्रज्ञावाद का भी इसमें प्रतिपादन हुआ है। इस अध्याय में कहा गया है कि, मनोज्ञ भोजन, मनोज्ञ शयनासन का सेवन करते हुए और मनोज्ञ आवास में रहते हुए भिक्षु सुखपूर्वक ध्यान करता है । फिर भी प्रज्ञ पुरुष को सांसारिक पदार्थों में आसक्त नहीं होना चाहिए, यही बुद्ध का अनुशासन है । इसप्रकार यह अध्याय भी बुद्ध के उपदेशों को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करता है ।
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इसीप्रकार याज्ञवल्क्य नामक बारहवें अध्याय में भी हम देखते हैं कि याज्ञवल्क्य के मूलभूत उपदेशों का प्रतिपादन हुआ है। ऋषिभाषित के अतिरिक्त याज्ञवल्क्य का उल्लेख हमें उपनिषदों एवं महाभारत में भी मिलता है । ३४ उपनिषद् में जहाँ याज्ञवल्क्य मैत्रेयी संवाद है वहाँ उनकी संन्यास की इच्छा को प्रगट किया गया है। ऋषिभाषित में भी याज्ञवल्क्य के उपदेश के रूप में लोकैषणा और वित्तैषणा के त्याग की बात कही गई है तथा यह कहा गया है कि जब तक लोकैषणा होती है तब तक वित्तैषणा होती है और जब वित्तैषणा होती है तो लोकैषणा होती है। इसलिए लोकैषणा और वित्तैषणा के स्वरूप को जानकर गोपथ से जाना चाहिए, महापथ से नहीं जाना चाहिए। वस्तुतः ऐसा लगता है कि यहाँ निवृत्तिमार्ग को गोपथ और प्रवृत्तिमार्ग को महापथ कहा गया है और याज्ञवल्कय निवृत्ति मार्ग का उपदेश देते प्रतीत होते हैं । यहाँ सबसे विचारणीय बात यह है कि बौद्धधर्म में जो हीनयान और महायान की अवधारणा का विकास है, कहीं वह गोपथ और महापथ की अवधारणा का विकसित रूप तो नहीं है ? आचारांग में भी महायान शब्द आया है। महाभारत के शान्तिपर्व में भी अध्याय ३१० से लेकर ३१८ तक याज्ञवल्क्य के उपदेशों का संकलन है। इसमें मुख्य रूप से सांख्य और योग की अवधारणा का प्रतिपादन है। ऋषिभाषित के इस अध्याय में मुनि की भिक्षा-विधि की भी चर्चा है जो कि जैन परम्परा के अनुरूप ही लगती है । फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि ऋषिभाषित के बीसवें उत्कल नामक अध्याय के उपदेष्टा के रूप में किसी ऋषि का उल्लेख नहीं है, किन्तु इतना निश्चित है कि उसमें चार्वाक के विचारों का पूरी प्रामाणिकता के साथ प्रतिपादन हुआ है। ऋषिभाषित में वर्धमान का जो उपदेश है उसकी यथार्थ प्रतिच्छाया आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के भावना नामक अध्ययन में एवं उत्तराध्ययन के बत्तीसवें अध्याय में यथावत् रूप से उपलब्ध है ।
उपर्युक्त आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि ऋषिभाषित में ऋषियों के उपदेश को सामान्यरूप से प्रामाणिकता पूर्वक ही प्रस्तुत किया गया है । यद्यपि इसमें मुख्य रूप से उनके आध्यात्मिक और नैतिक विचारों का ही प्रस्तुतीकरण हुआ है और उसके पीछे निहित दर्शन पर इसमें कोई बल नहीं दिया गया है। दूसरा यह भी सत्य है कि उनका प्रस्तुतीकरण या ग्रन्थ-रचना जैन परम्परा के आचार्यों द्वारा हुई है । अतः यह स्वाभाविक था कि उसमें जैन परम्परा में मान्य कुछ अवधारणाएँ प्रतिबिम्बित हो गयी हों। पुनः इस विश्वास के भी पर्याप्त आधार हैं कि जिन्हें आज हम जैन परम्परा की अवधारणाएँ
