Book Title: Rajasthani Chitrakala
Author(s): Parmanand Choyal
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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________________ Mansi VISIT IN Ind प्रो. परमानन्द चोयल राजस्थानी चित्रकला कला मानव हृदय की मूर्तिमान अभिव्यक्ति है. बाह्य जगत् से बिम्बित कला सृष्टि को ही जो महत्व देते है, अन्तर्मुखी कला का रसास्वादन वे नहीं कर पाते. यही कारण है कि यथार्थ चश्मे से देखनेवाले लोग भारतीय कला का आनन्द नहीं ले सकते. जबसे डाक्टर, आनन्द कुमार स्वाभी ने भारतीय कला के पक्ष में लेखनी उठाई, देश-विदेश के कला मर्मज्ञ भारतीय कला को आदर की दृष्टि से देखने लगे हैं. अजनता, एलोरा, पाल गुजराती, बाघ, साइगिरिया सित्रनवासल, तुर्किस्तान, बामिया, कश्मीरी, मुगल, राजस्थानी व पहाड़ी चित्रकला का अध्ययन आज विद्वानों के लिये रुचि का विषय हो गया है. युगयुगीन भारतीय कला परम्परा में (इस २००० वर्ष की भारतीय कला में) राजस्थानी चित्रकला का अपना विशिष्ट स्थान है. १७ वीं शती के बौद्ध इतिहासकार तारानाथ ने लिखा है कि ७ वीं शती में राजस्थान, कला का मुख्य केन्द्र था. जहाँ से भारत में एक विशेष कला-धारा बही. श्रंगधर इसका प्रमुख चित्रकार था. खेद है कि इस वर्णन के अतिरिक्त उससे पूर्व की राजस्थानी चित्रकला के विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है.. राजस्थान में चित्रों के तीन प्रकार दिखाई देते हैं. भित्ति-चित्र, इकहरे पृष्ठ पर बने पुस्तक चित्र व वसली पर अंकित छिन्न चित्र. भित्ति-चित्रण की प्रथा अजन्ता युग से चली आई है, परन्तु अजन्ता की भूमि तैयार करने की विधि एवं राजस्थानी विधान में काफी अन्तर है. शुद्ध फेस्को प्रोसेज (भित्ति पर चित्र बनाने की विशेष वि) राजस्थानी भित्ति-चित्रों में ही पाया जाता है. इस दृष्टिकोण से इटली के डेम्प प्रोसेज (गीली भूमि पर चित्र बनाने की प्रक्रिया) के समीप रक्खा जा सकता है. सबसे प्राचीन राजस्थानी भित्ति-चित्र जयपुर के समीप बैराट् नामक स्थान में पाये गये हैं. राष्ट्रीय ललित कला अकादमी के आग्रह से श्रीकृपालसिंह शेखावत ने कुछ वर्ष पूर्व इनकी कॉपी (अमुकृति) कर इस छिपे खजाने को संसार के सम्मुख लाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया. इन चित्रों के विषय वीर रस से ओतप्रोत - वर्ण-विधान समतल व स्थूल रंग के इने गिने मंदभूत, रेखाएं घुमावदार एवं गतिपूर्ण हैं. १७ वीं शती से १६ वीं शती तक के राजस्थानी भित्ति-चित्रों से आज भी सैकड़ों प्राचीन इमारतें, हवेलियाँ व महल भरे पड़े हैं. कोटा की झाला की हवेली में बने राग-रंग व शिकार के चित्र कल्पना व रचना चातुर्य के अनुपम नमूने हैं. लोक कथाएँ, दरबारी ठाठ बाट, शिकार के दृश्य, एकांकी छवि घोड़े पर हुक्कामों के साथ, हुक्के की नली गुड़गुड़ाते जागीरदार, ठाकुर या राजा की औजपूर्ण आकृति, जनानखानों की रंगरेलियाँ, नायक नायिकाओं की प्रेम भरी लीलाएं, बारहमासा व रति रहस्य इत्यादि राजस्थानी भित्ति चित्रों के मुख्य विषय रहे हैं. चूनामिट्टी खिर जाने से ऐसी चित्रित दीवारे अब बढ़ती जा रही हैं इस तरह राजस्थानी चित्रकला का एक बड़ा अंश शनैः शनैः लुप्त होता जा रहा है. सबसे पुराने पुस्तक-चित्र भोजपत्र व ताल पत्रों पर बने मिलते हैं. १२ वी शती में कागज निर्माण के बाद जैन सचित्र पुस्तकों की रचना आरम्भ हुई जिसका मुख्य केन्द्र गुजरात था. सांस्कृतिक एवं राजनैतिक दृष्टि से गुजरात व दक्षिणी Jain Edu24 Dery.org

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