Book Title: Rashtrabhasha Hindi Samasyaye va Samadhan
Author(s): Radhamohan Upadhyay
Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Hirak_Jayanti_Granth_012029.pdf

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________________ राधामोहन उपाध्याय राष्ट्रभाषा हिन्दी : समस्याएँ व समाधान राष्ट्र-जीवन में सबसे अल्पकालीन स्थान है प्रशासन का। सरकारें आती-जाती हैं, प्रशासक बदलते रहते हैं पर राष्ट्र सतत अस्तित्व में रहता है। सरकार की अपेक्षा अधिक दीर्घजीवी है भाषा, भाषा की अपेक्षा बहु काल व्यापी है धर्म और धर्म से भी अधिक आयाम है संस्कृति का। वस्तुत: संस्कृति ही राष्ट्र-वृक्ष का मूल काष्ठ है, बाकी सब छिलके हैं। छिलकों के हटने पर भी वृक्ष गिरता नहीं है। राष्ट्र की राष्ट्रीयता को अच्छिन्न कर दो, वह धराशायी हो जायेगा। राष्ट्रीयता के साथ संस्कृति का अविच्छिन्न सम्बन्ध है। संस्कृति के विनष्ट होने पर राष्ट्रवृक्ष खड़ा नहीं रह सकता। विश्व में भारत ही एकमात्र देश है जिसकी राष्ट्रीयता ईसा पूर्व दसवीं सहस्राब्दि से अव्याहत चली आ रही है। इसका एक और भी सौभाग्य है जो किसी भी देश को प्राप्त नहीं है और वह है धर्म एवं भाषा। वही सनातन धर्म समय-समय पर विभिन्न धर्माचार्यों द्वारा देश कालानुरूप संशोधन-परिवर्द्धनों द्वारा अपने को सुपुष्ट करता हुआ अद्यावधि हमें अपना अक्षय पीयूष पान कराता चला आ रहा है। साथ ही यहां वैदिक भाषा संस्कृत, प्राकृत, पालि, अपभ्रंश की घाटियों से प्रवाहित होती हुई आज आधुनिक भारतीय भाषाओं के माध्यम से अपना स्तन्य पान करा रही है। इसे वैदिक वंश की भी संज्ञा दे सकते हैं। भाषा और राष्ट्र यह बात सच है कि भाषा- विशेष राष्ट्र जीवन में अल्पकालीन है लेकिन भाषा राष्ट्रीय जीवन में रक्तवाहिनी या प्राणवाहिनी धमनी के समान महत्वपूर्ण है। केवल नदी, नद, पर्वत, उपत्यकाओं आदि से ही राष्ट्र की संरचना नहीं होती। इसके लिए संगठित जनशक्ति का एवं उसकी संस्कृति का होना भी आवश्यक है। भाषा ही जन संगठन विधात्री है और वही संस्कृति की जननी है। इसी से राष्ट्र की अर्थ-व्यवस्था सुस्थापित होती है। वाणी अपना परिचय खुद देती हुई वेद में कह रही है: अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा याज्ञियानाम्। तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम्। अर्थात् मैं ही राष्ट्र की वह शक्ति हूं जो राष्ट्र को धन प्रदान करती है, जो यज्ञों के भावों को एवं देश को जानने वाली है। मैं बहुत स्थिर, सर्वव्यापक और सबको प्रेरणा देने वाली हूं, देवता लोग मुझे धारण करते हैं। प्रत्येक भाषा की अपनी निजी धड़कन होती है और हर धड़कन में उसकी संस्कृति की झंकृति सुनाई पड़ती है। जो झंकृति 'ऋषि', 'मुनि' और 'संत' शब्दों में है, वह 'फकीर', 'पीर', 'हरमिट' या 'सेज' में नहीं है। अपनी भाषा माता के समान होती है। इसमें अपनी मिट्टी की गन्ध होती है, अपनी सरिताओं का कलनाद होता है और अपने पूर्वजों के साथ तादात्म्य स्थापित करने की क्षमता होती है। अंग्रेजी में इंग्लैंड की मिट्टी एवं संस्कृति गूंजती है जबकि हिन्दी में भारत की। आज दिनोंदिन क्षीयमाण देशभक्ति को संजीवनी देने के लिए केवल मातृभाषाओं के माध्यम से शिक्षा की अनिवार्यता होनी चाहिए। हिन्दी और हिन्दुस्तान आज हिन्दी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्र भाषा है। सरकारी भाषा न होने पर भी राष्ट्र के बहुजन की भाषा होने के नाते और एक मात्र सम्पर्क भाषा होने के नाते हिन्दी राष्ट्र भाषा के पद पर सहस्रों वर्ष पूर्व आसीन हो गई थी यद्यपि इसे सरकारी स्वीकृति न मिली थी। मुगलिया शासन की स्थापना के समय भी हिन्दी राष्ट्र की, बहुजन की भाषा थी। मुगल बादशाह एवं उनके कारिन्दे फारसी के अतिरिक्त किसी भारतीय भाषा को महत्व यदि देते थे तो वह थी हिन्दी। खुसरो इसके गवाह हैं। टूटी-फूटी हिन्दी, फारसी मिश्रित हिन्दी ही कालान्तर में उर्दू बनकर उद्भूत हुई। यदि गिलक्राइस्ट ने फोर्टविलियम कालेज में भाषा (हिन्दी) और उर्दू का अलग-अलग विभाग न खोला होता तो शायद उर्दू हिन्दी की मात्र एक शैली होकर रह जाती। मुगल शासन के दौरान अरबी-फारसी का, विशेष कर फारसी का प्रचार सरकार की ओर से किया गया लेकिन वह सरकारी फरमानों एवं हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / ६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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