Book Title: Rushabhdev se Vartaman tak Jain Dharm ki Sthiti
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf

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Page 5
________________ ५२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ प्राप्त करना है वहाँ उसके ( धर्मके ) ऐहिक पहलूका उद्देश्य अपने वर्तमान जीवनको सुखी बनाते हुए आध्यात्मिक पहलूकी ओर अग्रसर होना है। यह तभी हो सकता है जब कि मानव-समाजमें सुख और शान्तिका साम्राज्य हो। कारण कि मनुष्य स्वभावसे समष्टिगत प्राणी है। इसलिए उसका जीवन मानवसमाजके साथ गुंथा हुआ है। अर्थात् व्यक्ति तभी सुखी हो सकता है जबकि उसका कुटुम्ब सुखी हो, कुटुम्ब भी तब सुखी हो सकेगा जबकि उसके मुहल्ले में अमन-चैन हो। इसी क्रमसे आगे भी मुहल्लेका अमन-चैन ग्रामके अमन-चैनपर, ग्रामका अमन-चैन प्रान्तके अमन-चैनपर और प्रान्तका अमन-चैन देशके अमन-चैनपर ही निर्भर है तथा आज तो प्रत्येक देशके ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध स्थापित हो चुके हैं कि एक देशका अमन-चैन दूसरे देशके अमन-चैनपर निर्भर हो गया है। यही कारण है कि आज दुनियाके विशेषज्ञ विश्वसंघकी स्थापनाकी बात करने लगे हैं, लेकिन विश्वसंघ तभी स्थापित एवं सार्थक हो सकता है जबकि मानव अपनी क्रोध, मान, माया और लोभरूप मानसिक दुर्बलताओंको नष्ट करना अपना कर्त्तव्य समझ ले। साथ ही अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहताको अपने जीवनमें समाविष्ट कर ले। इसके बिना न तो विश्वसंघको स्थापना हो सकती है और न दुनियामें सुखशान्तिका साम्राज्य ही कायम हो सकता है। महात्मा गाँधीजीने विश्वमें शान्ति स्थापित करनेके लिए इसी बातको आज विश्वके सामने रखा है, परन्तु यह विश्वका दुर्भाग्य है कि उसका लक्ष्य अभी इस ओर नहीं है। इस प्रकार भगवान ऋषभदेवने जिस धर्मको आत्मकल्याण और विश्वमें व्यवस्था कायम करनेके लिए चुना था, वह क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारोंसे शून्य मानसिक पवित्रता तथा अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहता विशिष्ट बाह्यप्रवृत्ति स्वरूप है। हम देखते हैं कि आज भी इसकी उपयोगिता नष्ट नहीं हुई है और भविष्यमें तो मानव-समष्टिमें मानवताके विकासका यही एक अद्वितीय चिह्न माना जायगा। भगवान ऋषभदेवसे लेकर चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर पर्यन्त सब तीर्थंकरोंने भगवान ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित इसी धर्मका प्रकाश एवं समुत्थान किया है । इनके अतिरिक्त आगे या पीछे जिन महापुरुषोंने धर्मके बारेमें कुछ शोध की है वह भी इससे परे नहीं हैं। अर्थात् न केवल भारतवर्षके, अपितु विश्वके किसी भी महापुरुष द्वारा जब कभी धर्मकी आवाज बुलन्द की गई, उस धर्मकी परिभाषा भगवान ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित धर्मको परिभाषासे भिन्न नहीं है। इसका कारण यह है कि एक ही देशमें रहनेवाली भिन्न-भिन्न मानवसमष्टियोंकी तो बात ही क्या, दुनियाके किसी भी कोनेमें रहने वाले मनुष्योंकी जीवनसम्बन्धी आवश्यकताओंमें जब भेद नहीं किया जा सकता है तो उनके धर्ममें भेद करना मानवसमष्टिके साथ घोर अन्याय करना है। इसलिए धर्मके जैन, बौद्ध, वैदिक, इस्लाम, क्रिश्चियन इत्यादि जो भेद किये जाते हैं, ये सब किसी हालतमें धर्मके भेद नहीं माने जा सकते हैं। धर्मरूप वस्तु तो इन सबके अन्दर एक रूप ही मिलेगी और हमें इनके अन्दर जो कुछ भेद दिखलाई देता है वह भेद या तो धर्मका प्रतिपादन करने या उसके प्राप्त करनेके तरीकोंका है या फिर वह अधर्म ही कहा जायगा। ___इस तरह अपने जीवनको सुख-शान्तिमय बनानेके उद्देश्यसे मानव-समष्टिमें सुख-शान्तिका वातावरण लानेके लिए प्रत्येक मनुष्यको जिस प्रकार अपनी क्रोध, मान, माया, लोभ आदि मानसिक दुर्बलताओंको कम करना तथा हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और परिग्रहस्वरूप प्रवृत्तिको रोकना आवश्यक है उसी प्रकार परस्पर सौहार्द्र, सहानुभूति और सहायता आदि बातें भी आवश्यक हैं। इसलिए इन सब बातोंका समावेश भी धर्मके ही अन्दर किया गया है । इसके अतिरिक्त अपने जीवनको सुखी बनाने में शारीरिक स्वास्थ्यको भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। अतः शारीरिक स्वास्थ्य-सम्पादनके लिए जो नियम-उपनियम उपयोगी सिद्ध होते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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