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कह रहे हैं, वे मूलतः अन्य परम्पराओं में प्रचलित रही हों । अतः ऋषिभाषित के ऋषियों के उपदेशों की प्रामाणिकता को पूर्णतः निरस्त नहीं किया जा सकता। अधिक से अधिक हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि उन पर अपरोक्षरूप से जैन परम्परा का कुछ प्रभाव आ गया है।
ऋषिभाषित के ऋषियों की ऐतिहासिकता का प्रश्न --
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यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि ऋषिभाषित में वर्णित अधिकांश ऋषिगण जैन परम्परा से सम्बन्धित नहीं है । उनके कुछ के नामों के आगे लगे हुए ब्राह्मण, परिव्राजक आदि शब्द ही उनका जैन परम्परा से भित्र होना सूचित करता है । दूसरे देव नारद, असितदेवल, अंगिरस भारद्वाज, याज्ञवल्क्य, बाहुक, विदुर, वारिषेण कृष्ण द्वैपायन, आरुणि. उद्दालक, तारायण, ऐसे नाम हैं जो वैदिक परम्परा में सुप्रसिद्ध रहे हैं और आज भी उनके उपदेश उपनिषदों, महाभारत एवं पुराणों में सुरक्षित हैं। इनमें से देवनारद, असितदेवल. अंगिरस भारद्वाज, द्वैपायन के उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त सूत्रकृतांग, औपपातिक अंतकृतदशा आदि जैन ग्रन्थों में तथा बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में भी मिलते हैं। इसीप्रकार वज्जीयपुत्त महाकाश्यप और सारिपुत्त बौद्ध परम्परा के सुप्रसिद्ध व्यक्तित्व हैं और उनका उल्लेख त्रिपिटक साहित्य में उपलब्ध है। मंखलिपुत्त, रामपुत्त, अम्बड, संजय (वेलट्ठिपुत्त) आदि ऐसे नाम हैं जो स्वतन्त्र श्रमण परम्पराओं से सम्बन्धित हैं और इनके उल्लेख जैन और बौद्ध परम्पराओं में हमें स्पष्ट रूप से मिलते हैं। ऋषिभाषित के जिन ऋषियों के उल्लेख बौद्ध साहित्य में हमें मिलते हैं उस पर विस्तृत चर्चा प्रो० सी० एस० उपासक ने अपने लेख 'इसि भासियाई एण्ड पालि बुद्धिस्ट टेक्स्ट्स ए स्टडी में किया है। यह लेख पं० दलसुखभाई अभिनन्दन ग्रन्थ में प्रकाशित हुआ है। पार्श्व और वर्द्धमान जैन परम्परा के तेईसवें और चौबीसवें तीर्थंकर के रूप में सुस्पष्ट रूप से मान्य हैं। आर्द्रक का उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त सूत्रकृतांग में है । इसके अतिरिक्त वल्कलचीरी कूर्मापुत्र, तेतलिपुत्र, भपालि, इन्द्रनाग आदि ऐसे नाम हैं जिनमें अधिकांश का उल्लेख जैन परम्परा के इसिमण्डल एवं अन्य ग्रन्थों में मिल जाता है । वल्कलचीरी, कूर्मापुत्र आदि का उल्लेख बौद्ध परम्परा में भी है। किन्तु जिनका उल्लेख जैन और बौद्ध परम्परा में अन्यत्र नहीं मिलता है, उन्हें भी पूर्णतया काल्पनिक व्यक्ति नहीं कह सकते । यदि हम ऋषिभाषित के ऋषियों की सम्पूर्ण सूची का अवलोकन करें तो केवल सोम, यम, वरुण, वायु और वैश्रमण, ऐसे नाम हैं जिन्हें काल्पनिक कहा जा सकता है क्योंकि जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराएँ इन्हें सामान्यतया लोकपाल के रूप में ही स्वीकार करती हैं किन्तु इनमें भी महाभारत में वायु का उल्लेख एक ऋषि के रूप में मिलता है । यम को आवश्यक चूर्णि में यमदग्नि ऋषि का पिता कहा गया है। अतः इस सम्भावना को पूरी तरह निरस्त नहीं किया जा सकता कि यम कोई ऋषि रहे हों। यद्यपि उपनिषदों में भी यम को लोकपाल के रूप चित्रित किया गया है किन्तु इतना तो निश्चित है कि ये एक उपदेष्टा हैं। यम और नचिकेता का संवाद औपनिषदिक परम्परा में सुप्रसिद्ध है । वरुण और वैभ्रमण को भी वैदिक परम्परा में मंत्रोपदेष्टा के रूप में स्वीकार किया गया है। यह सम्भव है कि सोम, यम, वरुण और वैश्रमण
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इस ग्रन्थ के रचनाकाल तक एक उपदेष्टा के रूप में लोक परम्परा में मान्य रहे हों और इसी आधार पर इनके उपदेशों का संकलन ऋषिभाषित में कर लिया गया है ।
उपर्युक्त चर्चा के आधार पर हम यह अवश्य कह सकते हैं कि ऋषिभाषित के ऋषियों में उपर्युक्त चार पाँच नामों को छोड़कर शेष सभी प्रागैतिहासिक काल के यथार्थ व्यक्ति हैं, काल्पनिक चरित्र नहीं हैं ।
निष्कर्ष रूप में हम इतना ही कहना चाहेंगे कि ऋषिभाषित न केवल जैन परम्परा की अपितु समग्र भारतीय परम्परा की एक अमूल्य निधि है और इसमें भारतीय चेतना की धार्मिक उदारता अपने यथार्थ रूप में प्रतिबिम्बित होती है । ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि यह हमें अधिकांश ज्ञात और कुछ अज्ञात ऋषियों के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक सूचनाएँ देता है। जैनाचार्यों ने इस निधि को सुरक्षित रखकर भारतीय इतिहास एवं संस्कृति की बहुमूल्य सेवा की है। वस्तुतः यह प्रकीर्णक ग्रन्थ ईसा पूर्व १० वीं शती से लेकर ईसा पूर्व ६ ठीं शती तक के अनेक भारतीय ऋषियों की ऐतिहासिक सत्ता का निर्विवाद प्रमाण है ।
३.
४.
सन्दर्भ - सूची
(अ) से किं कालियं ? कालियं अणेगविहं पण्णत्तं । तं जहा उत्तराज्झयणाई दसाओ २. कप्पो ३. ववहारो ४. निसीह ५ महानिसीह ६, इसिभासियोइं ७. जंबुद्दीपण्णत्ती ८, दीवसागरपण्णत्ती ९ ।
१.
-- नन्दिसूत्र : प्रका० महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, १९६८. सूत्र ८४
(ब) नमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइअं अंगबाहिरं कालिअं भगवंतं । तं जहा -- १. उत्तराज्झयणाई, २. दसाओ, ३. कप्पो, ४. ववहारो, ५. इसिभासिआई, ६. निसीह, ७. महानिसीह........।
- पाक्षिकसूत्र : प्रका० देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड, सीरिज ९९. पृ० ७९ अंगबाह्यमनेकविधम् । तद्यथा - सामायिकं, चतुर्विंशतिस्तवः, वन्दनं प्रतिक्रमणं, कायव्युत्सर्गः प्रत्याख्यानं, दशवैकालिकं उत्तराध्यायाः, दशाः कल्पव्यवहारौ, निशीथं, ऋषिभाशितानीत्येवमादि ।
- तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् (स्वोपज्ञभाष्य ) प्रका० देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड, सीरिज ५७, सूत्र १/ २०
तथा ऋषिभाषितानि उत्तराध्ययनादीनि.......
