Book Title: Rajasthani Hastlikhit Granthsuchi Part 01
Author(s): Jinvijay
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
View full book text
________________
१३८ ]
[ राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान दूहा- करि प्रणाम श्री सारदा, अपनी बुध परमान ।।
सुक शप्त वार्ता उ करी, न्यायते देवी दान ।। १ विक्रम नगर सुहामरणो, सुष सपतकी ठोर ।
हिदू थान ऽरु हिदू धरम, असो सहर न और ।। २ अन्त- • हरदत्त सेठ होम करायौ तिहा सारिका पिण आई। ऊपरसु दिव्यमाला पडी। उणरे दर्शन सेती सराप छूट शुककारिका गर्व होय आपण लोक गया।
इति श्रीबहुत्तर वार्ता सुध सूवाबहुत्तरी सपूर्णम् ॥ ७२ सवत् १८६९रा मिती श्रावण सुदी १ दिने लिषत प० बिजैसमुद्रेण श्रीजैसलमेर दुगर्गे रतुर्मास्या स्थिता । १८४५ ४४१६ शुकबहोतरी । प्रथम पत्र प्राप्त
आदि- दी कह्यौ । पृथवीकै विष बहतरी कथा मनुष्य भाषा करि प्रभावती आगे कहसी। सील रषावसी। तदि गधमाद परवतकै विष प्राविन शुक सरीर छोडिक मूल गौ शरीर पामी पाचसै मोहर ब्राहमणनै दान देई । निपाप थाइस · ।
. अन्त- कवि देवदत कहै। शकका वचन भेला करिकै आपकी बुद्धिक अनुसार बाधी छई।
इति श्रीशुकबहोतरी कथा समाप्ता ॥ सवत् १७६० वर्षे आसोज बदि ६ षष्टी भोमवासरे प० वनीतविजय लिपि चक्रे ।। शुभभवतु ।। श्रीसमाप्ता ।
१७४५ ९८५ श्रीपाल रास ( ज्ञानसागर कृत)
आदिदि०॥ दूहा- कर कमलजोडेवि करि, सिद्ध सयल पणमेस ।
श्रीश्रीपाल नरिंदनु, रामबध पभरणेस ॥ १ महीयलि मत्र अनेक छ, पपलि मपडिग मार ।
भवसायर तनु स्तरै, जो जप श्रीनवकार ।। २ अन्त- सिद्ध चक्र महिमा सुणो ए माल वडी भवेया कर्णधरेवि सुणो सुदरी भ० २ मनवछित सुषदायकु ए माल० ॥ जे सुणे नितमेव सुरणो० जे० १ एक मना जे जिन जपइए मा० ते घर मगल माल सु० ते० २ ऋद्धि अनती भोगवे ए मा० जम भूपति श्री सुणो सुदरी जे० २।
इति श्रीपालरास मपूर्ण । १७४६ ६६१ श्रीपाल रास (जिनहर्ष रचित)
आदिदि०॥ दहा ॥ श्रीअरिहत अनत गुरण, घरीयइ हीय. ध्यान ।
केवल ज्ञान प्रकाश कर, दूरि हररण अगन्यान ।। १ चउद राजु ऊपरि रहइ, सिध अनत समृद्धि ।
मुगति युवति सुष भोगवइ, दायक अविचल मिद्धि ॥ २ अन्त- सवत सतरइमै चालीस, चैत्रादिक सुजगी इसइ रे।।
मातइ सोमवार सुत दीस, पाटण विसवा वीसैरे ॥ १०

Page Navigation
1 ... 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156