Book Title: Rajasthani Jain Sahityakar
Author(s): Rameshkumar Jain
Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ राजस्थानी जैन साहित्य | 467 000000000000 000000000000 कि यूमपाल . TA काSEX (4) तेरह पन्थ के पूज्य जीतमल जी (जयाचार्य)-इनका "भगवती सूत्र की ढाला" नामक ग्रन्थ ही 60 हजार श्लोक का है जो राजस्थानी का सबसे बडा ग्रन्थ है। १७वीं शताब्दी प्रथमार्द्ध के कुछ अन्य प्रमुख कवियों में विजयदेव सूरि, जय सोम, नयरंग, कल्याणदेव सारंग, मंगल माणिक्य, साधुकीति, धर्म रत्न, विजय शेखर, चारित्रसिंह आदि के नाम स्मरणीय हैं। राजस्थानी जैन-साहित्य की प्रमुख विशेषताएं-राजस्थानी जैन-साहित्य का परिवार बड़ा विशाल है / इस साहित्य का बहुत बड़ा अंश अभी जैन-अजैन भण्डारों में सुरक्षित है। अब जैन भंडारों की पर्याप्त शोध हो रही है / अतः इस साहित्य की जानकारी में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही है। संक्षेप में राजस्थानी जैन-साहित्य की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं 1. एक विशिष्ट शैली सर्वत्र लक्षित होती है, जिसको जन-शैली कहा जा सकता है। 2. अधिकांश रचनाएँ शान्त-रसात्मक हैं / 3. कथा-काव्यों, चरित-काव्यों और स्तुतिपरक रचनाओं की बहुलता है। 4. मुख्य स्वर धामिक है, धार्मिक दृष्टिकोण की प्रधानता है। 5. प्रारम्भ से लेकर आलोच्य-काल तक और उसके पश्चात् भी साहित्य की धारा अविच्छिन्न रूप से मिलती है। 6. विविध काव्य रूप अपनाए गये, जिनमें कुछ प्रमुख ये हैं रास, चौपाई, संधि, चर्चरी, ढाल, प्रबन्ध-चरित-सम्बन्ध-आख्यानक-कथा, पवाड़ो, फागु, धमाल, बारहमासा, विवाहलो, बेलि, धवल, मंगल, संवाद, कक्का-मातृका-बावनी, कुलुक, हीयाली, स्तुति, स्तवन, स्तोत्र, सज्झाय, माला, वीनती, वचनिका आदि-आदि / 7. साहित्य के माध्यम से जैन धर्मानुसार आत्मोत्थान का सर्वत्र प्रयास है। 8. परिमाण और विविधता की दृष्टि से सम्पन्न है। 6. जैन कवियों ने लोकगीतों और कुछ विशिष्ट प्रकार के लोक कथानकों को जीवित रखने का स्तुत्य प्रयास किया है। 10. जैन कवियों ने राजस्थानी के अतिरिक्त संस्कृत तथा प्राकृत-अपभ्रश में भी रचनाएँ की हैं। 11. जैन साहित्य के अतिरिक्त विपुल अजैन साहित्य के संरक्षण का श्रेय जैन विद्वानों और कवियों को है। 12. भाषा-शास्त्रीय अध्ययन के लिए जैन-साहित्य में विविध प्रकार की प्रचुर सामग्री उपलब्ध है / प्रत्येक शताब्दी के प्रत्येक चरण की अनेक रचनाएँ प्राप्त हैं, जिनसे भाषा के विकासक्रम का वैज्ञानिक विवेचन किया जा सकता है। डॉ० टैसीटरीका पुरानी पश्चिमी राजस्थानी सम्बन्धी महान कार्य जैन रचनाओं के आधार पर ही है। आज राजस्थानी जैन-साहित्य के एक ऐसे वृहद् इतिहास की आवश्यकता है, जिसमें कुछ वर्गों या विचारों के विभाजन के आधार पर उसका क्रमबद्ध अध्ययन प्रस्तुत किया जा सके / स्फुट रूप से जैन-साहित्य पर बहुत सामग्री प्रकाश में आ चुकी है। किन्तु उसकी क्रमबद्धता का अभी भी अभाव बना हुआ है। राजस्थानी जैन-साहित्य का ऐसा प्रतिनिधि-इतिहास ग्रन्थ न होने के कारण तथा संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य की बहुत-सी उन्नत दिशाएँ आज भी धुंधली हैं। JOIN .... 1 राजस्थानी भाषा और साहित्य-डॉ० हीरालाल माहेश्वरी, पृष्ठ 271 नोट :-प्रस्तुत लेख में श्री अगरचन्द नाहटा के अनेक लेखों जो कि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं, से सहायता ली गई है / उनका मैं हृदय से आभारी हूं।-लेखक SA - : ----::S.BRat1 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5