२५५
-- आवश्यक नियुक्तिः हरिभद्रीयवृत्ति पृ० २०६
ऋषिभाषितानां च देवेन्द्रस्तवादीनां नियुक्ति
। - आवशयक नियुक्ति हरिभद्रीय वृत्ति० पृ० ४१
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इसिभासियाइं पणयालीसं अज्झयणाई कालियाई, तेसु दिण ४५ निबिएहिं अणागाढजोगो । अण्णे भणंति उत्तराज्झयणेसु चेव एयाइं अंतब्भवति ।
-विधिमार्गप्रपा, पृ० ५८ देविदत्थयमाई पइण्णगा होति इगिगनिविएण । इसिभासिय अज्झयणा आयंबिलकालतिगसज्झा ॥६१ ।। केसिं चि मए अंतब्भवंति एयाइं उत्तराज्झयणे । पणयालीस दिणेहि केसिं वि जोगो अणागाढो ।।२।।
-विधिमार्गप्रपा, पृ० ६२ ६. (अ) कालियसुयं च इसिभासियाई ताइओ य सूरपण्णत्ती ।
सव्वो य दिट्ठिवाओ चउत्थओ होई अणुओगो ।।१२४ ।। (मू० भा०) तथा ऋषिभाषितानि उत्तराध्ययनादीनि 'तृतीयश्च' कालानुयोगः,
--आवश्यक हरिभद्रीय वृत्ति, पृ० २०६ (ब) आवस्सगस्स दसवेकालिअस्स तह उत्तराज्झमापारे ।
सूयगडे निज्जुतिं वुच्छामि तहा दसाणं च ।। कप्पस्स य निज्जुतिं ववहारस्सेव परमणिउणस्स। सूरिअपण्णत्तीए वुच्छं इसिभासिआणं च ।।
-आवश्यकनियुक्ति, गाथा ८४-८५ पण्हवागरणदसाणं दस अज्झयणा पत्रता, तंजहा-उवमा, संखा, इसिभासियाइं, आयरियभासिताई, महावीरभासिताइं, खोमपसिणाई, कोमलपसिणाई अद्दागपसिणाई. अंगुट्ठपसिणाई, बाहुपसिणाई । -ठाणांगसुत्त : प्रका० महावीर जैन विद्यालय, दसमं अजझयणं दसटाणं,
पृ० ३११ चोत्तालीसं अज्झयणा इसिभासिया दियलोगचुताभासिया पण्णत्ता ।
-समवायांगसूत्र-४४ सूत्रकृतांगसूत्र १/३/४/१-४ वही, २/६/१-३, ७.९ भगवती, शतक १५ उपासकदशांग, अध्याय ६ एवं ७ (अ) सूतनिपात्त ३२. सभियसुत्त
(ब) दीघनिकाय, सामअफलसुत्त १४. सुत्तनिपात ३२, सभियसुत्त
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(अ) पालि साहित्य का इतिहास (भरतसिंह उपाध्याय ), पृ० १०२-१०४ (ब) It is ......... the oldest of the poetic books of the Buddhist Scriptures.
-The Suttaanipata (Sister Vayira ) Introduction, P. 2 १६. उभो नारद पबता ।
--सुत्तनिपात ३२. सभियसुत्त ३४ असितो इसि अद्दस दिवाविहारे ।
--सुत्तनिपात ३७, नालकसुत्त १ १८. सुत्तनिपात ७१, पिगियमाणवपुच्छा
सुत्तनिपात ३२, सभियसुत्त । वही, सभियसुत्त । वही, सभियसुत्त । धेरगाधा ३६;Dictionary of Pali Proper names, Vol.I, p.631& Vol. II, P.15 (अ) इसिभासियाई. २६/८-१५
(ब) वही.३२/१-४ २४. सुत्तनिपात, कसिभारद्वाजसुत्त
अहं च भोयरायस्स तं च सि अगन्धगवण्हिणो । मा कुले गन्धणा होमो संजमं निहुओ चर ||
-उत्तराध्ययन, २२/४४ २६. पक्खंदे जलियं जोइं, धूमकेउं दुरासयं । नेच्छंति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे ।।
--दशवैकालिक, २/६ अगन्धणे कुले जातो जधा णागो महाविसो । मुंचित्ता सविसं भूतो पियन्तो जाती लाघवं ।।
___ -इसिभासियाई, ४५/४०
२५.
२७.
२८.
See-Introduction of Isibhasiyaim by Walther Schubring: L.D.Institute of Indology, Ahmedabad, 1974. ऋषिमण्डल प्रकरणम्, आत्मवल्लभ ग्रन्थमाला, बालापुर, ग्रन्यांक ३१, गाधा
३०.
ISIBHASIYAIM. L.D. Institute of Indoloav. Introduction page 3-7.
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________________ 218 31. 32. 33. पत्तेयबुद्धमिसिणो बीसं तित्थे अरिदुणेमिस्स / पासस्स य पण्ण दस वीरस्स विलीणमोहस्स / / -इसिभासियाई, पृ० 205 ऋषिमण्डल प्रकरणम, गाथा 44, 45 पण्हवागरणदसासु णं ससमय-परसमय पण्णवय पत्तेयबुद्धविविहत्थभासाभासियाणं --समवायांगसूत्र, 546 बृहदारण्यक उपनिषद, द्वितीय अध्याय, चतुर्थ ब्राह्मण / 34. * मानद निदेशक आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान पशिनी मार्ग उदयपुर (राज.)