Book Title: Ratnakar ki Hanskala
Author(s): G Bramhappa
Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ रत्नाकरकी हंसकला जी० ब्रह्मप्पा, कोल्लेगाल, मैसूर रत्नाकर कन्नड़के अग्रणी कवि है। उनका भरतेश-वैभव कन्नड़ साहित्यका एक अमूल्य रत्न है । यह भारतकी कई भाषाओंमें अन दित हो चका है और कविका कीर्तिस्तम्भ है। रत्नाकरकी साहित्यसृष्टि जितनी अद्भुत है, उनका जीवन भी उतना ही रोमांचकारी है। बाल्यकालमें ही वे असाधारण प्रतिभाके धनी थे और वे भैरवराजके दरबारमें सम्मानित हुए । वे 'शृंगार कवि' बने और वहाँकी राजकुमारी उनके मोहमें पड़ गई । इसी समय उन्होंने अपना भरतेश-वैभव नामक अमर काव्य लिखा । रत्नाकर महान् क्रान्तिकारी कवि थे। उनके विचारोंको तत्कालीन जैन समाज सहन नहीं कर सका । फलतः वे अजैनवीरशिव बन गये। कालान्तरमें समाजने उनके विचारोंका मूल्य समझा और उसने उन्हें अपनी समाजका पुनः अग्रणी बनाया। रत्नाकर सोलहवीं शताब्दीके ज्ञातनाम कन्नड़ कवि हैं। वे महाकवि ही नहीं, महायोगी भी थे । भरतेश वैभवके अतिरिक्त उन्होंने रत्नाकरशतक, अपराजितेश्वरशतक, त्रिलोकशतक तथा अनेक स्फुट गीत-काव्य लिखे हैं। उनके 'भरतेश-वैभव' मे जहां उनकी साहित्यिक प्रतिभाके दर्शन होते हैं, वहीं उसमें उनके दार्शनिक तथ्योंको साहित्यिक रूपमें सँजोनेकी कलाकी अप्रतिभाका भान भी होता है। इस लेख में मैं भरतेश वैभवके दार्शनिक पक्ष सकलाका किंचित् विवरण देनेका प्रयत्न करूँगा। उसके माध्यमसे रत्नाकरकी साहित्यिक काव्यकलाके भी रूप प्रकट होंगे । हंसकला क्या है ? रत्नाकरके दर्शनके लिए भेद-विज्ञान ही बुनियाद है, हंसकला ही कलश है । भरतेश-वैभवका बाहरी आवरण भोग हो, तो इसका आन्तरिक शरीर योग है। जैसे शीतल महासागरमें भी गरम पानीका झरना होना एक अनुपम प्रकृति वैचित्र्य है, वैसे ही भरतेश-वैभवके भोगकी अनेक भंगिमाओंके बीच हंसयोगका संसर्ग भी एक ध्यान देने योग्य चमत्कार है। यदि यह कहें कि रत्नाकरका श्वासनाल भेद-विज्ञान है पर इसका अन्ननाल तो हंसकला ही है, तो अत्युक्ति न होगी। साधक कवि जब उपासना करके थक जाता है, तब वह अपनी थकावट मिटानेके लिए काव्य-रचनामें हाथ लगाता है। काव्यांगनासे संलाप करता है। पर चाहे उपासना हो या काव्य हो, रत्नाकरका मूलोद्देश्य तो हंसकला ही है। रत्नाकरकी दृष्टिमें छन्द, अलंकार और अन्त में रस-ये सब काव्यका बाह्य शरीर है। उसका आन्तरिक शरीर तो आत्मतत्त्व ही है। हंसका अर्थ आत्मस्वरूप ही है। अतः हंसकला आत्मानुसन्धानको कला है। अपने स्वरूपका साक्षात्कार कर लेना ही हंसकला है । इसको ध्यान कहें, तपस्या कहें या योग कहें, सब समानार्थी हैं। आत्मानुसन्धानमें लगनेवाले चेतनको ध्यानी, तपस्वी और योगी कहेंगे । हंसकलोपासकको पहले चित्तवृत्तिका निरोध करना चाहिये। मन बार-बार राग-दूषोंके साथ विनोद करते हुए राह चलनेवाले शैतानको घरमें बुलानेकी तरह कर्मासुरको बुलाता है । मन, बचन और काय हो कर्मासुरके बार करनेके लिए खुले महाद्वार हैं। इन तीनों महाद्वारोंको हंसकलाके लिए जब सुरक्षित रखते है, तभी कर्मासुरको दिग्बन्ध करके रोक सकते हैं। पहलेसे - २२१ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4