Book Title: Rajasthani Chitrakala Author(s): Parmanand Choyal Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 4
________________ 666 : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय शैली से ही बूंदी कला की उत्पत्ति मानी जानी चाहिए, हालांकि मुगलशैली की नजाकत का भी इसमें कम प्रभाव नहीं पड़ा. पुरुषों की वेषभूषा में चमकदार (कोनेनुमा) जामें व अटपटी पगड़ियों के पहनावे से इनकी प्राचीनता आंकी जा सकती है. नेशनल म्यूजियम दिल्ली में बूंदी कलम के कई प्राचीन रेखा-चित्र प्राप्त हैं, जिनमें चेहरे के कोण मिटने लगे हैं. रचनाचातुर्य, कलम की कारीगरी, शैली की प्रौढ़ता, रंगोंका माधुर्य व आलेखन की सच्चाई देखकर भान होता है कि ये चित्र 1630 से 1660 के लगभग बने होंगे. कर्ल खंडेलवाल द्वारा प्रकाशित बूंदी कलम के चित्र काफी प्राचीन हैं. इस तरह के चित्रों का समय 1660 से.१६६० ईसवी तक था. स्त्री चेहरों की बनावट में इन बूंदी के आरम्भिक चित्रों में मेवाड़ शैली का अत्यधिक प्रभाव झलकता है, फिर भी गठन में यह काफी पुष्ट हैं. इनमें दृश्य चित्रण भी अधिक यथार्थ बन पड़ा है. यहां बूंदी की अपनी आकृतियों का निर्माण होते हम सर्व प्रथम देखते हैं. अब चेहरे छोटे व गोल हो गये हैं. गालों की गोलाई दिखाने के लिये आँख के नीचे व नाक के पास छाया का प्रयोग किया जाने लगा जो मेवाड़ कलम के चित्रों में कहीं नहीं दिखाई देता. मेवाड़ चित्रों में चेहरे चपटे बनते थे. जिन चेहरों में मेवाड़ी प्रभाव दिखाई देता है वे भी अत्यन्त कमनीय बनाए गये हैं. चेहरे का रंग लाल व किंचित् भूरापन लिये हुए हैं. रंग चटकीले होने पर मंदभूत व गम्भीर होने लगे हैं. पानी बल खाती रेखाओं की आवृत्ति द्वारा चित्रित किया गया है. पृष्ठभूमिका की हरीतिमा को लाल-पीले फूलों से आच्छादित दिखाया गया है. इमारतों का चित्रण भी बड़ी दक्षता से उसमें जड़ी हुई एकएक ईंट बनाकर किया गया है. १८वीं शती के मध्य के बने बूंदी शैली के चित्र अत्यन्त मधुर व श्रेष्ठ हैं. श्री कनौड़िया के संग्रह में इस शती के बने राग रागनियों के 36 चित्रों को देखकर इनके सौंदर्य का भान किया जा सकता है. १८वीं शती के अन्त में यह सुथरापन व निरूपण का माधुर्य क्षीण होने लगा. लाल रंग की जगह चमकदार पीला रंग अब चेहरों में भरा जाने लगा. गोलाई के लिए अत्यधिक परदाज का प्रयोग कुछ-कुछ कर्कशता पैदा करने लगा. पानी दर्शाने वाली सफेद रेखाएँ भी घनी व मोटी होने लगी. मुंह के समीप छाया दिखाकर पृष्ठभूमि से आकृति को उभारने का बेतुका प्रयत्न किया जाने लगा. पेड़ पौधों को घने फूल पत्तों व लताओं से आच्छादित किया जाने लगा. नारियों के वस्त्रों में जगह-जगह सोने की तबक' की छिड़कन ने चकाचौंध पैदा कर कौतूहल बढ़ा दिया, परन्तु भावाभिव्यक्ति जाती रही और ऐसा लगा कि शैली में यह मुगलिया शान शौकत की मिलावट धीरे-धीरे इसे अवनतोन्मुख करने लगी. रंगों की गहराई में भी परिवर्तन हो गया. शांति व कोमल रंगों का प्रयोग होने लगा-मीनाकारी व नक्काशी बढ़ गई. पेड़ अधिक स्वाभाविक बनने लगे परन्तु अब फूल पत्तों व लताओं का रंग-बिरंगा परिधान लुप्त होने लगा. पेड़ व पत्तों में छाया व प्रकाश अधिक दर्शाया जाने लगा. पानी के लिये चांदी का रंग प्रयुक्त होने लगा. जगह-जगह मॉडलिंग में[गढ़न] मुगल प्रभाव झलकने लगा. रात्रि के चित्रण में यह प्रभाव अत्यधिक बढ़ गया. १८वीं शती के अन्त के चित्रों में रंगों की कर्कशता व अलंकरण की बहतायत ने चित्रोपम सौंदर्य खो दिया. कहीं-कहीं चित्र अपूर्ण ही छोड़ दिये गये गये हैं. इनमें नारियों के चेहरे भारी व बेडौल बनाए गए हैं. आँखें घुमावदार व लम्बी, ठुड्डी भारी और ललाट चन्दन से पुता हुआ. शायद बूंदी का दक्षिण से भी राजनैतिक व सांस्कृतिक संबंध रहा होगा. इसी कारण दक्षिणी शैली का भी प्रभाव बूंदी कलम में दिखाई देता है. बंदी के चित्रों में १८वीं शती में रंग चपटे, प्राणहीन व बदरंग हो गये और धीरे-धीरे शैली का स्वाभाविक सौंदर्य जाता रहा. राजस्थानी चित्रकला में किशनगढ़ कलम की देन बेजोड़ है. राजा मानसिंह [1658-1706] के समय से ही किशनगढ़ में श्रेष्ठ कलाकार पाए जाते हैं. मानसिंह की युवावस्था की एक ओजपूर्ण तस्वीर नेशनल म्यूजियम दिल्ली में है. जिस में वह घोड़े पर सवार हैं व भैंसे का शिकार कर रहे हैं. यह चित्र 1664 शती का है. इसमें औरंगजेब कालीन मुगल कला का प्रभाव झलकता है. मानवाकृति में सुफियानापन किशनगढ़ कलम में यहीं से शुरू हो गया था. १८वीं शती के राजा शेषमल के शबीह चित्र में यह और भी गहरा हो गया. राजा के इर्द-गिर्द तहजीब व कायदे कानून से खड़े हाकिम हुक्काम, पृष्ठभूमि में दृष्टिक्रमानुसार अंकित झील व किला, प्रकृति का स्वाभाविक चित्रण इन सबमें औरंगजेब व फर्रुखसियर काल की कला का काफी प्रभाव दिखाई देता है. भवानीदास इस समय का प्रसिद्ध चित्रकार था. राजा _Jain Edit Dinemorary.org --Page Navigation
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